Friday 21 October 2011

दीपावली की वेला में ..

बस, आने ही वाली है दीपावली. इतनी करीब है इस वक़्त तो, कि इसकी पायल की छन-छन तो सुनाई भी देने लगी है. हवाओं में दो ख़ास तरह की गंध फैली हुई है. एक है पटाखों की, और दूसरी रंग-रोगन की. किसी भी गली-कूचे में मुड़ जाएँ, इन दो में से किसी एक गंध से तो मुलाकात हो ही जाती है, दीपावली के पखवाड़े में. और इस बार, रंग-रोगन की गंध मेरे इर्द-गिर्द कुछ ज़्यादा ही फैली हुई है. कारण, हमारे ही मकान के नवीनीकरण का काम जारी है. सुन्दर दिखने के इस युग में भला आज कौन पीछे रहना चाहता है? और पिछले कुछ समय से हमें कुछ ऐसा महसूस हो रहा था, ज्यों हमारा मकान उन सब मकानों से कुछ रश्क-सा कर रहा है, जिन्हें उनके मालिक दीपावली के स्वागत में दुल्हन की तरह सजाया करते हैं. इसलिए, मकान के सौन्दर्य-प्रसाधन, यानि कि, रंगों का इंतजाम किया गया. और इसके साथ ही, मेकअप -आर्टिस्ट, यानि कि पेंटर का भी. 
अब चूंकि नवीनीकरण घर के अन्दर होना है. तो सुरक्षा की दृष्टि से, अजनबियों का घर में रहना भी कोई सही बात नहीं है. इसलिए, दो ऐसे लोगों को इस काम के लिए बुलाया गया, जिनके साथ हमारे परिवार की पुरानी जान-पहचान है. एक दीपू, और दूसरा संजय. पर ये दोनों लोग, एक दूसरे के लिए पूरी तरह अजनबी थे. एक देश के पूर्वी हिस्से का, तो दूसरा उत्तर भारत का. हैरत का आलम तब शुरू हुआ, जब इन दोनों ने, पहले ही दिन एक दुसरे को बड़े भाई-छोटे भाई कहकर बुलाना शुरू कर दिया. बिना किसी औपचारिकता के, मिलते ही इन दोनों की दोस्ती की पुख्ता शुरुआत हो गयी. दिनभर काम करते-करते, हाथ तो इन दोनों के बीसियों बार रूक जाते होंगे, पर ज़बान, उसे तो एक पल का भी आराम नहीं. ऐसा भी कह सकते हैं, कि मानो बरसों भर से बातें संजो कर रखी हों दोनों ने, एक दूजे का इंतज़ार करते हुए. एक भी दिन किसी कारण से दीपू की छुट्टी हो जाए, तो संजय मुंह लटकाए मिलेगा. और अगर संजय पैदल चलकर आया होगा, तो दीपू उसे अपने साइकिल पर घर तक छोड़ कर आएगा. 'पक्की दोस्ती'.. यही नाम दिया जा सकता है इन दोनों के इस आपसी तालमेल को देख कर. हमारे घर में इस बात पर तो आजकल शायद कम चर्चा होती है,  कि किस दीवार पर कौन-सा रंग ज्यादा खिलेगा. पर ये बात ज्यादा होती है, कि ये दोस्ती, दीपू और संजय की, न्यारी है..!
और एक विचार जो आये बिना रह ही नहीं सकता मन में, इस दोस्ती को देख कर. वो ये है, कि ऊंचे तबके के लोगों को तो दोस्ती करने में, घुलने-मिलने में, और फिर उसे निभा पाने में, एक लम्बा समय लग जाता है. पर तब भी, आत्मीयता का कोई भरोसा नहीं. नाज़-नखरे, नुक्ता-चीनी, और पता नहीं क्या-क्या..! अपवाद छोड़ दें, तो एक-दो भरोसे के दोस्त होना भी बड़ी बात होती है अमीर समाज में. साफ़-सा झांकता हुआ मतलब है, कि  इंसान पैसे के मामले में जितना ऊँचा उठता जाता है, सम्बन्ध निभा पाने में उतना ही कमज़ोर होता चला जाता है. इसका कारण, कि हम लोग अब रिश्तों को भी बाज़ार में बिकने वाली दूसरी चीज़ों की तरह हरे काग़ज़ों से खरीदा जा सकने वाला समझने लग गए हैं.  और यही बड़ी भूल है हमारी. 
यही तो कारण है, कि एक अदद अजनबी को भी घरों में घुसाने से पहले हम सौ बार सोचते हैं. दीपावली जैसा त्यौहार आज भी उतनी ही धूम-धाम से मनाते तो हैं हम, जो होनी चाहिए. लेकिन, अपने-अपने घरों की सीमाओं के अन्दर ही कैद होकर. बड़े-बड़े आलीशान बंगले बना तो लिए हैं हम लोगों ने, लेकिन क्या उनके साथ में अपने लिए अकेलापन भी खरीद नहीं लिया है हमने? कुछ बदमज़ा सी हो गयी लगती है ज़िन्दगी.
दीपोत्सव सबके जीवन में नव-प्रकाश,प्रसन्नता ले कर आये. हार्दिक शुभकामनाएं.

