Wednesday, 31 August 2011

समाचार-पत्रों में प्रकाशित लेख.. ( अगस्त )

 समाचार-पत्रों में प्रकाशित लेख..   (अगस्त)


                                                
                                                  


                                                 
                                                  

                                                 

Saturday, 27 August 2011

ये नया-नया सा हिन्दुस्तान . . . .


पिछले कुछ दिनों से हिंदुस्तान बदल गया-सा लगता है. पहले का दृश्य तो ऐसा होता था, कि सब शिकायत करते नज़र आते थे, प्रशासन की, व्यवस्था की, भ्रष्टाचार की. लेकिन जहां चाय की प्याली ख़त्म हुई, वहाँ खुद ही हम हिस्सा बन जाते थे उसी व्यवहार का, जिसकी शिकायतों का पिटारा लेकर हम घूमा करते थे. पर आज कुछ दिनों से ऐसा लग रहा है,कि आसमान तो वही है, पर हवा कुछ नयी-सी है. अन्ना का अनशन आज बारहवे दिन में प्रवेश करने के बाद, सुबह खोलने की औपचारिक घोषणा हो चुकी है.  और नतीजा घोषित होना अभी बाकी है. खुद अन्ना ने इसे आधी लड़ाई जीतने के जैसा बताया है. एक लम्बा अनशन आखिरकार उस परिणाम की ओर ही पहुंचा, जिसकी अपेक्षा की गयी थी. इस सब में, जिस एकता के साथ पूरा हिन्दुस्तान अन्ना के साथ खड़ा हुआ है, उसकी तो किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. आज , उसी पुरानी सड़क पर से गुज़रते हुए, जब लाउड-स्पीकर से उद्घोष सुनाई देता है देशभक्ति के नारों का, तो एकबारगी तो ऐसा लगता है, कि जैसे हम स्वतंत्रता-संग्राम के दिनों में वापिस पहुँच गए हों. इर्द-गिर्द खड़े हुए लोगों की ओर दृष्टिपात करें, तो समय बिताने के लिए खड़ी पुरानी टोलियाँ आज गायब हो चुकी हैं. देशभक्ति का एक जज्बा फैला हुआ है वहाँ, जिसे आस-पास से गुजरने वाला हर एक इंसान महसूस कर सकता है. और शाम को, कम होती रौशनी में फिर से आशा के जुगनू लेकर आ जाते हैं, केंडल-मार्च करते हुए युवा..!  अब आयु चाहे कुछ भी हो लेकिन 'युवा' शब्द उनके जज्बे के नाम. कभी आज़ादी के इतिहास के पन्ने खोल कर देखें, तो गरम दल के लोग भी कुछ ऐसा ही बिगुल बजाते मिलेंगे. ये एकता जो आज दिख रही है, सचमुच अनदेखी, न्यारी है. 
पर गौर करने की बात है,  ये एकता एक कारण से सिद्ध हुई है. और वो कारण है, 'जागरूकता'. आज का आदमी एक बात तो अच्छी तरह समझ चुका है, कि सम्प्रति राष्ट्र जिस स्थिति से गुज़र रहा है, वहाँ अगर अब भी कोई ठोस कदम न उठाया गया, तो फिर तो हालात बद-से-बदतर ही होने हैं. अव्यवस्था नामक वाइरस अपना संक्रमण देश के हर एक हिस्से में पूरी तरह फैला चुका है. और भ्रष्टाचार का प्लेग पूरी तरह जानलेवा हो चूका है. ऐसे में,भले ही अपने महकमे में हम कितने भी भ्रष्ट क्यों न हों, पर कभी-न-कभी तो वहाँ से बाहर निकलना ही होता है. उर बाहर निकले नहीं, की इस विषैली हवा की चपेट में आ गए हम भी. या यूँ भी देखा जा सकता है, कि भ्रष्टाचार के दीमक ने आदमी को अन्दर से पूरी तरह खोखला कर दिया है. बाहर से भले ही ऐश-ओ-आराम की चमक-दमक दिखती हो, पर वो भी किसी सौंदर्य-प्रसाधन की तरह बाहर से थोपी हुई..मन का एक्स-रे किया जाए, तो हारा हुआ, निराश..! शायद इन्ही कारणों ने मजबूर कर दिया है उसे, अपने वातानुकूलित घर के दरवाज़े खोलकर बाहर आने को, और उस खुले मैदान में बैठकर धरना देने के लिए, जहां सूर्यदेव की प्रचंडता हर पल स्नान करा रही है उसे, पसीने से...!
लेकिन अगर सिर्फ भीड़ में बैठकर संख्या बढ़ाना ही उसका मकसद होता, तो अनशन करने वालों की इतनी संख्या न होती. बताने की ज़रूरत नहीं है, कि किस तरह हर जाति-सम्प्रदाय और सामाजिक-स्तर के लोगों ने अपनी-अपनी उपस्तिथि भी दर्ज कराइ है, और सक्रियता भी बना कर रखी है. ये किसी चुनावी रैली की भीड़ नहीं है, जहां से लड्डुओं की डिब्बी मिलेगी, आश्वासनों की थैली के साथ. ये संगठित लोग तो इस बात का प्रमाण हैं, कि अपना उत्तरदायित्व समझ में आ चुका है लोगों को, अपने राष्ट्र के प्रति..!
अब भला वो कौन सा मौका है, कि जब धारा के विपरीत किसी ने बोलने की कोशिश न की हो..! इस बार भी, बीसियों ऐसी बातें सुनने को मिल रही हैं, कि ये अनशन नहीं, कूटनीति है. और कुछ छद्म इरादे हैं सरकार के, इस अनशन के पीछे छिपे हुए, जो आम आदमी देख-समझ नहीं सकता. बहुत-सी ऐसी मंद आवाजें हैं, जो कई दिशाओं से सुने दे रही हैं. इतना ही नहीं, कुछ लोग तो अवसर भुनाने की फिराक में नज़र आ रहे हैं, और खुद को स्थापित करने का एक अनोखा अवसर भी देख रहे हैं. अब इन बातों का सच तो जो भी हो, पर तीन बातें जो उभर कर आती हैं , वो हैं, 'अटकलें, बयान और घोषणाएं', 
संसद तक तो पहुँच गया है अब जन लोकपाल बिल, पर आम आदमी तक इसका रास्ता दिखने का इंतज़ार अभी बाकी है. खैर, वो इंतज़ार भी कुछ दिनों में पूरा हो जायेगा. एक उम्मीद तो जग चुकी है.
घनघोर अँधेरे को चीरने के लिए तो एक मशाल ही बहुत होती है. और वो मशाल बहुत ज़ोरदार ढंग से जग चुकी है, रामलीला मैदान में! असंख्य दीपक रोशन हो सकते हैं, इस एक मशाल से, और देश के हर एक कोने का अन्धकार दूर हो सकता है! और बेशक, वो नन्हे दीपक टिमटिमाना शुरू भी हो चुके हैं. भ्रष्टाचार की बारिश से हर एक दीपक को महफूज़ रख पाना तो किसी के बस की बात नहीं है, पर अपने-अपने आँगन के दीपक को तो हम संभाल ही सकते हैं. दूसरे शब्दों में कहूं, तो आज का हिन्दुस्तान एकता, और जागरूकता से लबरेज़ नज़र आ रहा है. अपना उत्तरदायित्व समझ रहा है, और स्वामी विवेकानंद के उस उद्घोष को गुंजायमान करता प्रतीत हो रहा है, कि, ' उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्यवरान  निबोधत' 
अभी आधी जीत है. पूरी जीत होनी अभी बाकी है. कुछ भी हो, कैसा भी हो, हर हाल में अपने जीवन के उत्तरदायी तो हम खुद ही हैं. भ्रष्टाचार के खिलाफ यदि हम कलमबद्ध हैं, तो संसद में जन लोकपाल का प्रस्ताव कुछ भी करवट ले, घर-घर में एक जन लोकपाल ज़रूर होगा. स्वागत कीजिये, एक नए हिन्दुस्तान का. 
क्रान्ति के इस दीपक को जगाने की शुरुआत हम सब अपने-अपने मोर्चे पर तो कर ही चुके हैं, बस अब इन्हें विपरीत आँधियों, और बरसातों में बुझने नहीं देना है. याद रखिये, दीपावली अब बहुत दूर नहीं है.    

