Wednesday 28 March 2012

वो मनुआ बेपरवाह…

'अतिथि देवो भव' की अवधारणा वाले हमारे घर में एक अतिथि पधारे. अपनी कुतरने की आदत के लिए मशहूर, भूरे रंग के इन अतिथि को हम दुनिया वाले 'चूहा' नाम से जानते हैं. आते ही, घर के किसी अन्तरंग सदस्य की तरह इन्होनें रसोईघर में डेरा जमा लिया. रसोईघर के प्रति इनका ऐसा लगाव देखकर ऐसा भी अंदेशा होने लगा, कि यह चूहा न होकर, एक चुहिया होगी. खैर, अतिथि भी एक सीमा में रहते ही अच्छे लगते हैं. रसोईघर में उनकी अनावश्यक घुसपैठ, हर एक चीज़ में अपनी नाक घुसेड़ना, यह सब आखिरकार परेशानी का सबब बनने लगा. और मन ही मन हम कहने लगे, कि 'अतिथि, तुम कब जाओगे?'. अतिथि भी पूरा समय निकालकर आये थे. मालूम होता था, मानो गर्मी की छुट्टियां यहीं बिताएंगे.
घर में गुप्त मन्त्रणा होने लगी, कि ऐसे अतिथि का क्या किया जाए! बाज़ार से लकड़ी का एक बढिया पिंजरा मंगवाया गया, जिसमें इनके लिए विशेष भोज का प्रबंध किया गया था. हम ऐसा मान कर चल रहे थे, कि स्वादिष्ट भोजन करने की लालसा लिए अतिथिराज जब पिंजरे में प्रविष्ट होंगे, तो इस पिंजरे का द्वार स्वत: बंद हो जायेगा. फिर रातभर अतिथि उसी पिंजरे में विश्राम करेंगे. और सुबह हम उन्हें आदर सहित किसी खुले मैदान में विदा कर आयेंगे. पर इनकी चंचलता तो देखें! पिंजरे में प्रवेश कर के भोजन तो ग्रहण कर लेते, पर अन्दर विश्राम न करते. सुबह पिंजरा खाली मिलता. अतिथि-गृह में उनका मन नहीं लगा, यह सोचकर अगले दिन और भी स्वादिष्ट भोजन प्रस्तुत किया जाता. उफ़ ये अतिथि, भोजन का लुत्फ़ उठाकर, मूंछों को ताव देकर बाहर आ जाते, और आँखों ही आँखों में जता देते, कि "चूहा नाम है मेरा, चूहा!". और हम बेचारे सीधे-सादे, भोले प्राणी, मन मसोस कर रह जाते. पर यह सब कितने दिन चलता! कहते हैं, कि अपनी इज्ज़त अपने हाथ ही होती है. ये सब उछल-कूद क्या कम थी, जो उस घुसपैठिये ने हमारे कीमती सामान को भी कुतरना शुरू कर दिया! यह तो सीधे-सीधे उद्दंडता की हद पार करना ही हो गया. अब तो हमने भी अपनी भलमनसाहत त्यागने का मन बना लिया. इज्ज़त से बाहर जाना तो चूहे को रास आया नहीं, तो अब धक्के मार-मार कर निकालने की ही नौबत आ गयी.
एक दिन मौका अच्छा देखकर उस 'मनुआ बेपरवाह' चूहे को झाड़ू की सहायता से घर से निकाल दिया. "बड़े बेआबरू होके तेरे कूचे से निकले हम", गुनगुनाता वह अतिथि किसी नयी मंजिल का रास्ता तलाशता छूमंतर हो गया. सब घरवालों ने चैन की साँस ली. अब हम अपने घर में अपना पूरा अधिकार देख पा रहे हैं. पर जब उस चूहे का यों आना, और जाना, कुछ तो सोचने पर मजबूर करने ही लगा मुझे. जिसे हम अपना घर कहते हुए, उस अतिथि को घुसपैठिया कह रहे थे, क्या उस चूहे को कतई अंदेशा भी रहा होगा, कि वह घर किसी और का है? हमारे यहाँ तो ज़मीन के टुकड़ों पर 'तेरा-मेरा' नाम लिख दिए जाते हैं, पर इन चूहों के यहाँ तो ऐसी कोई व्यवस्था नहीं होती. जहां थक गए, वहीँ पसर गए, सबै भूमि गोपाल की. उस चूहे को खदेड़ते हुए, उसे तो हम दुनिया के सबसे खतरनाक खलनायक के जैसे दिख रहे होंगे. अपनी चार दीवारों में सिमटी दुनिया में कीमती सामान रखकर खुद के बड़े आदमी बन गए होने का भ्रम पाले हम समझ ही नहीं पाते, कि हमसे ज्यादा अमीर तो वो डरपोक चूहा ही है, जिसकी मिलकियत दुनिया के हर कोने पर है. चूहा ही सही, पर अपनी जिंदगी तो जीता है!