                                

Wednesday 19 October 2011

रिअल्टी शोज़ बनाम रिअल लाइफ

ब्लैक एंड व्हाईट से रंगीन तक का सफ़र तय करने में टेलीविज़न ने बहुत लम्बा समय लगाया. लेकिन एक बार रंगीन होने के बाद, अब हर रोज़ इसके रंग बदल रहे हैं. और इसका असर कितना गहरा है, उसके साक्षी तो हम सब खुद ही हैं. टेलिविज़न पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम एक साधारण दर्शक के सामाजिक दृष्टिकोण को प्रभावित करने में एक बड़ी भूमिका निभाते हैं. आज से कुछ ही समय पहले तक, 'सास-बहु के सीरिअल' ही ये तय करते थे, कि भारतीय नारियाँ अगले दिन होने वाली भारी-भरकम खरीददारी किस चीज़ की करेंगी. आस-पड़ोस की गप्पों, और चुगलियों की जगह इन सास-बहु के किरदारों ने बखूबी ले ली थी. मानो, एक भावनात्मक-सा रिश्ता स्थापित हो चुका था, भारतीय नारियों, और इन सीरिअल किरदारों के बीच. 
पर आज के टेलीविज़न का परिदृश्य कुछ बदला सा है. लम्बे समय से 'ऊबाऊ' का तमगा झेल रहे इन सास-बहु सीरियालों की जगह आज रिअल्टी शोज़ का झंडा फहरा रहा है. सब नामी मनोरंजन चैनल एक या अधिक तरह के रिअल्टी शोज़ प्रसारित करने में लगे हुए हैं. एक होड़ का भी नाम दिया जा सकता है, और प्रतिस्पर्धा का भी. और इस होड़ में, जो सबसे अलग होगा, वही टिक पायेगा. कुछ इस मानसिकता के साथ, चैनल वाले अपने शो के विषय का चयन करते हैं.
ये रिअल्टी शोज़ आम आदमी से लेकर सेलिब्रिटीज़ तक की सहभागिता के ज़रिये कार्यक्रम को असल जीवन से जोड़ने का प्रयास करते हैं. और दर्शक, इनमे दिखाए जाने वाले भावों के उतार-चढ़ाव में खुद को खोजता है. गायन, नृत्य, विविध प्रकार की प्रतिभाओं के प्रदर्शन से लेकर, खतरनाक स्टंट करना शुमार होता है इन शोज़ में. कभी आम आदमी की प्रतिभा की खोज की जाती है, तो कभी नामचीन लोगों को परीक्षा के घेरे में लाया जाता है. और इसके बदले में विजेता को मिलती है, एक बड़ी धनराशि, और बेशुमार शोहरत. और ये इनाम रातोंरात ही विजेता को एक ऐसी ऊंचाई पर पहुंचा देता है, जिसकी चाहत हज़ारों को होती है. 
इस दृष्टि से देखा जाए, तो ये रिअल्टी शोज़ किसी शॉर्ट-कट से कम नहीं हैं सफलता के लिए. पैसा, नाम, और पहचान के साथ-साथ अपने मनपसंद करियर की ओर रास्ता खुल जाता है. लेकिन मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए, तो इन रिअल्टी शोज़ की परिकल्पना कुछ सही नहीं लगती. इन चैनलों के लिए तो केवल टीआरपी जुटाना ही एकमेव मकसद होता है. और उसके लिए ये लोग शो में किसी भी तरीके से आकर्षण बढ़ाना चाहते हैं. ऊल-जलूल तरीकों से भी आकर्षण बढाने से उन्हें कोई परहेज़ नहीं होता. इनामी राशि को ऊंचा करने के पीछे भी यही सोच होती है. और उस राशि को हासिल करते ही किसी की भी ज़िन्दगी रातोंरात फर्श से अर्श का सफ़र तय कर सकती है. इसीलिए भाग लेने वालों की महत्वाकाँक्षा भी आसमान छूने लगती है. लेकिन हज़ारों में से कुछ बीस-पच्चीस को ही स्वीकार किया जाता है, और बाकी सब को बाहर का दरवाज़ा दिखा दिया जाता है. और इतना ही नहीं, इसके बाद उनकी भी यूँ छंटनी की जाती है, कि सिर्फ एक को ही विजेता घोषित किया, और बाकी सब खाली हाथ घर लौटने पर मजबूर. सवाल तो उठता है, कि क्या उन बाहर कर दिए गए हज़ारों में प्रतिभा का ऐसा अभाव सचमुच रहा होगा? हाथ कंगन को आरसी क्या, हम सब ही गवाह रहे हैं किसी न किसी ऐसे शो के, जहां योग्य प्रतिभागी को भी अस्वीकार किया गया. बहुतेरी बार चयन-प्रणाली पर भी सवाल उठे हैं, और पारदर्शिता पर भी. पर जो भी हो, इन नतीजों के साथ ही, टूट जाते हैं वो हज़ारों सपने भी , जो सिर्फ चंद लोगों के द्वारा एक रणनीति के तहत बुने गए होते हैं. 