टिम्सी.

Thursday, 25 August 2011

कैसी माया है तुम्हारी . . .


अचरज होता है मुझको,
कैसी माया है तुम्हारी !
इक ही छतरी के नीचे,
धूप-छाँव सबको न्यारी !!


बुनियाद वोही भूरी-सी है,
जुदा हैं उसपे सारे ढाँचे !
इतने कितने जोड़े होंगे,
बना-बना कर तुमने सांचे !!


हाथों में ले ले तलवार,
भेदा है अंतर को भी !
कितनों ने जांचा-परखा,
पाया न अंतर तो भी !!


सब में लाखों-लाखों भेद,
ये क्या रचना, कैसा भ्रम है !
जब अंतर-बाहर एक-ही-एक,
क्या सोपान, ये क्या क्रम है !!

Sunday, 14 August 2011

" कुसुमाकर "


कोई आया है बगिया में......
हिम की चदरी को सहला,
विटप-पल्लवों को बहला,
बुना है इक गीत  |

कोई आया है बगिया में.....
चली कूचिका मृद-वारि पर,
रंग बिखेरे हर क्यारी पर,
सब है पीत-पीत  |

कोई आया है बगिया में.....
जादू -सा हर पांखुरी पर,
नाम लिखा है कुसुमाकर,
वसंत की प्रिय रीत  |


--
:- टिम्सी मेहता 

Word-meanings 
कुसुमाकर, : Spring season. 
 विटप-पल्लवों : Leaves of trees.
 कूचिका : Paint-brush.
 मृद : Mud.
 वारि : Water.
 पांखुरी : Petal.

Monday, 8 August 2011

गर्व है भारत, मुझे तुम पर !!


