Tuesday 10 December 2013

"मैं कौन हूँ ? कहाँ हूँ मैं?"

कुछ ही दिन पहले की बात है। रात होने जा रही थी। आँगन में अँधेरा था। किसी काम से आँगन में जाना पड़ा तो अँधेरे के कारण एक खम्बा मुझे दिख न सका। फिर क्या होना था, ज़ोर से चिल्लाने के दो मिनट बाद जब होश संभाला तब मुझे पता चला कि मेरे सर पर ज़ोर से चोट लगी है।

"मैं कौन हूँ ? कहाँ हूँ मैं?", जल्दी-जल्दी खुद से सवाल किया। जवाब सही मिला तो जान में जान आई। शुक्र मनाया मैंने कि याद्दाश्त नहीं गयी।
कुछ दिन तक ज़ोरदार सरदर्द रहा, पर अब बिलकुल ठीक हूँ। सब कुशल-मंगल है। यह महत्त्वपूर्ण समाचार देर से देने के लिए क्षमा करें, पर मैं भी क्या करूँ! मुझे छोटी-सी चोट लगने के बाद जिस तरह से मुझे बधाई देने वालों का . . . म. म. मतलब हाल-चाल पूछने वालों का जो ताँता लग जाता है, उसे संभाल पाना मुश्किल हो जाता है।

तो . . . बस यही बताना था। हो गया।

Wednesday 6 November 2013

आज की ताज़ा ख़बरें...

कई बार लोग पूछते हैं कि आज सुबह नाश्ते में क्या लिया। मेरा जवाब होता है, समाचार-पत्र लिया। सही ही तो है, समाचार-पत्र न पढ़ा तो दिनभर अधूरापन महसूस होता रहता है। आज सुबह समाचार-पत्र  का नाश्ता बहुत स्वादिष्ट लगा, पर पता नही अपच से खट्टी डकारें क्यों आ रही हैं सुबह से। कुछ ख़बरें हो जाएँ!
मुखपृष्ठ पर तो आज सचिन के सिवा कुछ है ही नहीं! और, सचिन के नाम के स्थान पर 'भगवान' शब्द का प्रयोग बहुत खूब लगा। आज खुश तो बहुत हुए होंगे भगवान् (आकाश वाले) अपने इतने महिमा-मंडन पर!  
विदाई के उपलक्ष्य में सचिन जी को सोने का एक सिक्का, और सोने के 199 पत्तों से सजा चांदी से बना बरगद का पेड़ भेंट किया जायेगा। अच्छा लगता है यह सब पढ़कर। आखिर सचिन एक बेहतरीन खिलाड़ी हैं, क्रिकेट जैसे खेल में रन बनाना कोई आसान काम है क्या! पिच पर दौड़ते-दौड़ते ही पसीने छूट जाते हैं! इस विषय को आगे देखेंगे, अभी एक और समाचार पर चर्चा हो जाए।
450 करोड़ की लागत वाला मंगल अभियान का पहला चरण सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। इस पर अपनी टिप्प्णी देते हुए समाचार-पत्र की ओर से कहा गया है कि "इस तरह के भी स्वर सुनाई पड़ रहे हैं कि भारत को ऐसे किसी अभियान में अपनी ऊर्जा और संसाधन खपाने के बजाय अपना सारा ध्यान गरीबी, अशिक्षा और ऐसी ही अन्य समस्याओं को दूर करने में लगाना चाहिए था। यह महज आलोचना के लिए आलोचना वाले स्वर हैं, क्योंकि समग्र विकास के लिए यह आवश्यक है कि देश सभी क्षेत्रों में तरक्की करे। "
समाचार-पत्र जी! आपका कहना एकदम सही है, आज मंगल के मिशन को प्रारंभिक सफलता मिली है। कल पूरी सफलता मिल ही जायेगी। इसके बाद हम वहाँ जीवन हेतु शोध करेंगे। शोध के सकारात्मक परिणाम भी जल्द ही मिलेंगे। फिर एक दिन हम जैसे रईस लोग वहाँ ज़मीन खरीद कर बड़े-बड़े महल और मॉल बनाएंगे। इसके बाद विदेशों में बसना तो पुरातनपंथी लोगों का ही स्वप्न हुआ करेगा, हम आधुनिक लोग तो मंगल पर ही रहना चाहेंगे! आलोचना करने वाले तो बस आलोचना करते रह जाएँगे, उन्हें अनसुना करने में ही अकलमंदी है। 
हूँ! तो… अभी के लिए एक बार गरीब को आलू-प्याज़ में ही उलझने दिया जाए, कारण यह है कि इस समय धन की ज्यादा आवश्यकता अमीरों को है, क्योंकि उन्हें मंगल पर रहने के लिए ज़मीन खरीदनी है, और उसके लिए धन तो चाहिए ही! तो इसलिए एक बार सचिन जी (भगवान् जी) को ही धन-स्वर्ण दे दिया जाए! गरीबी-अशिक्षा इत्यादि समस्याएँ देश के समग्र विकास के बाद देख ही ली जायेंगी! गारंटी से!  
अभी तक जो अपच हो रही थी, उसके साथ ही अभी-अभी सरदर्द भी होने लगा है। चिंता से। सचिन जी के लिए चिंतित हूँ। महंगाई के इस दौर में उनका गुज़ारा इतने कम सोने से कैसे हो पायेगा? उधर सोने के लिए किले के पास क़ी खुदाई भी अब…खटाई में पड़ गयी-सी है!! खैर.. अब तो मंगल से ही मंगल की आशाएं जुड़ी हैं! देखें!