अगर इतना कुछ ही होता, तो भी शायद गवारा हो जाता. पर जब छोटे-छोटे बच्चों के लिए भी ऐसे शोज़ की प्रस्तुति की जाती है, तो आश्चर्य होता है. महज़ छः से बारह-तेरह वर्ष तक के छोटे बच्चों को प्रतिभागी बनाकर गायन-नृत्य जैसी प्रतियोगिताएं कराई जाती हैं. छोटे-छोटे बच्चों में जीतने को लेकर जिस प्रकार की ललक  दिखती है, वो सचमुच चिंता का विषय है. क्योंकि यह तो पूर्व-निर्धारित ही है, कि सिर्फ एक बच्चा विजेता होगा. हर एक सप्ताह जब एक प्रतिभाशाली बच्चे को शो से बाहर किया जाता है, तो उसकी प्रतिक्रिया बेहद दुखास्पद होती है. फूट-फूट कर रोते इन बच्चों को चुप करा पाना बहुत मुश्किल हो जाता है. और तिस पर 'वाइल्ड-कार्ड' नामक जुमला, वो तो इन बच्चों को बाहर निकलने के बाद भी एक उम्मीद में रखता है, फिर शो में वापसी की. अब वाइल्ड-कार्ड एक, और बच्चे अनेक. तो इस तरह एक बार फिर, किसी एक के चयन के बाद, बाकी के नन्हे बच्चों के सपने उसी वेग से टूट जाते हैं. अब यदि बाल-मनोविज्ञान समझा जाए, तो कई प्रश्न हैं. जैसे, क्या इतने छोटे बच्चे इतना बड़ा दवाब झेल भी सकते हैं, जो उन्हें ऐसे शोज़ में मिलता है? अगर वो विजेता बन भी जाएँ, तो क्या जीतने के बाद मिलने वाली प्रतिष्ठा को वो संभाल पायेंगे? इतनी बड़ी सफलता मिलने के बाद क्या उनके बचपन की सुन्दरता महफूज़ रह पाएगी? और जीत न पाने की स्थिति में, क्या इतनी बड़ी विफलता उन्हें आसानी से सामान्य होने देगी? दोनों ही हालात में, उनका मन इतना मज़बूत नहीं होता, कि आने वाली परिस्थितियों में वे सामान्य व्यवहार रख पायें. पर इस बड़ी चिंता से कोसों दूर, अभिभावक उन्हें ऐसे बड़े मंचों पर ले जाना एक गौरव का विषय समझते हैं. अपने अधूरे सपने पूरे करना, या फिर जल्द अमीर बने की चाहत, या फिर शायद समाज में प्रतिष्ठित होने के लिए, उन्हें ये रास्ता बहुत आसान लगता है. पर सच यह है, कि ऐसा करके वो अपने बच्चों के बचपन को ही छीन रहे होते हैं. गुलाब की नाज़ुक कली समय आने पर ही सुन्दर फूल बन पाती है. समय से पहले उससे छेड़-छाड़ करना उसके एक सुन्दर पुष्प में परिणत होने की संभावनाएँ कम करने के जैसा है. और ठीक उसी तरह, बचपन की नजाकत से भी छेड़-छाड़ करना कोई हितावह नहीं है. 
समस्या ये है, कि पूरा समाज ही आज ऐसी चीज़ों के अन्धानुकरण में लगा हुआ है. जब तक समाज के सब लोग इस नवीन संस्कृति के मनोवैज्ञानिक पहलु से अवगत नहीं हो जाते, तब तक हालात परिवर्तित होने की संभावनाएँ बहुत ज्यादा नहीं हैं. लेकिन अपने जीवन के प्रति उत्तरदायी तो हम खुद ही हैं. और कोई समझ पाए या न, एक ज़िम्मेदार अभिभावक के लिए तो, जागरूक होकर अपनी संतान को बड़ा होने तक योग्य बनाना ज्यादा महत्वपूर्ण होना चाहिए, बनिस्बत बचपन में ही उसकी प्रतिभाओं को निचोड़कर बड़े होने तक उसे नीरस कर देने के.

