Wednesday 19 October 2011

रिअल्टी शोज़ बनाम रिअल लाइफ

ब्लैक एंड व्हाईट से रंगीन तक का सफ़र तय करने में टेलीविज़न ने बहुत लम्बा समय लगाया. लेकिन एक बार रंगीन होने के बाद, अब हर रोज़ इसके रंग बदल रहे हैं. और इसका असर कितना गहरा है, उसके साक्षी तो हम सब खुद ही हैं. टेलिविज़न पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम एक साधारण दर्शक के सामाजिक दृष्टिकोण को प्रभावित करने में एक बड़ी भूमिका निभाते हैं. आज से कुछ ही समय पहले तक, 'सास-बहु के सीरिअल' ही ये तय करते थे, कि भारतीय नारियाँ अगले दिन होने वाली भारी-भरकम खरीददारी किस चीज़ की करेंगी. आस-पड़ोस की गप्पों, और चुगलियों की जगह इन सास-बहु के किरदारों ने बखूबी ले ली थी. मानो, एक भावनात्मक-सा रिश्ता स्थापित हो चुका था, भारतीय नारियों, और इन सीरिअल किरदारों के बीच. 
पर आज के टेलीविज़न का परिदृश्य कुछ बदला सा है. लम्बे समय से 'ऊबाऊ' का तमगा झेल रहे इन सास-बहु सीरियालों की जगह आज रिअल्टी शोज़ का झंडा फहरा रहा है. सब नामी मनोरंजन चैनल एक या अधिक तरह के रिअल्टी शोज़ प्रसारित करने में लगे हुए हैं. एक होड़ का भी नाम दिया जा सकता है, और प्रतिस्पर्धा का भी. और इस होड़ में, जो सबसे अलग होगा, वही टिक पायेगा. कुछ इस मानसिकता के साथ, चैनल वाले अपने शो के विषय का चयन करते हैं.
ये रिअल्टी शोज़ आम आदमी से लेकर सेलिब्रिटीज़ तक की सहभागिता के ज़रिये कार्यक्रम को असल जीवन से जोड़ने का प्रयास करते हैं. और दर्शक, इनमे दिखाए जाने वाले भावों के उतार-चढ़ाव में खुद को खोजता है. गायन, नृत्य, विविध प्रकार की प्रतिभाओं के प्रदर्शन से लेकर, खतरनाक स्टंट करना शुमार होता है इन शोज़ में. कभी आम आदमी की प्रतिभा की खोज की जाती है, तो कभी नामचीन लोगों को परीक्षा के घेरे में लाया जाता है. और इसके बदले में विजेता को मिलती है, एक बड़ी धनराशि, और बेशुमार शोहरत. और ये इनाम रातोंरात ही विजेता को एक ऐसी ऊंचाई पर पहुंचा देता है, जिसकी चाहत हज़ारों को होती है. 
इस दृष्टि से देखा जाए, तो ये रिअल्टी शोज़ किसी शॉर्ट-कट से कम नहीं हैं सफलता के लिए. पैसा, नाम, और पहचान के साथ-साथ अपने मनपसंद करियर की ओर रास्ता खुल जाता है. लेकिन मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए, तो इन रिअल्टी शोज़ की परिकल्पना कुछ सही नहीं लगती. इन चैनलों के लिए तो केवल टीआरपी जुटाना ही एकमेव मकसद होता है. और उसके लिए ये लोग शो में किसी भी तरीके से आकर्षण बढ़ाना चाहते हैं. ऊल-जलूल तरीकों से भी आकर्षण बढाने से उन्हें कोई परहेज़ नहीं होता. इनामी राशि को ऊंचा करने के पीछे भी यही सोच होती है. और उस राशि को हासिल करते ही किसी की भी ज़िन्दगी रातोंरात फर्श से अर्श का सफ़र तय कर सकती है. इसीलिए भाग लेने वालों की महत्वाकाँक्षा भी आसमान छूने लगती है. लेकिन हज़ारों में से कुछ बीस-पच्चीस को ही स्वीकार किया जाता है, और बाकी सब को बाहर का दरवाज़ा दिखा दिया जाता है. और इतना ही नहीं, इसके बाद उनकी भी यूँ छंटनी की जाती है, कि सिर्फ एक को ही विजेता घोषित किया, और बाकी सब खाली हाथ घर लौटने पर मजबूर. सवाल तो उठता है, कि क्या उन बाहर कर दिए गए हज़ारों में प्रतिभा का ऐसा अभाव सचमुच रहा होगा? हाथ कंगन को आरसी क्या, हम सब ही गवाह रहे हैं किसी न किसी ऐसे शो के, जहां योग्य प्रतिभागी को भी अस्वीकार किया गया. बहुतेरी बार चयन-प्रणाली पर भी सवाल उठे हैं, और पारदर्शिता पर भी. पर जो भी हो, इन नतीजों के साथ ही, टूट जाते हैं वो हज़ारों सपने भी , जो सिर्फ चंद लोगों के द्वारा एक रणनीति के तहत बुने गए होते हैं. 
