Saturday 6 August 2011

दूसरों के लिए . . .

बचपन में एक कहानी पढ़ी थी, 'दूसरों के लिए' . उस कहानी मे एक बूढा आदमी आम का बीज बो रहा था धरती में. एक राहगीर ने रुक कर पूछा, कि बाबा, ये क्या कर रहे हो..? इतनी उम्र भी बची है क्या, जो आम का बीज बो रहे हो ? पांच साल लगते हैं, पूरे पांच साल , आम उगने में. बूढा आदमी विनम्रता से बोला, मैं नहीं खा पाऊंगा तो क्या, कोई और खायेगा. दूसरों के लिए उगा रहा हूँ मैं ये पेड़. 
तब उम्र कम थी. बात का मर्म समझ नहीं आया था, लेकिन शब्द आज तक याद हैं. अगर किसी और ने आम का पेड़ न लगाया होता, तो आज हम कैसे खाते ! अगर आज हम नहीं लगायेंगे, तो कोई और कैसे खायेगा..!
बहुत सुन्दर लगता है ये चक्र मुझे. जिस तरह से आम का एक बीज धरती में डाला जाता है, और बदले में अनगिनत आम मिलते हैं, उसी तरह, मुझे ऐसा लगता है, कि ख़ुशी भी बीज रूप में होती है. एक बीज ख़ुशी का जब हम अपने इर्द-गिर्द डालते हैं, तो वो पेड़ बनकर इतना बढ़ कर हमारे आस-पास डोलने लगता है, कि जीवन नंदन-वन बन जाता है. हमेशा अपने लिए जीते-जीते हम ये भूल ही गए हैं, कि ख़ुशी बांटने का एहसास क्या होता है. 
एक रुआंसा चेहरा, जिसकी आँखें इंतज़ार करते-करते थक गयी हैं, बुझ गयी हैं, को जब अचानक, अनपेक्षित रूप से उसे कोई ख़ुशी देना.. शायद उसे नहीं, हमारी आत्मा पर अंकित किसी गहरे दुःख के निशान को मिटाने के जैसा  है. आधुनिक समय में प्रचलित कई तरह के मेडिटेशन और योग.. ये सब इसी बात की ओर इंगित करते हैं, कि अपने मन को भार मुक्त किया जाए.  और अगर यही लक्ष्य है, तो क्यों न, किसी रोते हुए बच्चे के आंसू पोंछ कर , या फिर किसी वंचित को सहारा दे कर मन हल्का किया जाए..
"जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ."
एक सुन्दर जीवन त्याग की नींव पर ही खड़ा होता है. जब तक हम अपनी एक नन्ही-सी ख़ुशी का त्याग नहीं करेंगे, तब तक हम किसी को बड़ी ख़ुशी कैसी देंगे..! वैसे, बातें बनाते बनाते हम बहुत बुद्धिमान हो गए हैं. लेकिन कर्म रूप में उन बातों को जीवंत कर पाना अपने ऊपर ही उपकार है. 
 हर एक बार खुद के ही लिए खुशियाँ इकट्ठी करना, खुद के लिए खाना-पीना.. खुद के लिए जीना.. शायद इसी को खुदगर्जी कहते हैं. 'मिल-बाँट' कर खाना तो शायद आज सिर्फ भ्रष्ट लोगों के यहाँ ही होता है. आम आदमी तो बस खुद तक ही सीमित रहता है.  
सन्देश और उपदेश की धरती भारत आज संस्कारों और संस्कृति  के मामले में तो मरुभूमि हो गयी सी लगती है. आइये, इस मरुभूमि को फिर से सींचें, पवित्र भावनाओं से... हम सब को याद रहना चाहिए, कि तब किसी ने आम का पेड़ लगाया था, तभी तो हम आज आम का स्वाद जानते हैं. खुशियों का एक नन्हा-सा पौधा भी रोंपा जाए, ताकि, आने वाला भारत खुशियों के स्वाद से अनजान न रह जाए..

टिम्सी.

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