                                "स्वादिष्ट भोजन" , इस शब्द मे ही कुछ जादू है . और अगर बात भारतीय भोजन की हो रही हो, जहां मिर्च-मसाला अपने चरम पर नज़र आते हैं , तो किसी के लिए भी नियंत्रण मुश्किल हो जाए ..! फिर भले ही वो शाही मुगलई खाना हो , या हैदराबाद की बिरयानी , या फिर पंजाब की धरती की मशहूर ' मक्की की रोटी , और सरसों का साग ' , भारत की रसोई की खुशबू से बचना आसान नहीं है . गुजरात का ' ढोकला-खाखरा-थेपला-भजिया-गांठिया ' ... ये तो सिर्फ चंद ही नाम हैं स्वाद के उस समंदर में से , जिनको याद करना भर ही गुजरात का मेहमान बनने का सुझाव दे जाता है . हिंदुस्तान के पकवानों की बात चल रही हो , और मिठाइयों का ज़िक्र न हो , भला ऐसा भी हो सकता है क्या ! नाम-भर लिखना ही मुश्किल हो जाए , क्योंकि इन मिठाइयों को याद करते ही मुह में इतना पानी आ जाता है . 'जलेबी' .. नाम याद आते ही मिठाई की दुकान का मानो न्योता आ जाता है. काजू-कतली हो या बंगाली रोशोगुल्ला या मोतीचूर का लड्डू , हलवाई की दुकान ढूंढना एक मजबूरी बन जाती है 


                                   नाम तो अनगिनत होंगे .. और यहाँ भला कितने लिखे जा सकते हैं ..! कहने की बात तो ये है , कि भारत की महानता की दास्तान उसकी पाकशाला के सन्दर्भ में भी कमज़ोर नहीं पड़ती है . और ये ही बात है , जो मुझे एक कारण देते है , ये कहने का , कि
                                 "अब ये है भारत ...
                                 गर्व है भारत, मुझे तुम पर !! . 
                                 मेरे पास हर एक कारण  है तुम पर गर्व करने का... !!"
                                एक वातानुकूलित रेस्तरां में बैठकर अच्छा खाना खाने का अवसर किसी भी आम भारतीय का एक मनपसंद तरीका होता है ताज़ा होने के लिए . इतना प्रभावी होता है ये , जैसे कि आप किसी दूसरी दुनिया में ही पहुंचा दिए जाते हैं , जहां आप अपने अस्तित्व को तलाश सकते हैं.. हाँ , एक अनुभव ,डायरी में जोड़ने के योग्य ...
                    कहते हैं , कि बहुत हद तक भोजन का स्वाद इस  बात पर निर्भर करता है , कि उसे बनाने वाला कौन है. बहुत बार स्वादिष्ट पकवानों से जुड़े हुए साहित्य पढ़ते हुए एक विशेष प्रकार का विचार मेरे मन में उमड़-घुमड़ करने लगता  है , कि संसार तरह-तरह के व्यंजनों से भरपूर है . लेकिन एक उन व्यंजनों को पकाने वाले लोग पसीने से तर-बतर हो जाते हैं, तब कहीं जाकर खुद के लिए सादी-सूखी रोटी जुटा पाते हैं .
और ये ही बात है, जो मुझे एक कारण देते है , ये कहने का , कि
                                "अब ये है भारत ...
                                 गर्व है भारत, मुझे तुम पर !! . 
                                 मेरे पास हर एक कारण है तुम पर गर्व करने का... !!"

: - टिम्सी .

                             

अल्हड़ पनिहारिन


सुना भोर का गान ,
पाकर उत्साह नवीन |
सिर पर धर मटुकी ,
चली अल्हड़ पनिहारिन ||

नपे-नपे क़दमों से ,
पगडण्डी पर चाल |
हौले-हौले गुनगुना रही ,
हाथों से दे ताल ||

दायें-बाएं , कभी नीचे ,
कभी देखे आसमान |
जस की तस हरपल ,
सिर-मटुकी की शान ||

भेड़ों के झुरमुट को ,
हिला दिया रेत से |
तोड़े गन्ने दो-चार ,
जो गुजरी खेत से ||

पहुँची पनघट , मटुकी अपनी ,
सिर से दी उतार |
अपनी बारी गिन रही ,
लम्बी लगी कतार ||

और कुछ पल में ,
कुँए की मिली मुंडेर |
भर ली  मटुकी  , पीछे पलटी ,
अब घर को क्या देर ||

दिन भर में मटुकी खाली ,
भोर में वो ही सार |
रीती मटुकी भरते-भरते ,
जीवन दिया गुज़ार ||

यों मुझे कविता के नियम-कायदे तो नहीं आते, पर अपने बहुत सारे भावों को कम शब्दों में कहने का ये ही तरीका ठीक लगा.....

:- टिम्सी मेहता .

वो एक मेंढक . . .

