पिछले कुछ दिनों से हिंदुस्तान बदल गया-सा लगता है. पहले का दृश्य तो ऐसा होता था, कि सब शिकायत करते नज़र आते थे, प्रशासन की, व्यवस्था की, भ्रष्टाचार की. लेकिन जहां चाय की प्याली ख़त्म हुई, वहाँ खुद ही हम हिस्सा बन जाते थे उसी व्यवहार का, जिसकी शिकायतों का पिटारा लेकर हम घूमा करते थे. पर आज कुछ दिनों से ऐसा लग रहा है,कि आसमान तो वही है, पर हवा कुछ नयी-सी है. अन्ना का अनशन आज बारहवे दिन में प्रवेश करने के बाद, सुबह खोलने की औपचारिक घोषणा हो चुकी है. और नतीजा घोषित होना अभी बाकी है. खुद अन्ना ने इसे आधी लड़ाई जीतने के जैसा बताया है. एक लम्बा अनशन आखिरकार उस परिणाम की ओर ही पहुंचा, जिसकी अपेक्षा की गयी थी. इस सब में, जिस एकता के साथ पूरा हिन्दुस्तान अन्ना के साथ खड़ा हुआ है, उसकी तो किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. आज , उसी पुरानी सड़क पर से गुज़रते हुए, जब लाउड-स्पीकर से उद्घोष सुनाई देता है देशभक्ति के नारों का, तो एकबारगी तो ऐसा लगता है, कि जैसे हम स्वतंत्रता-संग्राम के दिनों में वापिस पहुँच गए हों. इर्द-गिर्द खड़े हुए लोगों की ओर दृष्टिपात करें, तो समय बिताने के लिए खड़ी पुरानी टोलियाँ आज गायब हो चुकी हैं. देशभक्ति का एक जज्बा फैला हुआ है वहाँ, जिसे आस-पास से गुजरने वाला हर एक इंसान महसूस कर सकता है. और शाम को, कम होती रौशनी में फिर से आशा के जुगनू लेकर आ जाते हैं, केंडल-मार्च करते हुए युवा..! अब आयु चाहे कुछ भी हो लेकिन 'युवा' शब्द उनके जज्बे के नाम. कभी आज़ादी के इतिहास के पन्ने खोल कर देखें, तो गरम दल के लोग भी कुछ ऐसा ही बिगुल बजाते मिलेंगे. ये एकता जो आज दिख रही है, सचमुच अनदेखी, न्यारी है.
पर गौर करने की बात है, ये एकता एक कारण से सिद्ध हुई है. और वो कारण है, 'जागरूकता'. आज का आदमी एक बात तो अच्छी तरह समझ चुका है, कि सम्प्रति राष्ट्र जिस स्थिति से गुज़र रहा है, वहाँ अगर अब भी कोई ठोस कदम न उठाया गया, तो फिर तो हालात बद-से-बदतर ही होने हैं. अव्यवस्था नामक वाइरस अपना संक्रमण देश के हर एक हिस्से में पूरी तरह फैला चुका है. और भ्रष्टाचार का प्लेग पूरी तरह जानलेवा हो चूका है. ऐसे में,भले ही अपने महकमे में हम कितने भी भ्रष्ट क्यों न हों, पर कभी-न-कभी तो वहाँ से बाहर निकलना ही होता है. उर बाहर निकले नहीं, की इस विषैली हवा की चपेट में आ गए हम भी. या यूँ भी देखा जा सकता है, कि भ्रष्टाचार के दीमक ने आदमी को अन्दर से पूरी तरह खोखला कर दिया है. बाहर से भले ही ऐश-ओ-आराम की चमक-दमक दिखती हो, पर वो भी किसी सौंदर्य-प्रसाधन की तरह बाहर से थोपी हुई..मन का एक्स-रे किया जाए, तो हारा हुआ, निराश..! शायद इन्ही कारणों ने मजबूर कर दिया है उसे, अपने वातानुकूलित घर के दरवाज़े खोलकर बाहर आने को, और उस खुले मैदान में बैठकर धरना देने के लिए, जहां सूर्यदेव की प्रचंडता हर पल स्नान करा रही है उसे, पसीने से...!
