Tuesday, 27 December 2011

ये त्योहार जिया जाए...


रेत के कणों को कितना भी कस कर कैद किया जाए, एक-एक कण करते-करते, आखिर मुट्ठी खाली हो ही जाती है, बस यूँ ही, एक-एक क्षण करते, आखिर पूरा बरस भी बीत ही जाता है. बचती हैं, कुछ सुहानी यादें, कुछ कसक, कुछ टीस, और कुछ योजनाएँ. हर एक बरस की यही तो कहानी है. इसी तरह के खट्टे-मीठे, रोमाँचक अनुभवों के साथ अपनी अंतिम रात्रि की ओर बढ़ रहा है ये बरस भी. 
बीता हुआ लम्हा कितना भी सुन्दर हो, या कितना भी दर्द-भरा हो, वो होता तो बीता हुआ ही है. और आने वाला लम्हा कितनी भी सुन्दर, झिलमिल योजनाओं से लिपटा हुआ क्यों न हो, अभी उसका रंग-रूप सामने आना बाकी होता है. जितना भी जीवन है, जो भी जीवन है, अभी, इसी पल में है. उन सुनहरी यादों की चमक है, तो इसीलिए है, क्योंकि तब वो पल भरपूर जिए थे. या कुछ कसक है, तो शायद इसलिए, कि शायद कुछ पल हम जीना भूल गए थे. यादों के मुलम्मे के नीचे एक सबक छिपा रहता है. मन यादों में ही अटा रह जाता है. और सबक ताज़िन्दगी ढका रह जाता है. और बस चार ही शब्दों का तो होता है ये सबक, कि 'भरपूर जियें हर पल!' 
सुन्दर भविष्य की योजनाओं के बिना सुन्दर भविष्य का निर्माण हो नहीं सकता. और बीते पलों के सबक के बिना सुन्दर भविष्य की योजनाएँ हो नहीं सकती. इस किताब का हर अगला-पिछला पन्ना एक-दूजे से बहुत ही कलात्मक रीति से जुड़ा हुआ होता है. हर एक पन्ने पर ही सुन्दर कार्य होगा, तब ही इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो पायेंगे. जाता हुआ बरस जैसा भी रहा हो, उसकी यादों को भूलने का, और उसके सबक को याद रखने का समय आ गया है. आता हुआ बरस सँवारने का समय आ गया है.
वैसे तो सँवारने का समय हमेशा ही होता है. जिस दिन चाहें, उसी दिन दिशा-परिवर्तन हो सकता है. तो फिर ठीक अभी क्यों नहीं? बड़े-बुज़ुर्ग कहा करते हैं, कि 'एक साल तो चक्की का एक फेरा भर होता है. अभी शुरू हुआ है, अभी ख़त्म हो जायेगा.' सच, इतनी ही तेज़ी से तो बहता है ये पलों का दरिया! ये बहता चला जायेगा, हम किनारे-खड़े देखते न रह जाएँ! इस प्रवाह की गति के साथ तालमेल बिठा लें. इस दरिया के पानी की कुछ बूँदें सिर्फ अपने नाम कर लें. अपने जीवन को एक सुन्दर लक्ष्य हम दें. कुछ ख़ास बनने के लिए कुछ ख़ास करना पड़ता है. और वो ख़ास क्या है, इन लम्हों में ज़रा सोच कर देख लें! क्यों न किसी के अँधेरे जीवन में रौशनी भरने के ही लिए कुछ किया जाए! 
जाते बरस की अंतिम रात्रि शोर-शराबे में बिताने के बजाय आते बरस की प्रथम प्रभात का प्रसन्नतापूर्वक आभार किया जाए..! किसी वंचित को उसका एक सपना उपहार दिया जाए..! और जीवन का ये त्योहार जिया जाए..!

Wednesday, 21 December 2011

मेरी धरती, या वो तारा...