                     बारिश की एक फुहार के साथ पता नहीं कितनी सारी छिपी हुई, दबी हुई चीज़ें बाहर आ जाती हैं. कवि की भावनाएँ, चित्रकार की कूची, बच्चों की किश्तियाँ, बड़ों की यादें, पकौड़ों की खुशबू, हवा की ताज़गी, पत्तों की हरियाली, पेड़ों की फुलवारी, और न जाने कितना कुछ और...!! 
                     ऐसा ही एक मनभावन बरसात का दिन था. बगिया में बैठकर बारिश की बूँदों को पौधों के हरे-हरे पत्तों पर टपकते हुए देखना मुझे बहुत अच्छा लग रहा था. नन्ही जल-बिन्दुएँ  जब पत्तों पर गिरती, तो पत्ते हर एक बार , जैसे कि, उन बिन्दुओं के सम्मान में झूम उठते थे. मिट्टी पर बार-बार गिरने वाली बूँदें धरती में छोटे-छोटे खड्डे कर देती थी, और उन खड्डों में पानी का टपकना भी एक काव्यात्मक दृश्य हो रहा था.
                     इधर-उधर से छोटे बच्चों का ठिठोली-भरा शोर भी सुनाई दे रहा था, जो उस वातावरण में और भी उल्लास भर रहा था. इस सुन्दर मौसम का आनंद उठाते हुए मेरी नज़र एक मेंढक पर पड़ी. हरा-हरा सा ये नन्हा जीव भी बारिश की फुहार के असर से ही अपने बिल से निकल आया था. या शायद मौसम की पहली बारिश का रोमांच उसे भी हो रहा होगा, जिसमे भीगने से वो खुद को रोक नहीं पाया होगा.
                      यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ, फुदकता हुआ वो मेंढक, मानो, कुछ  ढूंढ रहा था ...! ढूंढना तो खैर क्या ही होगा, ये तो उसकी स्वाभाविक ऊर्जा है, जो उसे हमेशा मगन रखती है, उसकी अपनी दुनिया में, जहां टर्राना और फुदकना उसका जन्मसिद्ध अधिकार है. और उसकी टर्रटर्राहट भी, जैसे बारिश के साथ जुगलबंदी करते हुए, एक नया संगीतमय माहौल बना रही थी..! मुझे उसकी उछल-कूद देखते हुए कुछ अजीब-सा मज़ा आ रहा था..!  बेखबर, निश्चिन्त, न किसी से कुछ लेना, न कुछ देना ... और जिस दिशा में मन आये, उसी ओर मुड़ जाना ..!
                      यों ही फुदकते-फुदकते कब वो बगिया से निकल कर सड़क के किनारे पहुँच गया, और कब एक बड़ी गाड़ी का रौबीला पहिया उसे रौंदता हुआ आगे चला गया, इसका  शायद  मेरे अलावा और किसी को भी पता नहीं चला होगा..! जितने हिस्से पर वो मेंढक फुदक रहा था, बस उतने हिस्से की धरती लाल हो गयी थी उसके खून से ! और वो भी भला कितनी देर के लिए ! बारिश के पानी में वो लालिमा भी देखते ही देखते कहीं खो गयी.
                     दुःख तो मुझे बहुत हुआ, लेकिन समझ में नहीं आया, कि क्यों?  एक मेंढक के होने-न होने से इतनी बड़ी दुनिया में किसी पर फर्क ही क्या पड़ता है..! क्योंकि उसका किसी से भी भावनात्मक लगाव तो था ही नहीं.                      
हर सुबह अखबार में एक 'ख़ास' किस्म के समाचार पढ़ते हुए मुझे रोज़ वो मेंढक याद आता है, और ऐसा लगता है, कि आज के आदमी और मेंढक में बहुत ज्यादा फर्क नहीं रह गया है .....

Sunday, 7 August 2011

ये जीवन और वो जीवन . .

                                बचपन में बारिशों के मौसम में सुना करते थे, कि जब बारिश होती है, तब मोर नाचा करता है. सुन-सुन कर कौतुहल हुआ करता था, कि मोर कहाँ नाचा करता होगा, कैसे नाचता होगा.. पंख फैला कर उसका नृत्य कितना भव्य लगता होगा.. ! और एक अनकहा सा इंतज़ार होता था मन में, बड़े होने का.. ! जल्दी से बड़े हो कर, कहीं से मोर का पता लगाने का.. ! और बाद में जब ये पता चला कि मोर तो जंगल में नाचता है, तो थोड़ी-सी निराशा भी हुई..! खैर, बच्चों की बचकानी सोच तो इसी दायरे में ही रहती है.
                               आज इस बात को लेकर नजरिया बदल गया है. कल तक मोर का 'नाचना' रोमांचक लगता था ! और आज , हैरत होती है ये सोचकर, कि जहां कोई देखने वाला नहीं, प्रशंसा का एक शब्द कहने वाला नहीं, वहाँ भी मोर-महाशय की भी क्या ही मस्ती है, जो कभी थमती ही नहीं.. ! मोर ही क्यों, फूलों ने कब खिलना बंद किया जंगल के एकांत में..! जहां किसी कवि ने जाकर गीत नहीं गुने उनकी कोमलता पर रीझ कर, किसी चित्रकार ने नक़ल नहीं उतारी उनकी सुन्दरता की, ऐसे किसी जंगल के नीरवता में भी ये फूल कभी मुस्कुराना नहीं भूलते. झरना अपना संगीत नहीं खोता . चिड़ियों की चहचहाट शहरी आबादी में तो भले ही आज एक भूली-बिसरी सी याद हो गयी है, पर अपने स्वाभाविक गान के लिए उन्हें कभी किसी श्रोता की दरकार नहीं रही.  कभी-कभी तो मधुमक्खियों को देखकर भी मन में अचरज होता है.. ! जिनके डंक के नाम से ही हम डर जाते हैं, ऐसी ये मधुमक्खियाँ अपने नैसर्गिक जीवन में कितनी मग्न होती हैं... ! रोज़ जाकर ताज़ा खिले हुए फूलों की टोह लेना, उनका पराग इकठ्ठा करना, और फिर उसकी शहद बनाना, इस भय से सर्वथा मुक्त, कि कोई भालू नाम का डाकू आएगा, और उनकी कड़ी मेहनत से जुटाया हुआ सारा शहद लूट कर ले जाएगा.. एकदम लयबद्ध होती हैं  ये नन्ही सैनिक.!                                                                                        
                               
