Monday 8 August 2011

वो एक मेंढक . . .

                     बारिश की एक फुहार के साथ पता नहीं कितनी सारी छिपी हुई, दबी हुई चीज़ें बाहर आ जाती हैं. कवि की भावनाएँ, चित्रकार की कूची, बच्चों की किश्तियाँ, बड़ों की यादें, पकौड़ों की खुशबू, हवा की ताज़गी, पत्तों की हरियाली, पेड़ों की फुलवारी, और न जाने कितना कुछ और...!! 
                     ऐसा ही एक मनभावन बरसात का दिन था. बगिया में बैठकर बारिश की बूँदों को पौधों के हरे-हरे पत्तों पर टपकते हुए देखना मुझे बहुत अच्छा लग रहा था. नन्ही जल-बिन्दुएँ  जब पत्तों पर गिरती, तो पत्ते हर एक बार , जैसे कि, उन बिन्दुओं के सम्मान में झूम उठते थे. मिट्टी पर बार-बार गिरने वाली बूँदें धरती में छोटे-छोटे खड्डे कर देती थी, और उन खड्डों में पानी का टपकना भी एक काव्यात्मक दृश्य हो रहा था.
                     इधर-उधर से छोटे बच्चों का ठिठोली-भरा शोर भी सुनाई दे रहा था, जो उस वातावरण में और भी उल्लास भर रहा था. इस सुन्दर मौसम का आनंद उठाते हुए मेरी नज़र एक मेंढक पर पड़ी. हरा-हरा सा ये नन्हा जीव भी बारिश की फुहार के असर से ही अपने बिल से निकल आया था. या शायद मौसम की पहली बारिश का रोमांच उसे भी हो रहा होगा, जिसमे भीगने से वो खुद को रोक नहीं पाया होगा.
                      यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ, फुदकता हुआ वो मेंढक, मानो, कुछ  ढूंढ रहा था ...! ढूंढना तो खैर क्या ही होगा, ये तो उसकी स्वाभाविक ऊर्जा है, जो उसे हमेशा मगन रखती है, उसकी अपनी दुनिया में, जहां टर्राना और फुदकना उसका जन्मसिद्ध अधिकार है. और उसकी टर्रटर्राहट भी, जैसे बारिश के साथ जुगलबंदी करते हुए, एक नया संगीतमय माहौल बना रही थी..! मुझे उसकी उछल-कूद देखते हुए कुछ अजीब-सा मज़ा आ रहा था..!  बेखबर, निश्चिन्त, न किसी से कुछ लेना, न कुछ देना ... और जिस दिशा में मन आये, उसी ओर मुड़ जाना ..!
                      यों ही फुदकते-फुदकते कब वो बगिया से निकल कर सड़क के किनारे पहुँच गया, और कब एक बड़ी गाड़ी का रौबीला पहिया उसे रौंदता हुआ आगे चला गया, इसका  शायद  मेरे अलावा और किसी को भी पता नहीं चला होगा..! जितने हिस्से पर वो मेंढक फुदक रहा था, बस उतने हिस्से की धरती लाल हो गयी थी उसके खून से ! और वो भी भला कितनी देर के लिए ! बारिश के पानी में वो लालिमा भी देखते ही देखते कहीं खो गयी.
                     दुःख तो मुझे बहुत हुआ, लेकिन समझ में नहीं आया, कि क्यों?  एक मेंढक के होने-न होने से इतनी बड़ी दुनिया में किसी पर फर्क ही क्या पड़ता है..! क्योंकि उसका किसी से भी भावनात्मक लगाव तो था ही नहीं.                      
हर सुबह अखबार में एक 'ख़ास' किस्म के समाचार पढ़ते हुए मुझे रोज़ वो मेंढक याद आता है, और ऐसा लगता है, कि आज के आदमी और मेंढक में बहुत ज्यादा फर्क नहीं रह गया है .....

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