Saturday, 7 April 2012

मेरा निर्णय...

इच्छाशक्ति के बल पर क्या नहीं हो सकता. निजी जीवन में बहुत बार मैंने कठिन चुनौतियां देखी हैं. बहुत बार, जब किसी और को कोई कठिन कार्य करते देखा, तो प्रेरित होकर मैंने भी उसी दिशा में प्रयास किये. सफलताएं भी मिली, और असफलताएं भी. सफलताएं अगर सीढ़ी का सबसे ऊंचा पायदान हैं, तो असफलताएं खुद में ही एक सीढ़ी हैं. इसलिए, असफलताओं से भी मुझे निराशा नहीं होती. पर फिर भी, एक छोर ऐसा भी है, जहां मुझे पहुंचा पाने का दम मेरी इच्छाशक्ति में नही है.
मुझे ऐसा लगता है, कि एक ‘निर्णायक’ बन पाना मेरे लिए कतई सम्भव नहीं है. सही-गलत, बेहतर-कमतर, अच्छा-बुरा, इन सबका फैसला कर पाना वाकई बहुत मुश्किल होता है. मैं खुद सही हूँ, या गलत, इसके बारे में मुझसे बेहतर और कोई शायद नहीं जान सकता. ऐसे में, दूसरों के बारे में सही-गलत के फैसले ले पाना मेरे लिए कैसे आसान हो सकता है! निर्णायक होने में पेचीदगियां बहुत हैं. अब, दो लोग जो बिलकुल भिन्न-भिन्न परिवेश से हैं, सर्वथा भिन्न परिस्थितियों में से उठकर अगर उन्होंने खुद में कोई योग्यता विकसित की है, तो उन्हें एक-दूजे से बेहतर-कमतर कैसे आँका जा सकता है? मेरी सोच तो मुझे इसकी अनुमति नहीं दे पाती,  भले ही कितने ही तर्क सामने रखे हों. निर्णायक की भूमिका में आकर, अच्छे और बुरे का भेद मेरे लिए तो एकदम सर चकराने वाला है. अच्छे, और बुरे की जो परिभाषाएं बचपन में गढ़ी थी, वे तो अपना स्वरूप आज पूरी तरह खो चुकी हैं. अपनी शरारतों से दूसरों को परेशान करने वाले नटखट बच्चे तब सचमुच बहुत बुरे लगते थे. पर आज, वो ही शरारती, उधमी बच्चे इस दुनिया का सबसे सुन्दर रंग लगते हैं. आज की दुनिया में जिस-जिस को भी बुरा कहा जाता है, उसकी ओर देखने पर एक तो विचार आता ही है, कि इसके पीछे इसकी परिस्थितियों का भी भारी योगदान है. जब नचाने वाली एक बड़ी डोर परिस्थितियों के हाथ में है, तो इंसान को अच्छा-बुरा कहना तो बेमानी ही है. परिस्थितियाँ अनुकूल हों, तो प्रकट रूप से बुरे कर्म करने वाले भी अच्छे कहलाये जाते हैं. वहीँ, प्रतिकूल समय में तो इंसान की सादी मुस्कान भी दूसरों को चुभने लगती है. तब, दो टूक निर्णय कर लेना, कि कोई इंसान अच्छा है या बुरा, यकीनन मेरी समझ से परे है. इसके साथ ही, एक बड़ी सीमा, जिसे कभी कोई नहीं लांघ सकता, है ‘मानुषी सीमाएं’.
हम मनुष्य एक सीमा तक ही देख सकते हैं. कानों-सुने से प्रभावित हो जाते हैं. तो फिर हम सौ फीसदी सही निर्णय कैसे ले सकते हैं? बिलकुल सफ़ेद रंग की दही भी जब सूक्ष्मदर्शी यंत्र की सहायता से जाँची जाती है, तो वह काले रंग की नज़र आती है. अब उसकी सफेदी की तारीफ की जाए, या कालिमा की बुराई की जाए, इसका निर्णय कौन कर सकता है? यहाँ नज़रिए बड़ा-बड़ा फर्क पैदा कर दिया करते हैं. इसलिए, मैंने तो बस इतना ही निर्णय किया है, कि अच्छे और बुरे का निर्णय करना मेरे बस की बात नहीं है. बहुत रंगीन है ये दुनिया, हर रंग का सम्मान करते हुए ही जीना चाहिए. दुनिया भी सुन्दर लगेगी, और जीवन भी.

4 comments:

Kailash Sharma said...

बहुत रंगीन है ये दुनिया, हर रंग का सम्मान करते हुए ही जीना चाहिए. दुनिया भी सुन्दर लगेगी, और जीवन भी.

....बहुत सार्थक विचार...

Media and Journalism said...

प्रोत्साहन हेतु सादर धन्यवाद..

सु-मन (Suman Kapoor) said...

गुड ..keep going...

Media and Journalism said...

Thank you very much..