Monday, 8 August 2011

अल्हड़ पनिहारिन


सुना भोर का गान ,
पाकर उत्साह नवीन |
सिर पर धर मटुकी ,
चली अल्हड़ पनिहारिन ||

नपे-नपे क़दमों से ,
पगडण्डी पर चाल |
हौले-हौले गुनगुना रही ,
हाथों से दे ताल ||

दायें-बाएं , कभी नीचे ,
कभी देखे आसमान |
जस की तस हरपल ,
सिर-मटुकी की शान ||

भेड़ों के झुरमुट को ,
हिला दिया रेत से |
तोड़े गन्ने दो-चार ,
जो गुजरी खेत से ||

पहुँची पनघट , मटुकी अपनी ,
सिर से दी उतार |
अपनी बारी गिन रही ,
लम्बी लगी कतार ||

और कुछ पल में ,
कुँए की मिली मुंडेर |
भर ली  मटुकी  , पीछे पलटी ,
अब घर को क्या देर ||

दिन भर में मटुकी खाली ,
भोर में वो ही सार |
रीती मटुकी भरते-भरते ,
जीवन दिया गुज़ार ||

यों मुझे कविता के नियम-कायदे तो नहीं आते, पर अपने बहुत सारे भावों को कम शब्दों में कहने का ये ही तरीका ठीक लगा.....

:- टिम्सी मेहता .

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