                                ऐसा सुरमय है ये प्राकृतिक जीवन..! मानो, सब जीव अपने अस्तित्व के ही सम्मान में झूमते हैं, गाते हैं.. ! नीला आसमान अपनी विशालता के आनंद में झुकता-सा लगता है..! विशाल पेड़ मानो किसी भी परिस्थिति का सामना करने के लिए हर पल कटिबद्ध लगता है, और वहीँ, कोमल लताएं उन पेड़ों से लिपट कर मानो निर्भय-सी हो जाती हैं. कहीं कोई किसी को सम्हाल रहा है, वो भी बिना किसी दंभ-प्रदर्शन के, और कहीं कोई सहायता ग्रहण कर रहा है, तो कृतज्ञता का एक शब्द भी ज्ञापित किये बिना..! ऐसा है ये वनांचल.. पवित्र, निर्मल, और जीवन से परिपूर्ण...! हाँ, हिंसक पशु भी होते हैं वहाँ, पर वो भी तो तथाकथित प्राकृतिक व्यवस्था के अंतर्गत अपना कर्त्तव्य कर रहे होते हैं. जहां तक नियमबद्धता की बात है, तो उसमे तो वो हिंसक जीव भी कोई चूक नहीं करते दिखते. सब अपना प्राकृतिक जीवन एक उत्सव की तरह जी रहे लगते हैं. कितनी उदारता है इस प्रकृति की स्नेहिल गोद में ..!
                                ये तो हम मनुष्य ही है, जिन्हें महंगे से महंगा भोग भी तब तक अच्छा नही लगता, जब तक उसे सब लोग देख न लें..!  कभी-कभी ऐसा लगता है, कि विकास के इतने ऊंचे सोपान पर खड़ा होने के बाद भी मनुष्य बौना रह गया है, एक नन्ही-सी चिड़िया के आगे ..!! 


टिम्सी. 

Saturday, 6 August 2011

कुछ तो बात है...प्रकृति में . . ! !

" बोर हो रहे हैं.. " मुझे ऐसा लगता है, कि ये पंक्ति तो आज सबसे ज्यादा 'ध्वनि-प्रदूषण' कर रही है. दो मित्र एक दूसरे से मिलेंगे, तो परस्पर हाल-चाल पूछने के बाद यही बात, कि आपके यहाँ क्या नया चल रहा है, हम तो बस बोर हो रहे हैं..! हर दिन इर्द-गिर्द बढ़ती ऊब, और झल्लाहट..! बोरियत नाम का ये रोग किसी भी वाइरस से ज्यादा संक्रामक मालूम होता है. " कुछ नयी बात ही नहीं है, बासा-पुराना सा लगता है सब कुछ.." .. एक आम शिकायत! मगर मुझे तो ऐसा लगता है, कि हमारे इर्द-गिर्द इतना कुछ नया-ताज़ा है, बस हम ही उसे पूरी तरह  से देख तक भी नहीं पाते हैं. 
घास पर बैठ कर फूल-पौधे देखते हुए मुझे हैरानगी होती रहती है, .. एक छोटी-सी कली का खिलकर एक संपूर्ण सौंदर्य की अभिव्यक्ति हो जाना, उसके बाद बिना माँगे ही हवा को अपना पराग देना.. खुशबू बिखेरना .. अपने आप में कितने सुखद आश्चर्य के जैसा होता है ये सब ..! और फिर उस पर तितलियों का, बिना किसी चिट्ठी-पाती के ही आ जाना, अपने सुन्दर-सजावटी पंख खोलना-बंद करना.. यहाँ से वहाँ मंडराना..! जीवन में जैसे, एक महक-सी आने लगती है इन तितलियों की चंचलता देखते-देखते ही..
सुबह सूरज की अंगड़ाई के साथ ही पंछियों का कलरव..!  पूरे आकाश को स्वरित कर देते हैं ये नन्हे जीवंत खिलौने. रोज़-रोज़ की एक-सी उड़ान लेते इन पंछियों का उत्साह एक भी दिन कम नहीं होता. 
कहते हैं , कि आप मानव हैं, इसलिए आप मुस्कुरा सकते हैं. सृष्टि में और किसी जीव को ये 'मुस्कराहट' नामक उपहार प्राप्त नहीं हुआ है. मगर मुझे तो ऐसा लगता है, कि मानव तो सिर्फ होठों से मुस्कुराता है, ये रंग-बिरंगे पंछी तो रोम-रोम से मुस्कान ही मुस्कान बिखेरते रहते हैं. पर हाँ, इतना तो मानना ही पड़ेगा,कि 'शिकायत' करने वाला तो मानव अकेला ही है पूरी सृष्टि में. 
सोचने की बात है..कि वो क्या है, जो हर दिन, हर पल इन परिंदों, तितलियों को, और पेड़-पौधों को जीवन दिए रहता है..! न तो उनके पास रहने के लिए सुन्दर घर, न ही महँगी गाड़ियां.. और न ही बेशकीमती नग-नगीने..! 
 मानव के पास तो सब कुछ है, फिर भी वो 'बोर' होता रहता है, और ये निरीह, भोले जीव, कुदरत के नए-नए रंगों को देख-देख कर ही उमंग से भरे रहते हैं..