Thursday 22 March 2012

वतन की उल्फत..

"अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ भुला सकते नहीं,
सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं!"
२३ मार्च की तारीख मुझे हमेशा याद रहती है. वीर भगत सिंह जी की शहादत की इस तारीख को भुला पाना मुमकिन नहीं है. एक छोटी सी उम्र, जब आँखों में बस अपने भविष्य के सुन्दर सपने तैरा करते हैं, में देश की खातिर अपनी बलिदानी देने को तैयार हो जाना, किसी आम आदमी के बस की बात तो नहीं हो सकती! स्वतंत्र भारत में जन्मने वाले हम सब बहुत भाग्यशाली हैं, कि हमें वो दुर्दिन नहीं देखने पड़े, जब अपनी ही धरती पर हम बंधक, गुलाम होते!
अगर उस वक्त वो सब युवा क्रांतिकारी अपने प्राणों का मोह त्याग कर स्वतन्त्रता आन्दोलन में शामिल न हुए होते, तो आज भी बंधन, और ग़ुलामी के वो दुर्दिन छुड़ाये  न छूट पा रहे होते. आज के समय में तो ऐसे विचार सिर्फ काल्पनिक ही लगते हैं, कि देश के लिए अपना जीवन त्यागने के लिए कोई तत्पर हो, और वह भी अपने जीवन के वसंत-काल में! जिस जीवन को उज्ज्वल बनाने के लिए एक आम आदमी न दिन की परवाह करता है, और न रात की, उस जीवन को आहूत करना बच्चों का खेल तो नहीं हो सकता! किसी परिस्थिति में, जब सामने सफलता स्पष्ट दिख रही हो, बड़े खतरे लेने को भी हम तैयार हो सकते हैं. लेकिन जब लक्ष्य भी स्पष्ट न दिख रहा हो, तब भी न डगमगाना, वो तो भारत के उन महान सपूतों के ही बस की बात थी. कैसा रहा होगा वो जीवन, जिसमे हर पल निगाहें सिर्फ एक ही लक्ष्य पर टिकी रहती थी, और वह लक्ष्य था, भारतमाता को उन अंग्रेज़ डाकुओं की गिरफ्त से मुक्त करा पाना! न भूख दिखती थी न प्यास, रात और दिन का भेद ही नामालूम था, उन सूरमाओं को. और निर्मम मौत तो उन्हें हर पल अपने शिकंजे में कस लेने के लिए कमर कस कर रहा करती थी. पर मौत की किसे परवाह थी? हर एक पल सिर्फ एक आग धधकती रहती थी उन दिलों में, जो अटल लक्ष्य लेकर चले थे, अपनी भारतमाता को आज़ाद कराने का! खुद ही मशाल के जैसे हो गए उन वीरों के आह्वान पर देश में उस वक्त खून का लोहा उबलने लगता था. ऐसे जोशीले सपूत हों, तो माँ कितने दिन बंधक बनी रहती! देश तो आज़ाद हो गया, पर उस आज़ादी की सुबह के सूरज को देखने से पहले उन महान क्रांतिकारियों की आँखें सदा के लिए बंद हो चुकी थी. यकीनन भारतमाता खुश तो बहुत हुई होगी आज़ाद होकर, पर अपने सच्चे सपूतों को खोने के दुःख में आज भी शायद फूट-फूट कर रोया करती होगी! 
हम सब के इस स्वतंत्र जीवन की बुनियाद जिन सच्चे वीरों के प्राणों से बन पायी है, उनकी शहादत के इस दिवस पर मन में बस इतना ही विचार आता है, कि अपनी भारतमाता की उस पीड़ा को दूर कर सकें! भगत सिंह तो हम नहीं हो सकते, पर उनकी शहादत का मर्म तो समझ सकें! उन अमर शहीद की शहादत को मेरा कोटिश: प्रणाम! वीर भगत सिंह जी के ये शब्द हमेशा याद रहते हैं, कि
"दिल से न निकलेगी मर कर भी वतन की उल्फत,
मेरी मिटटी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी".

