Thursday, 25 August 2011

कैसी माया है तुम्हारी . . .


अचरज होता है मुझको,
कैसी माया है तुम्हारी !
इक ही छतरी के नीचे,
धूप-छाँव सबको न्यारी !!


बुनियाद वोही भूरी-सी है,
जुदा हैं उसपे सारे ढाँचे !
इतने कितने जोड़े होंगे,
बना-बना कर तुमने सांचे !!


हाथों में ले ले तलवार,
भेदा है अंतर को भी !
कितनों ने जांचा-परखा,
पाया न अंतर तो भी !!


सब में लाखों-लाखों भेद,
ये क्या रचना, कैसा भ्रम है !
जब अंतर-बाहर एक-ही-एक,
क्या सोपान, ये क्या क्रम है !!

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