:- टिम्सी मेहता

Thursday 31 October 2013

समाचार-पत्रों में प्रकाशित लेख



कैसी हो दीपावली ...


मिठास एवं प्रकाश के साथ माता लक्ष्मी का स्वागत करने का राष्ट्रीय पर्व है दीपावली। और न जाने क्यों हम हर मायने में इस पर्व के मायने उलट रहे हैं! मिठास हेतु जो मिष्ठान्न बाज़ार से लेते हैं, उनमें कृत्रिम रंग और कीटनाशकों की मात्रा बढ़ती जा रही है, पर किसी पर असर नहीं है। प्रकाश हेतु मिट्टी के पारम्परिक दीये कहीं दिखते ही नहीं हैं, जिनसे कुम्हार को भी रोज़गार प्राप्त हो पाता! बिजली की लड़ियों में सुंदरता तो है, पर स्वाभाविकता नहीं!
बाकी रही माता लक्ष्मी के स्वागत की बात, रात भर बारूद-पटाखे फोड़कर मेहनत से कमाये धन को भस्म करके समृद्धि की देवी को कैसे प्रसन्न किया जा सकता है, समझ में नहीं आता।
घर पर ही मावे और मेवे से स्वादिष्ट पकवान बनाकर, मिट्टी के नन्हे दीपक जगमगाकर इस पर्व को प्रियजनों-मित्रों के संग मनाया जाए, और इसके साथ ही कुछ मिठास और प्रकाश दरिद्र-नारायण को भी अर्पण की जाए। झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने वाले छोटे-छोटे बच्चों की आँखें जब मिठाई देखकर टिमटिमाने लगती हैं, तब मन में प्रसन्नता का प्रकाश स्वयं ही भर उठता है। अगर ऐसी हो दीपावली, तो आनंद ही कुछ और हो!




Wednesday 16 October 2013

ये मेरी हॉबी...

मेरी हॉबी है, रोज़ शाम को अपनी द्विचक्रिका (साइकिल) के आगे लगी टोकरी में रंग-बिरंगे फूलों का एक सुन्दर-सा गुच्छा सजाकर, (हवाई) सैर के लिए निकलना। और उसके बाद रस्ते-भर मस्ती से हीरोइनों की तरह प्यारे-प्यारे गीत गुनगुनाते जाना। मगर आजकल ये मेरी हॉबी मुझे परेशां-परेशां-परेशां करने लगी है। कारण??
 

'मच्छर' !

मौसमी मच्छरों की इस साल ऐसी ज़बरदस्त पैदावार हो रही है, कि रस्ते पर साइक्लिंग करते हुए गाना गाने के लिए ज़रा-सा मुँह खोला नहीं, कि … ईईईई …… ईईईई…………   !!!

प्रिय हस्ताक्षर :-

टिम्सी मेहता :) :P

Friday 11 October 2013

मेरे देश की बातें....