Wednesday 14 March 2012

होली के बाद...

एक सप्ताह पुरानी हो चुकी हैं होली की खिलखिलाहटें. रंगीन बौछारों के इस पर्व का जायका समय की हवा के साथ बदलने लगा है. आज के समय में जब पानी के स्रोत कम हो रहे हैं, आते समय में सिर उठा सकने वाली समस्याओं को भाँपते हुए कई कोनों से जल-संरक्षण की आवाजें आती हैं. और होली के दिन पानी के अधिक प्रयोग पर भी अंकुश लगाने का आह्वान होता है. 'सूखी होली मनाई जाए, सिर्फ अबीर-गुलाल के साथ', ऐसा संदेश जन-साधारण तक पहुंचाया जाता है. लेकिन समाज का एक वर्ग ऐसा भी है, जो इस संदेश पर आपत्ति दिखाता है.
 इस वर्ग का ऐसा दृष्टिकोण है, कि भारतीय अस्मिता के साथ अभिन्न रूप से जुड़े पर्वों के परंपरागत स्वरूप के साथ खिलवाड़ क्यों किया जाए? तर्क में तो दम है. लेकिन घटते जल-स्तर का उत्तरदायित्व कौन लेगा? आज परम्पराओं का हवाला देकर होली का एक दिन तो मना लिया, लेकिन कल अगर बूँद-बूँद के लिए संघर्ष हो, तो परम्पराएं किस काम आएँगी? साथ ही साथ, विचारने का विषय यह भी है, कि होली के दिन तो जल-संरक्षण कर भी लिया. पर वर्ष के बाकी दिन, कोई लगाम ही नहीं है. हर सुबह अपनी मोटर-गाड़ियों को चमकाने के लिए घर-घर में जितना पानी बहाया जाता है, वह होली के दिन पर होने वाली पानी की खपत से कोई बहुत कम तो नहीं होगा! जबकि, एक गीले कपडे से भी रगड़कर साफ़ किया जाए, तो वाहन अच्छी तरह चमक सकता है. घर का आँगन एक बाल्टी पानी से पोंछ कर भी स्वच्छ किया जा सकता है, पर पानी बहा-बहा कर हर रोज़ उसे साफ़ करना भविष्य के किसी दिन हमारे ही लिए विकराल समस्या बनकर खड़ा हो सकता है. हम सब समझदार हैं. जानते हम सभी, सबकुछ हैं. पर मानते हम दो ही सूरत में हैं. या तो कोई फिल्म-अभिनेता आकर हमें समझाए, या फिर हमारी गलतियों से हमें नुकसान होने लग गया हो.
अब फिल्म अभिनेता खुद तो आकर कहने से रहे. जब तक उन्हें कोई पैसे नहीं देगा, तब तक वे हमें जल-संरक्षण का संदेश देने से रहे. और अगर हम उस दिन के इंतज़ार में हैं, कि जब जल-संकट चरम पर होगा, तब हम जल बचायेंगे, तो जान लें, कि तब तक यकीनन बहुत देर हो चुकी होगी. इसलिए, अपने विवेक का प्रयोग करते हुए, हमें खुद ही जल-संरक्षण के प्रति गम्भीर हो जाना चाहिए.
अबीर-गुलाल के संग जिस तरह हमने होली पर जल-संरक्षण में योगदान दिया, वह होली के बाद के दिनों के लिए एक प्रेरणा के जैसा हो जाए! जल की एक-एक बूँद कीमती है. वाहन चमकाने के लिए या जीवन चलाने के लिए, कहाँ हो जल का प्रयोग, हम खुद ही सोच लें! आखिर अपने वर्तमान, और भविष्य के ज़िम्मेदार हम खुद ही हैं.  