समाचार-पत्रों में प्रकाशित लेख

समाचार-पत्रों में प्रकाशित लेख  (अक्तूबर माह).


                                                
                                              

                                                  




                             

Friday 14 October 2011

यूँ भुला न पाएंगे. . .



सुना तो हमेशा से था, कि संगीत का रिश्ता सीधे रूह से होता है, पर समझ पहली बार आई है ये बात. किस तरह, एक इंसान का जाना इतने लोगों को जज़्बाती कर गया..!! देश के नामी लोगों से लेकर, आम आदमी तक, हर एक के लफ़्ज़ों का यही रंग..! 'जगजीत सिंह', जिन्होंने ग़ज़ल गायकी को एक नयी मुकाम दी.. ग़ज़लों की मद्धिम हो रही रोशनी को एक भरपूर लौ दिलाई.. जिन्होंने शब्दों को जज्बातों की एक मखमली उड़ान दी..! ईश्वर की देन एक सुनहरी आवाज़ को गहन तपस्या, और लगन के ताप से चमका कर कुंदन बना दिया.
कौन नहीं मुरीद होगा ऐसी अहसासों की भाप से भीगी हुई उस जादुई सरगम का, जो हर एक मन के लिए सुकून की गुंजाइश के साथ बुनी गई हो!  मीठे, सुरीले , शांत और आत्मिक रस से भरे संगीत के चाहने वाले हर एक दिल में कहीं न कहीं एक मायूसी का एहसास उठ आया होगा जगजीत सिंह के दुनियावी सफ़र के पूरे होने की खबर सुनकर. सच, एक खालीपन मुझे भी महसूस हुआ. जब-जब उनका संगीत सुना, तब तब खुद को किसी और जहाँ मे पाया..और उस जहाँ की ख़ास बात ये होती थी, कि वहाँ पर कभी कोई दुःख नहीं होता था. वहाँ तो बस एक अलमस्ती होती थी, जिसमे दूर-दूर तक कोई कमी नहीं. मन में एक ख़याल आया, कि ऐसी वो क्या बात थी, कि इतने ग़ज़ल गायकों के बीच जगजीत सिंह हमेशा अलहदा, निराले रहे! 
दरअसल, उन्होंने बेईमानी नहीं की कभी सुरों के साथ. जब भी गाया, जो भी गाया, दिल से गाया, भरपूर गाया. मिसाल तो फिर खुद-बखुद बननी ही थी. दिल से निकले अलफ़ाज़ की अगर कोई मजबूरी होती है, तो वो है, दुसरे दिल को छूना. चाह कर भी वो इस कोशिश में नाकाम नहीं रह सकता.  और जगजीत जी का गले से निकलने वाले शब्द अपने आप को इस मजबूरी से घिरा ही पाते थे. जिस जिस गीत को होठों से छुआ, उस उस गीत को अमर कर दिया. नतीजा सामने, उनकी आवाज़ के तलबगार बढ़ते ही चले गए, हर एक ग़ज़ल के साथ, हर एक सुरीली शाम के अन्जाम के साथ. 