 कुछ तो बात है प्रकृति में.. !!

दूसरों के लिए . . .

बचपन में एक कहानी पढ़ी थी, 'दूसरों के लिए' . उस कहानी मे एक बूढा आदमी आम का बीज बो रहा था धरती में. एक राहगीर ने रुक कर पूछा, कि बाबा, ये क्या कर रहे हो..? इतनी उम्र भी बची है क्या, जो आम का बीज बो रहे हो ? पांच साल लगते हैं, पूरे पांच साल , आम उगने में. बूढा आदमी विनम्रता से बोला, मैं नहीं खा पाऊंगा तो क्या, कोई और खायेगा. दूसरों के लिए उगा रहा हूँ मैं ये पेड़. 
तब उम्र कम थी. बात का मर्म समझ नहीं आया था, लेकिन शब्द आज तक याद हैं. अगर किसी और ने आम का पेड़ न लगाया होता, तो आज हम कैसे खाते ! अगर आज हम नहीं लगायेंगे, तो कोई और कैसे खायेगा..!
बहुत सुन्दर लगता है ये चक्र मुझे. जिस तरह से आम का एक बीज धरती में डाला जाता है, और बदले में अनगिनत आम मिलते हैं, उसी तरह, मुझे ऐसा लगता है, कि ख़ुशी भी बीज रूप में होती है. एक बीज ख़ुशी का जब हम अपने इर्द-गिर्द डालते हैं, तो वो पेड़ बनकर इतना बढ़ कर हमारे आस-पास डोलने लगता है, कि जीवन नंदन-वन बन जाता है. हमेशा अपने लिए जीते-जीते हम ये भूल ही गए हैं, कि ख़ुशी बांटने का एहसास क्या होता है. 
एक रुआंसा चेहरा, जिसकी आँखें इंतज़ार करते-करते थक गयी हैं, बुझ गयी हैं, को जब अचानक, अनपेक्षित रूप से उसे कोई ख़ुशी देना.. शायद उसे नहीं, हमारी आत्मा पर अंकित किसी गहरे दुःख के निशान को मिटाने के जैसा  है. आधुनिक समय में प्रचलित कई तरह के मेडिटेशन और योग.. ये सब इसी बात की ओर इंगित करते हैं, कि अपने मन को भार मुक्त किया जाए.  और अगर यही लक्ष्य है, तो क्यों न, किसी रोते हुए बच्चे के आंसू पोंछ कर , या फिर किसी वंचित को सहारा दे कर मन हल्का किया जाए..
"जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ."
एक सुन्दर जीवन त्याग की नींव पर ही खड़ा होता है. जब तक हम अपनी एक नन्ही-सी ख़ुशी का त्याग नहीं करेंगे, तब तक हम किसी को बड़ी ख़ुशी कैसी देंगे..! वैसे, बातें बनाते बनाते हम बहुत बुद्धिमान हो गए हैं. लेकिन कर्म रूप में उन बातों को जीवंत कर पाना अपने ऊपर ही उपकार है. 
 हर एक बार खुद के ही लिए खुशियाँ इकट्ठी करना, खुद के लिए खाना-पीना.. खुद के लिए जीना.. शायद इसी को खुदगर्जी कहते हैं. 'मिल-बाँट' कर खाना तो शायद आज सिर्फ भ्रष्ट लोगों के यहाँ ही होता है. आम आदमी तो बस खुद तक ही सीमित रहता है.  
सन्देश और उपदेश की धरती भारत आज संस्कारों और संस्कृति  के मामले में तो मरुभूमि हो गयी सी लगती है. आइये, इस मरुभूमि को फिर से सींचें, पवित्र भावनाओं से... हम सब को याद रहना चाहिए, कि तब किसी ने आम का पेड़ लगाया था, तभी तो हम आज आम का स्वाद जानते हैं. खुशियों का एक नन्हा-सा पौधा भी रोंपा जाए, ताकि, आने वाला भारत खुशियों के स्वाद से अनजान न रह जाए..

टिम्सी.

मुड़ो प्रकृति की ओर . .

