Friday, 2 September 2011

गुलाब के प्रहरी

                     
                        गुलाब के फूल मुझे बहुत पसंद हैं. इस नाम में ही, मानो एक स्नेहिल निमंत्रण छिपा हुआ है. गुलाब के पौधे के पास पहुँचते ही उसकी मनमोहक सुगंध एक भाव-भीना स्वागत करने लगती है. रंग देखें, तो लाल, पीला, गुलाबी, केसरी..और पता नहीं कितने-सारे और..! और हर एक रंग से, कैसे एक जादुई आकर्षण टप-टप टपकता हुआ..! सुन्दरता, नवीनता, कोमलता से भरपूर, यौवन के चरमोत्कर्ष को छू रहे गुलाब को देखते ही, उन महानुभाव को धन्यवाद देने का मन होता है, जिन्होंने कभी गुलाब को 'फूलों का राजा' घोषित किया होगा. सदियों से कवि की कलम निरंतर गुलाब की सुन्दरता से प्रेरित होती रही है. कभी गुलाब की कली, तो कभी पुष्प की गरिमा पर शब्दों की पुष्पांजलि अर्पित करती आई है. और इसके उपरान्त भी, ये प्रेरणा आज तक कम नहीं हो नहीं पायी. गुलाब नित्य-नूतन होकर, हर पल एक नयी उमंग ,नयी भाव-भूमि से युक्त ही मिलता है, मुस्कुराता हुआ, महकता हुआ...! 


                       सिर्फ कवि के लिए ही क्यों, प्रत्येक मनुष्य के लिए प्रसन्नता का अमिट सन्देश लिए होता है ये सुन्दर पुष्प. नन्ही कली को देख कर आश्चर्य होता है, ईश्वर की रचना पर ! कैसी सुन्दर, सुगढ़, और मानो, रेशम की छैनी से तराशी गयी हो..! और वही कलिका, जब खिलकर एक संपूर्ण पुष्प में परिवर्तित हो जाती है, तो ईश्वर की रचनात्मकता पर आश्चर्य करने का तो साहस ही नहीं रहता. उसके असीमत्व पर स्वयं ही विश्वास हो जाता है. 

                       झुक जाता है फूल, पूरा खिल जाने पर. वह गुलाब, जहाँ रूप की परिसीमा स्वयं परिभाषित हो रही है, वहाँ भी ऐसी विनम्रता..! वाह..! एक-एक पंखुड़ी खिल-खिलकर मानो अभिनन्दन कर रही होती है जीवन का, एवं जीवन के कारक का..! या फिर, जैसे कि स्वयं ही अंजुली रूप होकर एक नि:शब्द-आभार अर्पण कर रही हो अपने रचयिता को..! क्या इससे सुन्दर चित्रण भी कहीं हो सकता है, जीवन जीने की कला का..? 

                      अलंकारों की कमी नहीं है, इस फूलों के राजा के पास. विनम्रता के साथ, उदारता का भी अक्षय भण्डार..! कितना उदार होता है ये गुलाब, जितनी भी सुगंध होती है, उसे बिना नापे-तोले, बिना संचय किये, बस उड़ेल देता है आती-जाती हवा की चादर पर..! पर फिर भी कभी रिक्त नहीं होता उसका सुगंधि-भण्डार..! 
                       पर ऐसे गुलाब को मैंने आज तक कभी भी कंटक-विहीन नहीं देखा. हर एक फूल की रक्षा के लिए, उसके इर्द-गिर्द सैकडों कंटक , एक युद्धवीर सिपाही की भाँती हर क्षण कटिबद्ध मिलते हैं.  ये देखकर मन में एक स्वाभाविक-सा प्रश्न उमड़ता है, कि जहाँ सौंदर्य की अभिव्यक्ति स्वयं को धन्य अनुभव कर रही है, वहाँ ऐसे निष्ठुर, रसहीन काँटे लगा देने की भला क्या सूझी होगी, प्रकृति को..? पर ये समझने में भी देर नहीं लगती, कि प्रकृति की सूझ-बूझ तो निराली ही है..! इतने सुन्दर पुष्प को भला कौन डाली पर लगा रहने देगा ? हर आता-जाता उसे तोड़कर उसकी सुगंध, कोमलता, और पवित्रता को अपनी मुट्ठी में भर लेना चाहेगा, कुचल देना चाहेगा..! और क्या तब, गुलाब का अस्तित्व संकट में नहीं आ जायेगा ? इसलिए, सजग प्रहरी की भूमिका निभा रहे ये कंटक हर उस हाथ को गुलाब की और बढ़ने से रोकने का प्रयत्न करते रहते हैं, जिसे नैसर्गिक सौंदर्य को नष्ट करने में ही आनंद आता है. 

                        और  ये सब सोचते ही, मुझे एक बात बहुत अच्छी तरह समझ आ जाती है, कि संसार भले ही कितना भी रंग-रंगीला, उदार, और गुणों का स्वागत करता हुआ मिले, गुणी व्यक्ति यहाँ कभी सुरक्षित नहीं है. जहां-जहां गुणों की सुगंधि, मिठास होगी, वहाँ-वहाँ उसे छीन लेने के लिए हर दिशा से चींटियों का आक्रमण हो जायेगा. ऐसे में, एक पग भी बढ़ा पाना कठिन है संसार में, अगर सुरक्षा-प्रणाली सबल न हो तो. मन भले ही गुणों की मणि से कितना भी प्रकाशमान क्यों न हो रहा हो, व्यवहार में कठोरता का आवरण धारण न किया हो, तो संसार में जीना कठिन हो जाए..! 

                       इसलिए , गुलाब को देखकर प्रेरित होना, मुस्कुराना, और सुन्दर जीवन जीने के लिए संकल्पित होना तब तक अधूरा रहेगा, जब तक हम साथ लगे गुलाब के प्रहरी, काँटों को कोसते रहेंगे. सच तो ये है, कि इन्हीं काँटों की निर्दयता और कठोरता के ही कारण गुलाब का सौंदर्य और कोमलता का अस्तित्त्व बना रहता है. और ये सब देख-समझ कर विश्वास हो जाता है, कि समायोजन की कला में भी प्रवीण है प्रकृति ...!!

                       

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