एक अजीब सा विचार घेर रहा है मेरी कलम को इस वक्त. आज हम उस दुनिया में जी रहे हैं, जहां अपने भी अपनों का बिछोह महसूस नहीं किया करते. पर उस पराये के लिए जाने कितने जज़्बात उमड़ आये..! जहां ख़ून का रिश्ता भी धोखा दे जाता है, उस दुनिया में अजनबियों की भी आँखें भर आई आपके रुखसत होने पर, तो ये एक अनोखी ही बात है. महज़ अपने संगीत, और ज़हानत के साथ आपने अपने श्रोताओं को अपना बना लिया, ये तो बेशक एक जादुई शख्सियत ही कर सकती है. सुरों से दोस्ती तो इमानदारी से निभायी ही, साथ ही ज़िन्दगी भी बेदाग़ जी कर दिखा दी. जिस दुनिया से उनके ताल्लुकात रहे, उसमे अपना नाम ऊँचा करना तो बड़ी बात है ही, पर उस नाम तो साफ़ रख पाना, ये हर कोई नहीं कर पाता. और शायद तभी, एक अनदिखा धागा बंध गया था उनके, और उनके श्रोताओं के बीच..! उनकी ज़िन्दगी किस दर्द से दो-चार होकर रही, वो तो किसी से छिपा नहीं. पर दिल के दर्द को होठों की मुस्कान से ज़ाहिर करने का भी एक अनूठा शउर जानते थे सुरों के वो बेताज बादशाह..!
उनके जाने से दिल की जो गली खाली-सी महसूस हो रही है, उसे यूँ उन्हें याद कर भरने की कोशिश करनी चाही थी. पर इतना लिख गुजरने के बाद, अब एहसास हो रहा है, कि जिस शख्स का सीमाओं से ताल्लुक ही नहीं रहा,  उसको श्रद्धांजलि, चंद शब्दों में देने की, कोई सोच भी कैसे सकता है! सीमाओं में रहने वाले कभी फलक तक नहीं पहुँच सकते. और फलक से दिल तक बसने वाले को चार लफ़्ज़ों में कौन कैद कर सकता है! आप तो बस दिलों में जिंदा रहेंगे, हमेशा, हमेशा, और हमेशा..! 
इस जग को जीत कर जहाँ तुम चले गए, वहाँ खूब सुकून हो, बस यही दुआ है.                          
                      

Friday 7 October 2011

यही बाकी निशाँ होगा..??