                       हर पल कुछ नया करने की चाह, कुछ नया बटोरने की चाह, और सब से ऊंचा उठने की चाह.. इन चाहों ने इंसान को ऊंचा तो उठा दिया है, लेकिन अपनी जड़ों से भी दूर कर दिया है. एक छोटा सा बच्चा, जब उछलता है, तो बहुत खुश होता है.. लेकिन उछल-कूद करते हुए, बहुत बार गिर भी जाता है. और तब, और कोई उसे उठाये या न उठाये , उसकी माँ कहीं से भी आ जाती है, और उसे उठा कर रोते हुए को चुप कराती है..  दुलारती है.. और बच्चा अपनी पीड़ा भूल कर माँ के स्नेह में ही खो जाता है. एक नयी-सी शक्ति आ जाती है उस में, फिर से अपने उसी क्रम को दोहराने की . 
                     यह माता-सुलभ स्नेह केवल एक जन्मदायिनी माँ से ही मिलता हो, ऐसा भी तो नहीं है. प्रकृति नामक एक और भी माँ है हमारी, जो  जन्मदायिनी माँ से कतई अलग नहीं है. जैसे हमारी माँ हर पल हमारे पालन-पोषण में व्यस्त रहती है, बिना आवाज़ के ये प्रकृति भी यूं ही हमारा संरक्षण करती रहती है. वो तो हम हैं, जो अपनी सीमित दृष्टि के चलते उसे बूझ नहीं पाते , प्रकृति तो हर एक पल नवजीवन का कटोरा उठा कर हमें ताज़ा करती रहती है. 
                     ऐसी माँ प्रकृति को हम भला वापिस क्या देंगे, दरअसल कभी दे ही नहीं सकते, लेकिन जिस द्रुत गति से विकास की पटरी पर चढ़ कर हम इसे नुकसान पहुंचा रहे हैं, वह अपने आप में चिंताजनक है . ऐसा ये इंसान, जो आसमान को छूने के लिए अपनी जड़ों को काटने से भी गुरेज़ नहीं कर रहा, नहीं जानता, कि वो कहाँ बढ़ रहा है. 
                     हम क्या समझते हैं, आसमान को छू लेने से हमारा कद ऊंचा हो जायेगा..?? नहीं, वास्तव में हम बौने हो गए हैं. हम अपना अस्तित्व ही  छिन्न-भिन्न करने पर तुले हुए हैं. विलासिता भरे जीवन की ओर बढ़ते हुए हम वो सब साधन इकट्ठे कर लेना चाहते हैं, जो हमें दूसरों की दृष्टि में 'विशिष्ट' बना सकें, लेकिन सोचने की बात है, एक छोटा बच्चा कितनी देर तक खिलोनो में खुश रहेगा, अगर उसे अपनी माँ से दूर कर दिया जाए..! प्रयोग कर के देख लीजिये.. १-२ घंटे में तो इतनी जोर से रोने लगेगा, कि आस-पड़ोस वाले भी परेशान हो जायें. ऐसा ही तो यह बड़ा आदमी है. बंद कमरे में सोना-चाँदी के ढेर तो लगा लिए हैं, लेकिन जीवन जीने के लिए ताज़ी हवा की ज्यादा ज़रुरत धन-वैभव से ज्यादा होती है. खुद को अपनी माँ-प्रकृति से ही दूर किये बैठा है ये आज का इंसान..
                     "चूंकि हमारा पडोसी, और हमारा मित्र भी ऐसा ही जीवन जी रहे हैं, तो हम भी जी लेंगे.. " ,क्या ये भेड़ के जैसी मानसिकता नहीं हुई..? क्या हम में से कोई शेर बनकर अपने रास्ते पर अकेला चलने का साहस नहीं रखता..?  दूसरो की रची परिपाटियाँ, जो पहले से ही खोखली हैं, हमें किसी सुन्दर महल तक नहीं पहुंचा पाएंगी. पहले से ही हम प्रकृति का इतना विनाश कर चुके हैं, जो चिंताजनक है. इसके बाद तो हर एक पग आत्मघातक होगा..
                      कितना अच्छा हो, कि हम सब हरियाली का महत्व समझ सकें, और न केवल खुद को जीवन दें, बल्कि आने वाले समय के लिए भी एक सुन्दर पर्यावरण का निर्माण कर सकें..   खुशी हीरे-मोती के ढेर में नहीं है,
प्रकृति की सन्निधि में ही प्रसन्नता का भंडारण हुआ रहता है।                  


कैसी है ये मुस्कान...

                           मन को कुछ अच्छा लगता है , और हम मुस्कुराने लगते हैं | और फिर ढेर सारे  कॉम्प्लिमेंट्स .. जो कि उस मुस्कान को और भी बड़ा कर देते हैं |
                           कहते हैं, कि जो बेगानों  को भी अपना बना दे, वो होती है हमारी एक 'मुस्कान'. सिर्फ एक मुस्कान नयी दोस्ती की शुरुआत करने के लिए बहुत होती है. माता-पिता अपने बच्चों की एक मुस्कान के लिए क्या नहीं करते ! यहाँ तक भी कहा जाता है, कि मुस्कान आत्मा की  भाषा होती है | फिर एक अजीब सा विचार आता है मन में , कि क्या मुस्कान की भी कुछ श्रेणियां होनी चाहियें .. जैसे कि .. अमीर की मुस्कान, गरीब की मुस्कान, आकर्षक मुस्कान, साधारण मुस्कान, अनाकर्षक मुस्कान .. क्योंकि, भले ही हम लाख कह लें, लेकिन ये तो सच है, कि हम हर एक मुस्कान को अलग ढंग से ही स्वीकार करते हैं, और उसका अलग ही जवाब देते हैं | यानी कि, एक स्वाभाविक क्रिया का अस्वाभाविक उत्तर.. 
                           और यही सोच कर लगता है, कि जो मन के विशुद्ध भाव मुस्कान के ज़रिये हम ज़ाहिर कर रहे हैं, अगर उन में ही प्रत्युत्तर मिलावटी होगा, तो स्वाभाविकता का क्या मोल बचता है ..? एक नन्हा-सा बच्चा जब मस्ती से किलकारियां भरता है, तो उसके पास बैठा हुआ कोई भी उसे लाड लडाने लगता है |लेकिन बहुत बार ऐसा नहीं भी होता , जब वो बच्चा किसी गरीब का होता है, या फिर देखने में आकर्षक नहीं होता | 
                           ये सब देख-सोच कर एक सवाल मन में उठता है, कि क्या सचमुच वो मुस्कान ही  है, जो बेगानों को भी अपना बनाती है, या फिर रूप और धन..?? और फिर याद आता है, कि अब तो नया ज़माना है.. अब यहाँ मान-दंड बदल गए हैं. वो दिन अब नहीं रहे , कि जब मुस्कान में अपनेपन का जादू होता था.. अब उपभोक्तावाद का युग है.. सब कुछ चकाचौंध से ही अच्छा लगता है.. तो, छोड़ कर मुस्कुराना , पैसे की चमक-दमक का इन्तज़ाम करना ही समय की मांग है. क्योंकि हम भी तो दूसरों को तभी पसंद करते हैं न , जब वो हमें अपनी अमीरी का नशा दिखाते हैं.
                         लेकिन एक और भी नजरिया है.  आज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए, तो मुस्कान भी उपभोक्तावाद का एक संसाधन ही लगती है. आज का आदमी मुस्कान का निवेश वहाँ करना पसंद करता है, जहां से उसके कुछ 'लिंक्स' बन सकें..जिससे समाज में उसकी पैठ बन सके, और करियर का ग्राफ ऊपर उठ सके. और इस नज़रिए से देखा जाए, तो ... ठीक है, मुस्कान आज सफलता का छोटा रास्ता हो गया है. तो फिर सोचना क्या है, नहीं भूलेंगे इस मुस्कान को.. चलते रहेंगे अपने रास्ते पर, और जैसे ही कोई मौका नज़र आयेगा , खुद से ही कहेंगे, कि " मुस्कुराइए "
                           और मुस्कुरा देंगे फिर हम भरपूर आत्मीयता के साथ, ( झूठी ही सही) ... कौन जानता है, शायद हमारी ये एक मुस्कान ही हमारी 'लाइफ' बना दे.. !



