अचरज होता है मुझको,
कैसी माया है तुम्हारी !
इक ही छतरी के नीचे,
धूप-छाँव सबको न्यारी !!
बुनियाद वोही भूरी-सी है,
जुदा हैं उसपे सारे ढाँचे !
इतने कितने जोड़े होंगे,
बना-बना कर तुमने सांचे !!
हाथों में ले ले तलवार,
भेदा है अंतर को भी !
कितनों ने जांचा-परखा,
पाया न अंतर तो भी !!
सब में लाखों-लाखों भेद,
सब में लाखों-लाखों भेद,
ये क्या रचना, कैसा भ्रम है !
जब अंतर-बाहर एक-ही-एक,
क्या सोपान, ये क्या क्रम है !!
No comments:
Post a Comment