Saturday, 6 August 2011

मुड़ो प्रकृति की ओर . .

                       हर पल कुछ नया करने की चाह, कुछ नया बटोरने की चाह, और सब से ऊंचा उठने की चाह.. इन चाहों ने इंसान को ऊंचा तो उठा दिया है, लेकिन अपनी जड़ों से भी दूर कर दिया है. एक छोटा सा बच्चा, जब उछलता है, तो बहुत खुश होता है.. लेकिन उछल-कूद करते हुए, बहुत बार गिर भी जाता है. और तब, और कोई उसे उठाये या न उठाये , उसकी माँ कहीं से भी आ जाती है, और उसे उठा कर रोते हुए को चुप कराती है..  दुलारती है.. और बच्चा अपनी पीड़ा भूल कर माँ के स्नेह में ही खो जाता है. एक नयी-सी शक्ति आ जाती है उस में, फिर से अपने उसी क्रम को दोहराने की . 
                     यह माता-सुलभ स्नेह केवल एक जन्मदायिनी माँ से ही मिलता हो, ऐसा भी तो नहीं है. प्रकृति नामक एक और भी माँ है हमारी, जो  जन्मदायिनी माँ से कतई अलग नहीं है. जैसे हमारी माँ हर पल हमारे पालन-पोषण में व्यस्त रहती है, बिना आवाज़ के ये प्रकृति भी यूं ही हमारा संरक्षण करती रहती है. वो तो हम हैं, जो अपनी सीमित दृष्टि के चलते उसे बूझ नहीं पाते , प्रकृति तो हर एक पल नवजीवन का कटोरा उठा कर हमें ताज़ा करती रहती है. 
                     ऐसी माँ प्रकृति को हम भला वापिस क्या देंगे, दरअसल कभी दे ही नहीं सकते, लेकिन जिस द्रुत गति से विकास की पटरी पर चढ़ कर हम इसे नुकसान पहुंचा रहे हैं, वह अपने आप में चिंताजनक है . ऐसा ये इंसान, जो आसमान को छूने के लिए अपनी जड़ों को काटने से भी गुरेज़ नहीं कर रहा, नहीं जानता, कि वो कहाँ बढ़ रहा है. 
                     हम क्या समझते हैं, आसमान को छू लेने से हमारा कद ऊंचा हो जायेगा..?? नहीं, वास्तव में हम बौने हो गए हैं. हम अपना अस्तित्व ही  छिन्न-भिन्न करने पर तुले हुए हैं. विलासिता भरे जीवन की ओर बढ़ते हुए हम वो सब साधन इकट्ठे कर लेना चाहते हैं, जो हमें दूसरों की दृष्टि में 'विशिष्ट' बना सकें, लेकिन सोचने की बात है, एक छोटा बच्चा कितनी देर तक खिलोनो में खुश रहेगा, अगर उसे अपनी माँ से दूर कर दिया जाए..! प्रयोग कर के देख लीजिये.. १-२ घंटे में तो इतनी जोर से रोने लगेगा, कि आस-पड़ोस वाले भी परेशान हो जायें. ऐसा ही तो यह बड़ा आदमी है. बंद कमरे में सोना-चाँदी के ढेर तो लगा लिए हैं, लेकिन जीवन जीने के लिए ताज़ी हवा की ज्यादा ज़रुरत धन-वैभव से ज्यादा होती है. खुद को अपनी माँ-प्रकृति से ही दूर किये बैठा है ये आज का इंसान..
                     "चूंकि हमारा पडोसी, और हमारा मित्र भी ऐसा ही जीवन जी रहे हैं, तो हम भी जी लेंगे.. " ,क्या ये भेड़ के जैसी मानसिकता नहीं हुई..? क्या हम में से कोई शेर बनकर अपने रास्ते पर अकेला चलने का साहस नहीं रखता..?  दूसरो की रची परिपाटियाँ, जो पहले से ही खोखली हैं, हमें किसी सुन्दर महल तक नहीं पहुंचा पाएंगी. पहले से ही हम प्रकृति का इतना विनाश कर चुके हैं, जो चिंताजनक है. इसके बाद तो हर एक पग आत्मघातक होगा..
                      कितना अच्छा हो, कि हम सब हरियाली का महत्व समझ सकें, और न केवल खुद को जीवन दें, बल्कि आने वाले समय के लिए भी एक सुन्दर पर्यावरण का निर्माण कर सकें..   खुशी हीरे-मोती के ढेर में नहीं है,
प्रकृति की सन्निधि में ही प्रसन्नता का भंडारण हुआ रहता है।                  


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