लम्बी यात्रा के बाद आज घर-वापसी हुई। कई शहर पार करते हुए, खेत-खलिहानों के मध्य, एक छोटे-से गाँव में एक औपचारिक कार्यक्रम से जाना हुआ था। जिस शांति-नीरवता का ज़िक्र अक्सर ग्राम्य-जीवन के साथ किया जाता है, ठीक उसी शांति-ठहराव का अहसास वहाँ हुआ। गाड़ियों का शोर-शराबा तो दूर-दूर तक नही, कच्चे रास्तों पर पैदल चलने का अनुभव अच्छा लग रहा था।
कहीं कौवों की काँव-काँव सुनाई दे रही थी, और कहीं रँभाती हुई गाय नज़र आती थी। अपनी मस्ती में घूम रहे छोटे-छोटे बच्चों को रस्ते भर निहारा, उनकी स्वाभाविकता सचमुच एक दुर्लभ दृश्य के जैसी प्यारी प्रतीत हो रही थी। मौसम बहुत अनुकूल न था, और हमारे पास समय भी बहुत कम था। सो इस शुद्ध वातावरण का जितना लुत्फ़ लिया जा सकता था, उतना लिया नहीं गया।
जिनके यहाँ हम गए थे, वहाँ बिजली नदारद थी। इसलिए हाथ वाले पंखे झलकर गर्मी दूर करने के प्रयास करते हुए बचपन के वो छूटे हुए दिन याद आ गए, जब हमारे यहाँ जनरेटर-इनवर्टर नहीं हुआ करते थे। बातों-बातों में हमारे मेजबान ने बताया, कि यहाँ गाँव में तो दिन में दो ही घंटे के लिए बिजली के दर्शन होते हैं, और यह भी पता नही,
कि वो दो घंटे कौनसे होंगे। 
अपनी रौ में वो तो और भी बहुत-सी बातें कहते चले गए, पर मेरा ध्यान तो उनकी उस एक बात ने ही अवरुद्ध कर दिया। गाँव में दिन में सिर्फ दो घंटे बिजली देने का क्या अर्थ हुआ, यह मुझे समझ नही आ सका। उमस भरे मौसम में, क्या गाँव वालों को गर्मी नहीं लगती? और शहर वालों के लिए बिजली की भला ऐसी क्या भारी ज़रूरत होती है, जो गांववालों की नहीं होती?
दिन-रात
मिट्टी में मिट्टी होकर जग-भर के लिए अन्न उगाने वाले किसानों के लिए मेरे यहाँ बिजली तक उपलब्ध नहीं है। मन में बहुत कुछ आया, जो यहाँ लिखने की इच्छा नहीं हो रही! कम शब्दों में, मुझे बहुत ही ख़राब लगा यह सुनकर।

Sunday 25 August 2013

चिकित्सक यानि जीवनदाता???

चिकित्सक को भगवान का रूप माना जाता है। भगवान् के इस रूप के दर्शन पिछले कुछ महीनों से मुझे कुछ ज्यादा ही हो रहे हैं, कभी अपनी ही किसी छोटी-मोटी समस्या से, तो कभी किसी संगी-साथी की तकलीफ के कारण। हर बार एक अजीब बात समान रूप से मुझे दिखती है। आजकल चिकित्सक रोगी से यह नही पूछते कि क्या हुआ, क्या समस्या है! वरन खुद ही कुछेक सवाल कर लेने के बाद, कोई टेस्ट (परीक्षण) कराने की सलाह (निर्देश) दे देते हैं, और उसके बाद अगले रोगी को देखने लगते हैं।
परीक्षण के नतीजे देखने के बाद रोगी को दवाओं की एक लम्बी-सी पर्ची थमा दी जाती है, बिना ही उसे यह बताये, कि उसे हुआ क्या है। और इसके साथ ही, दस-पंद्रह दिन के पश्चात पुन: दर्शन हेतु आने को बता दिया जाता है।
अपना-सा मुँह लेकर हर बार हम बाहर निकल आते हैं।