अभी कुछ ही दिन पहले भारत देश के दो ऐसे सपूतों का जन्मदिवस था, जो हर दृष्टि से आदर्श के सांचे में आते हैं. २८ सितम्बर को शहीद भगत सिंह का, और २ अक्टूबर को पंडित लाल बहादुर शास्त्री जी का. एक ने पराधीन भारत की अस्मिता वापिस लाने की कोशिश में अपने प्राण आहूत कर दिए, तो दूसरे ने अपनी सच्चरिता और सादगी से प्रधानमन्त्री पद की गरिमा बढ़ाई. दोनों के ही जन्मदिवस पर मेरी आँखों ने समाचार पत्रों को खूब जाँचा. देश के राजनैतिक पटल की ढेरों ख़बरें, अभिनय-जगत की रंग-बिरंगी तस्वीरें, और क्या नहीं! लेकिन राष्ट्रभक्ति के नाम अपना जीवन समर्पित करने वालों के लिए कोई उल्लेखनीय बात कहीं नहीं मिली.  दूर-दराज में कोई अभिनेता आये, तो उसकी ख़बरें बढ़-चढ़ कर छापी भी जायेंगे, और पढ़ी भी जायेंगी. उन्होंने कब क्या कहा, से लेकर उनके परिधानों के रंग तक चर्चा का विषय बने रहेंगे. लेकिन  क्रान्ति का बिगुल बजाने वाले, देश के लिए शहीद किसी नवयुवक के लिए एक अदद  कोना अपनी जगह खोजता रह जाता है. विचारणीय बात ये है, कि ये अक्षमता समाचार-पत्रों की है, या पाठकों की? मेरी दृष्टि में, अगर किसी को दोष दिया जाना चाहिए, तो वो हैं पाठक. समाचार-पत्र तो एक व्यवसाय के अंतर्गत अपना कार्य करते हैं. 'जो बिकता है, वही छपता है' के मूलवाक्य के साथ, उन्हें तो जनता की रुचि की नब्ज़ टटोलनी बखूबी आती है. और पाठक, उन्हें चाहिए, मसाला. उनकी खुराक है, चटपटी ख़बरें, जिन्हें पढने में उनका मनोरंजन होता हो. इतना ही नहीं, ऐसे चमकीले चेहरों को ही अपना आदर्श कहना उन्हें अच्छा लगता है. पर मेरी दृष्टि में, ये लोग भारत के 'रत्न' तो नहीं, 'भारत-पतन' ज़रूर कहे जा सकते हैं. उनका अनुकरण हमें किस दिशा में ले कर जायेगा, वो शायद बताने की ज़रूरत नहीं है. चलिए, व्यक्तिगत रुचि की बात है. इस पर क्या अंगुली उठानी! पर प्रश्न ये है, कि इस रवैये के बाद, हम अपने देश से कोई उम्मीद क्यों करते हैं? क्या दिया है हमने अपने देश को, जो वापसी में कुछ हमें भी मिले? अपने-अपने स्तर पर, जितना हो पाया, उतना 'फायदा' उठाने से तो हम चूके नहीं कभी! लेकिन एक समर्थ राष्ट्र के निर्माण के लिए, क्या कभी कोई भूमिका निभा पाए हम? अगर हम जागरूक नहीं हैं, तो शिकायत करने का भी हक़ नहीं है हमें! एक कहावत है, कि 'सोये हुए शेर के मुह में हिरन खुद नहीं आया करता'. अपने क्षुद्र स्वार्थों को पूरा करने के लिए तो हम एक झटके में ही अपनी नींद तोड़ दिया करते हैं! पर जब बारी आती है राष्ट्र-निर्माण की, तो वो हम दूसरों पर छोड़ना पसंद करते हैं. और यही तो कारण है, कि आज के समाज में कोई दूसरा भगत सिंह पैदा नहीं हो पाया! इन हालात में, ये विचार ज़रूर आता है, कि और कुछ नहीं, तो वर्ष में एक दिन ही सही, इतना जानने का तो प्रयास कर ही लिया जाना चाहिए, कि किन हालात में मृत्यु का मार्ग चुनना ज्यादा ज़रूरी हो गया होगा भगत सिंह के लिए! या फिर नैतिकता के साथ भी कर्तव्य-वहन कैसे किया शास्त्री जी ने! पर वो तो तब न, जब हमारे मन के सुप्त शेर को भ्रष्टाचार के सुनहरे हिरन का शिकार करने में कोई रुचि हो..! पर वो एक दिन भी, महंगा लगता है अब हमें..
और शायद,
वतन पर मिटने वालों का 'नहीं' बाकी निशाँ होगा..