अगर इतना कुछ ही होता, तो भी शायद गवारा हो जाता. पर जब छोटे-छोटे बच्चों के लिए भी ऐसे शोज़ की प्रस्तुति की जाती है, तो आश्चर्य होता है. महज़ छः से बारह-तेरह वर्ष तक के छोटे बच्चों को प्रतिभागी बनाकर गायन-नृत्य जैसी प्रतियोगिताएं कराई जाती हैं. छोटे-छोटे बच्चों में जीतने को लेकर जिस प्रकार की ललक  दिखती है, वो सचमुच चिंता का विषय है. क्योंकि यह तो पूर्व-निर्धारित ही है, कि सिर्फ एक बच्चा विजेता होगा. हर एक सप्ताह जब एक प्रतिभाशाली बच्चे को शो से बाहर किया जाता है, तो उसकी प्रतिक्रिया बेहद दुखास्पद होती है. फूट-फूट कर रोते इन बच्चों को चुप करा पाना बहुत मुश्किल हो जाता है. और तिस पर 'वाइल्ड-कार्ड' नामक जुमला, वो तो इन बच्चों को बाहर निकलने के बाद भी एक उम्मीद में रखता है, फिर शो में वापसी की. अब वाइल्ड-कार्ड एक, और बच्चे अनेक. तो इस तरह एक बार फिर, किसी एक के चयन के बाद, बाकी के नन्हे बच्चों के सपने उसी वेग से टूट जाते हैं. अब यदि बाल-मनोविज्ञान समझा जाए, तो कई प्रश्न हैं. जैसे, क्या इतने छोटे बच्चे इतना बड़ा दवाब झेल भी सकते हैं, जो उन्हें ऐसे शोज़ में मिलता है? अगर वो विजेता बन भी जाएँ, तो क्या जीतने के बाद मिलने वाली प्रतिष्ठा को वो संभाल पायेंगे? इतनी बड़ी सफलता मिलने के बाद क्या उनके बचपन की सुन्दरता महफूज़ रह पाएगी? और जीत न पाने की स्थिति में, क्या इतनी बड़ी विफलता उन्हें आसानी से सामान्य होने देगी? दोनों ही हालात में, उनका मन इतना मज़बूत नहीं होता, कि आने वाली परिस्थितियों में वे सामान्य व्यवहार रख पायें. पर इस बड़ी चिंता से कोसों दूर, अभिभावक उन्हें ऐसे बड़े मंचों पर ले जाना एक गौरव का विषय समझते हैं. अपने अधूरे सपने पूरे करना, या फिर जल्द अमीर बने की चाहत, या फिर शायद समाज में प्रतिष्ठित होने के लिए, उन्हें ये रास्ता बहुत आसान लगता है. पर सच यह है, कि ऐसा करके वो अपने बच्चों के बचपन को ही छीन रहे होते हैं. गुलाब की नाज़ुक कली समय आने पर ही सुन्दर फूल बन पाती है. समय से पहले उससे छेड़-छाड़ करना उसके एक सुन्दर पुष्प में परिणत होने की संभावनाएँ कम करने के जैसा है. और ठीक उसी तरह, बचपन की नजाकत से भी छेड़-छाड़ करना कोई हितावह नहीं है. 
समस्या ये है, कि पूरा समाज ही आज ऐसी चीज़ों के अन्धानुकरण में लगा हुआ है. जब तक समाज के सब लोग इस नवीन संस्कृति के मनोवैज्ञानिक पहलु से अवगत नहीं हो जाते, तब तक हालात परिवर्तित होने की संभावनाएँ बहुत ज्यादा नहीं हैं. लेकिन अपने जीवन के प्रति उत्तरदायी तो हम खुद ही हैं. और कोई समझ पाए या न, एक ज़िम्मेदार अभिभावक के लिए तो, जागरूक होकर अपनी संतान को बड़ा होने तक योग्य बनाना ज्यादा महत्वपूर्ण होना चाहिए, बनिस्बत बचपन में ही उसकी प्रतिभाओं को निचोड़कर बड़े होने तक उसे नीरस कर देने के.

5 comments:

Yashwant R. B. Mathur said...

चलिये अच्छा है मैं तो टी वी देखता ही नहीं हूँ :)
लेकिन आपने जो बात इस लेख मे कही है उससे सहमत हूँ।

सादर

Sunil Kumar said...

AAPSE SHAT PRATISHAT SAHMAT , ACHHA AALEKH

Media and Journalism said...

सादर धन्यवाद..!

div said...

आप से सहमत हूँ टिम्सी जी इन रियल्टी शोज में बच्चो की नैसर्गिक खूबसूरती खतम होती जा रही है बस वो भी शो पीस की तरह ही रह जाते हैं अभी से ही वो प्रेशर जीतने का प्रतियोगिता में बने रहने का बच्चो के अंदर से बाल सुलभ भोलापन खो सा जा रहा है

Media and Journalism said...

आदरणीय दिव्या जी, आपकी प्रतिक्रिया पाकर बहुत अच्छा लगा। स्वीकृति, सहमति हेतु सादर धन्यवाद।