ये सब देखकर मेरे मन में विचारों की उठापटक तो होनी ही है, सो होती ही है। चिकित्सक यानि जीवनदाता। जब कोई गंभीर समस्या से जूझ रहा होता है, तो उसे जीने की आशा ले कर जाती है चिकित्सालय की ओर। कहते हैं, कि अपने हिस्से की साँसें तो हर कोई गिनवा कर ही लाया करता है न कोई इन साँसों की संख्या बढ़ा सकता है, और न कोई घटा ही सकता है। लेकिन स्वास्थ्य की पटरी से उतरी जीवन की रेल को पटरी पर वापिस तो ला ही सकते हैं चिकित्सक। बेबस रोगी स्वास्थ्य की आशा लेकर चिकित्सक के पास आते हैं, और पूर्ण समर्पण कर देते हैं। अपने जीवन को बचाने के लिए किसी पर कितना विश्वास कर के आये हुए होते होंगे वे! अपने दिमाग की बत्ती को हर समय जगाये रखना, सही समय पर सही तरीके से रोग दूर करने का उपाय करना, और पूरी सजगता से रोगी के स्वास्थ्य-सुधार पर नजर रखना, चिकित्सक का यह काम कतई आसान नहीं है! दवाई जरुर वे कड़वी-कड़वी देते हैं, पर मीठे-मीठे जीवन को बचाने के लिए यह कोई बड़ी दिक्कत वाली बात नहीं है।
पर जहां दुनिया का सबसे महान काम हो रहा है, वहां नोटों की चकाचौंध आ जाए तो कुछ गड़बड़ हो ही जाती है। कई बरस पहले की एक छोटी-सी बात भी कहीं से याद आ रही है। मेरी दादीजी एक चिकित्सक के क्लिनिक पर दवा लेने के लिए गयी। क्लिनिक के बाहर नीम्बू-मिर्ची टंगे दिखे तो उन्होंने पूछा, कि डाक्टर साहब, यह किसलिए? चिकित्सक ने उत्तर दिया, कि इसे टांगने से धंधे में बरकत रहती है। दादीजी ने पलटकर सवाल किया कि तब तो आप यही चाहते होंगे कि ज़्यादा से ज़्यादा लोग बीमार पड़ते रहें, ताकि आपके यहाँ मरीजों की कतार लगी रहे। चिकित्सक से इस सवाल का कोई जवाब न बना, उसका मुंह देखने लायक था। प्रकट रूप से ऐसा प्रश्न शायद उस चिकित्सक ने कभी अपेक्षित नहीं किया होगा। पर उत्तर तो सब समझ ही गए थे। मेरी जानकारी के बहुत से चिकित्सक हैं जो अपना चिकित्सा धर्म पूर्ण निष्ठा से निभाते हैं। पर समाज के कुछ गलियारों में ऐसे भी कुछ चेहरे हुआ करते हैं, जो इस जीवनदाता की भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगा ही देते हैं। ऑपरेशन बिना जरूरत के ही कर दिया जाए! और ऑपरेशन के कई बरस बाद यदि मरीज़ को मालूम हो पाए कि उसके शरीर से एक गुर्दा चोरी हो चुका है, तो कैसा लगता होगा उसे! 
ऐसी बहुत-सी और भी बातें होती हैं जो हर बार अखबारों की सुर्खियाँ तो नहीं बन पाती, लेकिन जब हमारे आस-पास घटित होती हैं तो मन बहुत दुखता है। पैसा इतनी भी बड़ी चीज़ तो नही होती कि जिसे सामने वाले के विश्वास की आड़ में ऐंठ लिया जाये! कोई हमे इंसानी स्तर से इतना ऊपर, अपना 'भगवान' बनाने को तैयार बैठा है, पर हम इंसान से भी नीचे के स्तर के कुछ बनने में कितने खुश हो जाते हैं! नैतिक पतन का इलाज अब कौन सा चिकित्सक कर पायेगा?

Sunday 23 June 2013

हम गर्वीले भारतीय..