लेकिन अगर सिर्फ भीड़ में बैठकर संख्या बढ़ाना ही उसका मकसद होता, तो अनशन करने वालों की इतनी संख्या न होती. बताने की ज़रूरत नहीं है, कि किस तरह हर जाति-सम्प्रदाय और सामाजिक-स्तर के लोगों ने अपनी-अपनी उपस्तिथि भी दर्ज कराइ है, और सक्रियता भी बना कर रखी है. ये किसी चुनावी रैली की भीड़ नहीं है, जहां से लड्डुओं की डिब्बी मिलेगी, आश्वासनों की थैली के साथ. ये संगठित लोग तो इस बात का प्रमाण हैं, कि अपना उत्तरदायित्व समझ में आ चुका है लोगों को, अपने राष्ट्र के प्रति..!
अब भला वो कौन सा मौका है, कि जब धारा के विपरीत किसी ने बोलने की कोशिश न की हो..! इस बार भी, बीसियों ऐसी बातें सुनने को मिल रही हैं, कि ये अनशन नहीं, कूटनीति है. और कुछ छद्म इरादे हैं सरकार के, इस अनशन के पीछे छिपे हुए, जो आम आदमी देख-समझ नहीं सकता. बहुत-सी ऐसी मंद आवाजें हैं, जो कई दिशाओं से सुने दे रही हैं. इतना ही नहीं, कुछ लोग तो अवसर भुनाने की फिराक में नज़र आ रहे हैं, और खुद को स्थापित करने का एक अनोखा अवसर भी देख रहे हैं. अब इन बातों का सच तो जो भी हो, पर तीन बातें जो उभर कर आती हैं , वो हैं, 'अटकलें, बयान और घोषणाएं',
संसद तक तो पहुँच गया है अब जन लोकपाल बिल, पर आम आदमी तक इसका रास्ता दिखने का इंतज़ार अभी बाकी है. खैर, वो इंतज़ार भी कुछ दिनों में पूरा हो जायेगा. एक उम्मीद तो जग चुकी है.
घनघोर अँधेरे को चीरने के लिए तो एक मशाल ही बहुत होती है. और वो मशाल बहुत ज़ोरदार ढंग से जग चुकी है, रामलीला मैदान में! असंख्य दीपक रोशन हो सकते हैं, इस एक मशाल से, और देश के हर एक कोने का अन्धकार दूर हो सकता है! और बेशक, वो नन्हे दीपक टिमटिमाना शुरू भी हो चुके हैं. भ्रष्टाचार की बारिश से हर एक दीपक को महफूज़ रख पाना तो किसी के बस की बात नहीं है, पर अपने-अपने आँगन के दीपक को तो हम संभाल ही सकते हैं. दूसरे शब्दों में कहूं, तो आज का हिन्दुस्तान एकता, और जागरूकता से लबरेज़ नज़र आ रहा है. अपना उत्तरदायित्व समझ रहा है, और स्वामी विवेकानंद के उस उद्घोष को गुंजायमान करता प्रतीत हो रहा है, कि, ' उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्यवरान निबोधत'
अभी आधी जीत है. पूरी जीत होनी अभी बाकी है. कुछ भी हो, कैसा भी हो, हर हाल में अपने जीवन के उत्तरदायी तो हम खुद ही हैं. भ्रष्टाचार के खिलाफ यदि हम कलमबद्ध हैं, तो संसद में जन लोकपाल का प्रस्ताव कुछ भी करवट ले, घर-घर में एक जन लोकपाल ज़रूर होगा. स्वागत कीजिये, एक नए हिन्दुस्तान का.
क्रान्ति के इस दीपक को जगाने की शुरुआत हम सब अपने-अपने मोर्चे पर तो कर ही चुके हैं, बस अब इन्हें विपरीत आँधियों, और बरसातों में बुझने नहीं देना है. याद रखिये, दीपावली अब बहुत दूर नहीं है.
टिम्सी.
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