Sunday 7 August 2011

ये जीवन और वो जीवन . .

                                बचपन में बारिशों के मौसम में सुना करते थे, कि जब बारिश होती है, तब मोर नाचा करता है. सुन-सुन कर कौतुहल हुआ करता था, कि मोर कहाँ नाचा करता होगा, कैसे नाचता होगा.. पंख फैला कर उसका नृत्य कितना भव्य लगता होगा.. ! और एक अनकहा सा इंतज़ार होता था मन में, बड़े होने का.. ! जल्दी से बड़े हो कर, कहीं से मोर का पता लगाने का.. ! और बाद में जब ये पता चला कि मोर तो जंगल में नाचता है, तो थोड़ी-सी निराशा भी हुई..! खैर, बच्चों की बचकानी सोच तो इसी दायरे में ही रहती है.
                               आज इस बात को लेकर नजरिया बदल गया है. कल तक मोर का 'नाचना' रोमांचक लगता था ! और आज , हैरत होती है ये सोचकर, कि जहां कोई देखने वाला नहीं, प्रशंसा का एक शब्द कहने वाला नहीं, वहाँ भी मोर-महाशय की भी क्या ही मस्ती है, जो कभी थमती ही नहीं.. ! मोर ही क्यों, फूलों ने कब खिलना बंद किया जंगल के एकांत में..! जहां किसी कवि ने जाकर गीत नहीं गुने उनकी कोमलता पर रीझ कर, किसी चित्रकार ने नक़ल नहीं उतारी उनकी सुन्दरता की, ऐसे किसी जंगल के नीरवता में भी ये फूल कभी मुस्कुराना नहीं भूलते. झरना अपना संगीत नहीं खोता . चिड़ियों की चहचहाट शहरी आबादी में तो भले ही आज एक भूली-बिसरी सी याद हो गयी है, पर अपने स्वाभाविक गान के लिए उन्हें कभी किसी श्रोता की दरकार नहीं रही.  कभी-कभी तो मधुमक्खियों को देखकर भी मन में अचरज होता है.. ! जिनके डंक के नाम से ही हम डर जाते हैं, ऐसी ये मधुमक्खियाँ अपने नैसर्गिक जीवन में कितनी मग्न होती हैं... ! रोज़ जाकर ताज़ा खिले हुए फूलों की टोह लेना, उनका पराग इकठ्ठा करना, और फिर उसकी शहद बनाना, इस भय से सर्वथा मुक्त, कि कोई भालू नाम का डाकू आएगा, और उनकी कड़ी मेहनत से जुटाया हुआ सारा शहद लूट कर ले जाएगा.. एकदम लयबद्ध होती हैं  ये नन्ही सैनिक.!                                                                                        
                               
                                ऐसा सुरमय है ये प्राकृतिक जीवन..! मानो, सब जीव अपने अस्तित्व के ही सम्मान में झूमते हैं, गाते हैं.. ! नीला आसमान अपनी विशालता के आनंद में झुकता-सा लगता है..! विशाल पेड़ मानो किसी भी परिस्थिति का सामना करने के लिए हर पल कटिबद्ध लगता है, और वहीँ, कोमल लताएं उन पेड़ों से लिपट कर मानो निर्भय-सी हो जाती हैं. कहीं कोई किसी को सम्हाल रहा है, वो भी बिना किसी दंभ-प्रदर्शन के, और कहीं कोई सहायता ग्रहण कर रहा है, तो कृतज्ञता का एक शब्द भी ज्ञापित किये बिना..! ऐसा है ये वनांचल.. पवित्र, निर्मल, और जीवन से परिपूर्ण...! हाँ, हिंसक पशु भी होते हैं वहाँ, पर वो भी तो तथाकथित प्राकृतिक व्यवस्था के अंतर्गत अपना कर्त्तव्य कर रहे होते हैं. जहां तक नियमबद्धता की बात है, तो उसमे तो वो हिंसक जीव भी कोई चूक नहीं करते दिखते. सब अपना प्राकृतिक जीवन एक उत्सव की तरह जी रहे लगते हैं. कितनी उदारता है इस प्रकृति की स्नेहिल गोद में ..!
                                ये तो हम मनुष्य ही है, जिन्हें महंगे से महंगा भोग भी तब तक अच्छा नही लगता, जब तक उसे सब लोग देख न लें..!  कभी-कभी ऐसा लगता है, कि विकास के इतने ऊंचे सोपान पर खड़ा होने के बाद भी मनुष्य बौना रह गया है, एक नन्ही-सी चिड़िया के आगे ..!! 


टिम्सी. 

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