पहाड़ों पर भूखे-प्यासे भटक रहे लोगों को रोटी का एक टुकड़ा भी देने से साफ़ इनकार कर दिया। आग जलाने के लिए माचिस की एक तीली-भर देने को भी मना कर दिया। अपने इस बर्ताव से पहाड़ी लोगों ने यह बता दिया कि उनका मन भी पहाड़ के ही जैसा विशाल है। मुसीबत के मारे लोगों का पैसा-सोना लूट-लूट कर उन्होंने यह भी स्पष्ट समझा दिया कि भारत को संस्कृति के मामले में विश्वभर में ऊंचा स्थान क्यों दिया जाता है। पर यह कटाक्ष पहाड़ी लोगों के ही लिए है, ऐसा भी नहीं है।    

मेरे महान देश के हर कोने में ऐसे ही तो महापुरुष भरे हुए हैं! सब अपनी-अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे होते हैं बस, समाज-सेवा करने के लिए। सच यह है कि जब खुद हमें भी मौका मिलेगा तो हम भी बता देंगे पूरी दुनिया को, कि ज़रूरतमंद का फायदा उठाना हमें भी आता है। संवेदनशून्यता के इस काले युग में हम सब अपने-अपने हिस्से की स्याही जीवन-कुण्ड में अर्पण कर अपने जीवन को धन्य कर रहे हैं। 

अगर अपनी जान पर खेलकर दूसरों को बचाने के लिए सेना के जवान 'भी' न आते, तो न जाने कितनी आँखें बहते-बहते दर्द के दरिया में डूब जाती, और कितनी आँखें अपनों की बाट तकते-तकते सूख जाती! पर ये फ़िज़ूल बातें सोचने का समय तो हमारे पास नहीं है। क्योंकि हम तो यहाँ सुरक्षित हैं। तो, हम तो घर बैठ कर पिज़्ज़ा खायेंगे, और सन्डे मनाएंगे। हम मुस्कुराएंगे। :)

जय जवान

Sunday 17 March 2013

मेरी किताबी दुनिया

आजकल मेरे आस-पास क़िताबों के ढेर लगे रहते हैं। अंग्रेजी-हिंदी के उपन्यास पढने का नशा-सा हो गया है. हालांकि मैं इस समय व्यस्तताओं की चहारदीवारी में कैद हूँ और बहुत-से जरूरी कार्यों को भी ताक पर लगा रखा है, लेकिन फिर भी ये किताबें मुझसे नजदीकी का रस्ता ढूंढ ही लेती हैं।
कैसा अनोखा संसार रचा होता है इन किताबों-कहानियों में! पहले-दूसरे पन्ने पढ़ते हुए बहुत-से अजनबी पात्रों से मुलाकात होती है. उनके नाम और चरित्र याद करने और समझ पाने की कोशिश करते-करते पुस्तक के आधे पन्ने पढ़ लिए होते हैं। और अब तक न सिर्फ उन पात्रों से अच्छी-खासी दोस्ती हो चुकी होती है, उनकी समस्याओं को सुलझाने के लिए मन में झंझावत-सा भी छिड़ने लगता है. कई बार कहानीकार इतना प्रवीण होता है की हर एक पात्र को जीवंत कर देता है. किसी-किसी पात्र में तो खुद का ही अक्स झलकता दीखता है. पात्रों की भावनाओं के साथ मन इतना एकाकार हो उठता है की कहीं-कहीं तो नायक-नायिकाओं को तकलीफ में देखकर मेरी ही आँखों से पानी टपकने लगता है. अचानक आये किसी उतार-चढाव के साथ मेरी धड़कनें भी उछल-कूद करने लगती हैं. हमारा मन होता ही ऐसा है न! संवेदनाओं, प्रेरणाओं से भरा हुआ! और ख़ुशी, सम्पूर्णता की चाह रखने वाला! इन्ही कोमल संवेदनाओं की नींव बनाते हुए ही तो उपन्यासकार आखिरी पन्ने तक पहुँचते-पहुँचते सब गुत्थियाँ सुलझा देता है. वैसे किसी-किसी पुस्तक में ऐसा नही भी होता। वहां नायक के साथ आम आदमी की भावनाओं को जोड़कर कुछ अनुत्तरित सवाल छोड़ दिए जाते हैं, यह सोचकर शायद, कि इससे किसी की सोयी हुई चेतना पुनर्जागृत हो जाए!
तो ये कहानीकार भी खुद की एक दुनिया रच रहे होते हैं. उस दुनिया में उन्ही की मर्जी का संसार दिखता है. वो चाहें तो सुन्दर, और वो चाहें तो गन्दला! अपनी दुनिया के भगवान ही तो होते हैं, बस वो दुनिया होती कल्पना की है! कुछ चतुर कहानीकार हम पाठकों की दुखती रग की खूब पहचान कर लेते हैं. अंतिम पन्ने पर नायक को अकेला खड़ा कर दिया जाता है. उदास नायक के दर्द में हम परेशां हो उठते हैं, और बस, उपन्यास के सफल होने का रस्ता तैयार हो जाता है. लेकिन नही, ढेरों कल्पनाओं, भावों, विचारों और शब्दों को एक लय में लिख पाना कोई ऐसा आसान काम भी नही होता! गहरी मेहनत, जज़्बात और दूरदर्शिता का खेल होता है ये!  और अगर इस मेहनत के साथ कोई संदेश, कोई सामजिक सरोकार भी पिरो दिया गया हो तो क्यों नही झिंझोड़ देगा वो किसी के मन को! जो भी हो, मनोरंजन की दृष्टि से तो उपन्यासों को पूरे अंक मिलने चाहिए। दौ रही आज की जिंदगी में खुद के साथ चैन से समय बिताने का सचमुच बहुत ही सुन्दर जरिया होते हैं ये उपन्यास-किताबें! इन्हें पढना तो मुझे अच्छा लगता ही है, इन पर बतियाना भी अच्छा लग रहा है. 