Wednesday, 3 August 2011

ये सपनीली दुनिया . .

बहुत बार इस दुनिया के नज़ारे देखकर हैरानी होती हैं. इतनी बड़ी दुनिया, और एक मामूली पत्ते की भी शक्ल दूसरे पत्ते से जुदा.. इतनी विविधता..!! कैसे..!! कोई भी चकरा जाए..!!
जब एक पत्ता भी दूसरे पत्ते से मेल नहीं खाता, तो फिर भला इंसान-इंसान एक-से कैसे हो सकते हैं..! जितने लोग, उतनी बातें, और उतने ही विचार.. ! हर एक चेहरा दूसरे से अलग, कोई भी एक आँखों की जोड़ी दूसरी से हू-ब-हू नहीं मेल खाती..! पर एक समानता तो है..! सपने तो हर आँख 'एक' ही शिद्दत से देखती है..! भले ही आँखें नीली हों, या काली.. सागर-सी गहरी हों, या फिर इतनी महीन हों जो नज़र भी बमुश्किल आ पायें, सपने तो हर-एक आँख में बहुरंगी ही होते हैं. सच ये ही है, कि वो सपने ही होते हैं, जो एक आम ज़िन्दगी को खासियत देने का रास्ता बताते हैं. आँख वाले का नजरिया तो होता ही है सपना, साथ ही मन के अनकहे जज़्बात भी होते हैं सपने..!
बहुत बार जीवन में हम ऐसी पगडंडियों पर सफ़र कर रहे होते हैं, कि जब सामने आने वाले किसी राहगीर को देखकर एक विचार आता है, कि भला इसका भी कोई जीवन होगा..! हाँ.. हालात और मजबूरियाँ बेशक कभी-कभी किसी ज़िन्दगी को इतना क्लिष्ट कर देते हैं, कि आते-जाते अनजान लोग भी हिकारत की नजरों से देखते चले जाते हैं. पर हमारी स्थूल दृष्टि भला उनकी आँखों में पलने वाले नन्हे सपनों को कैसे जांच पाएगी..! अगर कभी हम उनके अकेलेपन के साथी बन देखें, उनका वो विश्वास जीत सकें, जिसे दुनिया से सिर्फ घात  मिल पायी है, तो फिर उनकी भी ज़बान के रस्ते कुछ सपनों को दुनिया की रौशनी देखने का मौका ज़रूर मिल पाए. पर वो बात अलग है, कि ये रौशनी उन सपनों को हकीकत का मुलम्मा चढाने के हिसाब से बहुत मद्धिम हुआ करती है..!
कभी-कभी ऐसा लगता है, कि बंद आँखों के सपनों पर तो बस नहीं है, लेकिन खुली आँखों से सपने देखने की भला क्या प्रासंगिकता है..? क्यों हम बुनते रहते हैं सपने, अरमान, और खुश होते रहते हैं इस सपनीली दुनिया में जीते हुए..!! 
और तब एहसास होता है, कि खुली आँखों में सपने हैं, तभी तो आँखें खोल कर देखी जा सके, ऐसी ये हकीकत है.. ! हम अपने सपनों को, अपनी चाहतों को आकार न दें, तो दुनिया में हम क्या देखना चाहेंगे..? बेशक, ये सपने ही तो हैं, जो दुनिया को हसीन बनाते हैं...! बशर्ते, कि इंसान उस जुम्बिश को ज़िन्दा रखे, कि जो सपनीली दुनिया से हकीकत का सफ़र करा सके. नहीं तो खुली आँख का हो, या चाहे बंद आँख का..वो सपना कभी न कभी टूट ही जाएगा..!!