Sunday 11 March 2012

क्या देंगे विरासत में!

एक प्रश्न करूँ! क्या आपको लगता है, कि आप समझदार हैं? मेरे ख्याल से आपका उत्तर होगा, 'हाँ'. एक समझदार मनुष्य विचारशील भी होता है. क्या आपने कभी विचार किया है, कि आप अपनी सन्तान के लिए विरासत में क्या छोड़ कर जायेंगे? किया ही होगा. तभी तो आप दिनभर परिश्रम करते हैं, धन जमा करते हैं. ज्यादा से ज्यादा धन जुड़ जाए, ताकि उसे अपने जीवन में वैसा संघर्ष न करना पड़े, जैसा कभी आपने किया था. बहुत बार, इसी धनराशि को बढाने के लिए आप अपनी आवश्यकता, और रूचि के पदार्थों के साथ समझौता भी करते हैं. मुझे अच्छी तरह पता है, कि आप अपनी सन्तान से बहुत प्यार करते हैं. पर इस प्रकार के परिश्रम से तो आप उसे  केवल घर के भीतर ही सुख दे पायेंगे. घर के बाहर निकलने पर क्या होगा?
घर के बाहर एक कदम रखते ही, साँसों में जाने वाली वायु ही विषाक्त होगी. दिन-भर के अपने क्रियाकलापों पर जरा नज़र तो डालें! वायु-प्रदूषण में कोई कम योगदान नहीं होता हमारा! हर छोटे-बड़े काम के लिए हम अपने मोटर-वाहन बेतहाशा दौडाते रहते हैं. हाँ आवश्यकता, और अनिवार्यता हो तो अलग बात है. पर अनावश्यकताओं पर भी तो हम नहीं थमते! ऐसा करते हुए, हम अपने पर्यावरण को विषैली गैसों से भरते जा रहे हैं. परिणाम तो हमें याद ही नहीं हैं, क्योंकि भौतिकतावादी संस्कृति आज में जीना सिखाती है. लेकिन अगर हम सचमुच भौतिकतावादी हैं, तो कल के लिए धन-संचय क्यों? उत्तर है, कि हम केवल अन्धानुकरण कर रहे हैं. समझ लेना चाहिए, कि अन्धानुकरण खतरनाक हो सकता है. जानलेवा भी हो सकता है. इसलिए, हमें कुछ सूत्रों पर तो विचार कर ही लेना चाहिए.
अगर हम पर्यावरण में हो रहे नुकसान को रोक नहीं सकते, तो एक दूसरा रास्ता भी तो है. अगर हम ज्यादा से ज्यादा पेड़ उगायें, तो हम इस नुकसान की क्षतिपूर्ति तो कर ही सकते हैं. अभी-अभी आपसे प्रश्न किया था, कि आप समझदार हैं या नहीं. अगर आप समझदार हैं, तो यह समझदारी का काम आपको जरुर करना चाहिए. और अगर आपका उत्तर 'नहीं' था, तब तो  मौका अच्छा है, समझदार बनने का. 
आप अपनी ही सन्तान के लिए एक सुन्दर दुनिया बना रहे होंगे! गौर कीजिये, अगर आपकी सन्तान सांस ले पाने में भी कठिनता अनुभव करे, तो आपके द्वारा जोड़ी गयी सोने की गिन्नियां उसके लिए किस काम की होंगी? एक ऐसी विरासत का निर्माण होना चाहिए, जिससे आपकी सन्तान का जीवन सचमुच आसान हो सके! ज्यादा से ज्यादा वृक्ष लगाइए. गर्व होगा आपकी सन्तान को उस विरासत पर!