Friday 8 February 2013

शब्दों की कहानियां

कैसे मिलते हैं शब्द, और कैसे बनती हैं कहानियां! कभी तो कितनी आसानी से शब्द भी मिल जाते हैं और कहानियां भी बन जाती हैं, तो कभी-कभी खुद से बात-भर करने को ही ये मन चाह रखता है। शब्द अगर कलम से निकलने वाला भर ही हुआ करता तो शायद दिन-दिन में ही उपन्यास लिखे गए होते! पर जो मन से न फूटा, वो कैसा लेखन भला! मखमली महीन धागों से गुंथे हुए शब्द जब सीधे मन से स्फुरित होते हैं तो ही वो किसी भी मन को छू पाते हैं।  
वसंत आते ही मन बदलने लगता है। जब ऐसा ही खुशगवार मौसम हो जाता है तो कलम का जमा रक्त पिघल उठता है। फिर पन्ने रंगने में कुछ ज़्यादा मेहनत नहीं लगती। खुशबू का सिंगार किये हुई रेशमी हवाएँ अंगडाइयाँ लेती-लेती इठलाकर आँगन में आती हैं तो ये मन बावरा-सा होकर झूमने लगता है। हवाओं से रेशम के तन्तुओं को इकट्ठा कर-कर के उनसे शब्द बुनता है। और फिर उन शब्दों के पुष्प यहाँ-वहाँ बिखेर कर बहकने लगता है।
कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि मन अपनी इस मस्ती में इतना मग्न हुआ डोलता रहता है कि वह शब्दों की अपनी दुनिया में आना ही नही चाहता। गुनगुनाता रहता है और किसी के रचित गीत, झूमता रहता है अपनी ही लय पर स्वरचित अनोखी मुद्राओं संग! हवा से खुशबू के धागों को खींच-खींच कर नट की तरह उन पर झूलता रहता है। कभी धूप में सूरज की किरणों का ही विमान बना कर मुक्ताकाश में उड़ान भरता रहता है। तब, भाव तो बह-बह कर उतर आना चाहते हैं, शब्दित होकर अमर हो जाना चाहते हैं। लेकिन इस पगले ने जो ठान रखी होती है बस इन्ही पलों में जीने की, शब्दों की अनदेखी करने की, तो कौन ही मना पाए इसे! ऐसा ये मतवाला मन आखिर क्या चाहता है, किस रसभरी प्याली को पकड़ कर बैठा है, बस ये ही जाने।
और कभी जाकर जब इसका खुमार उतरता है, तो शब्दों के समंदर में गोते लगा-लगाकर मोती बटोरने में जुटा रहता है। उन मोतियों को भावों के सांचे में भर शब्दों की ऐसी आकृति भी कभी-कभार गढ़ बैठता है जो इसने खुद भी न सोच रखी थी। कितनी बार तो अपनी ही शब्दमाला पर ये मन ऐसे मोहित-सा हुआ रहता है, कि स्मरण कर-कर सर झुका देता है। भली तरह समझता है ये, कि इन कहानियों में मेरा कुछ किया-कराया नहीं, यह तो 'स्वयं' प्रसन्नता ही है, जो कि शब्दों से अभिव्यक्त होना चाह रही है।