आसमान के तारे निहारने का एक लम्बा तजुर्बा है मुझे. ऐसा लगता है, कि कई जन्मों का लगाव चल रहा होगा मेरा तारों के साथ! तारे निहारते-निहारते कभी-कभी तो ऐसा भी लगता है, कि कुछ तारों क साथ मेरी कुछ पहचान-सी हो गयी है. उनसे निकलने वाली धवल-नीली रौशनी अपनी-अपनी लगती है. कभी -कभी तारों की ज़मीं छूने का मन करता है. उस रौशनी में खो जाने की ख्वाहिश होने लगती है. यहाँ, मेरी दुनिया में तो बहुत मन नहीं लगता मेरा..! जल्दी-जल्दी बदलते मौसम, और उससे भी जल्दी बदलते मिज़ाज! मेरी दुनिया अब कुछ मैली-मैली सी लगती है. कब दोस्त दुश्मनों में बदल जाएँ, कुछ पता ही नहीं! भावनाएं मानो किसी सुरक्षित स्थान पर तालाबंद कर दी गयी हों. किसी के हाथों में सौंपा हुआ हमारा विश्वास यहाँ किसी भी पल चूर-चूर हो सकता है. सुन्दर, रोशन चेहरे तो हमारे यहाँ भी होते हैं, पर वो रौशनी, वो सुन्दरता सिर्फ थोपी हुई होती है, सतही होती है. 
उस ऊपरी सतह के पीछे का सच भी हालाँकि भयानक तो नहीं होता. पर फिर भी, सच्चाई में जीना पसंद ही नहीं किया जाता अब मेरी दुनिया में. नयेपन के युग में, सच्चाई को पुरानेपन का दर्जा दिया जा चुका है. और पुरानी चीज़ें तो एक झटके में ही अस्वीकृत कर दी जाती हैं. कहीं खुलेआम विषवमन किया जाता है, तो कहीं पीठ में छुरा घोंपा जाता है. मेरी दुनिया में न तो अब पीने को निर्मल पानी ही मिलता है, और न ही साँस लेने को शुद्ध हवा. सब कुछ मिलावटी हो चुका है. यहाँ की ज़मीं पर भी अब उतना विश्वास नहीं रहा. कभी भी भूचाल आ जाता है यहाँ. असुरक्षा से भरा हुआ है जीवन इस दुनिया में. इसलिए, टिमटिमाते हुए तारे देखते हुए, मेरी आँखें भी आशा से टिमटिमाने लगती हैं. वहाँ न तो कोई पीठ पीछे वार करने वाला होगा, और न ही कोमल भावनाओं पर निष्ठुर प्रहार करने वाला कोई होगा. 
वहाँ की हवा, पानी में अप्राकृतिक तत्व नहीं होंगे. सब कुछ विशुद्ध होगा. और विश्वसीय भी. पर एक बात, जो अभी-अभी मन में प्रकाशित हो रही है, मुझे कुछ सोचने पर मजबूर कर रही है. वहाँ कोई अपने तो होंगे ही नहीं!
तो क्या अपनों के बिना वो तारे, वो रौशनी मुझे सचमुच लुभा पायेंगे? दो टूक जवाब है, 'बिलकुल नहीं'. हाँ, मैली-मैली सी हो तो गयी है दुनिया मेरी, पर अपनों का साथ हो, तो कठिन से कठिन रास्ते भी आसान हो ही जाते हैं.और फिर, मैली हो भी गयी है तो क्या हुआ! हम यत्न करेंगे, इसे फिर से सुन्दर बनाने का! यों भी, दूसरे का महल कितना भी सुन्दर, और आरामदायक क्यों न हो,और हमारे हिस्से में झोंपडपट्टी ही क्यों न आई हो, सुकून तो अपने घर में ही होता है. मेरी धरती ही मेरा स्वर्ग है.

Tuesday, 13 December 2011

पहेली ही है जीवन...

पहेलियाँ बुझाना मुझे बहुत अच्छा लगता है, चाहे वो शब्दों की हों, या गणित की. एक तरह की खुजली ही होती है ये भी. जब तक सही उत्तर न मालूम हो जाए, चैन नहीं आता. फिर भले वो खुद ही मिल जाए, या किसी विशेषज्ञ की सहायता ली जाए. वैसे, अगर सही प्रक्रिया का ज्ञान हो, तो दिखने में मुश्किल पहेलियाँ भी चुटकियों में हल हो जाती हैं. पर एक पहेली ऐसी भी है, जिसको बुझा पाना मेरे लिए तो आज तक संभव नहीं हो पाया.
जीवन नामक ये पहेली बड़ी ही अजीब है. कई रास्तों से घूम-घूम कर इसकी विषयवस्तु, और प्रक्रिया समझने की कोशिश की. तथाकथित विशेषज्ञों के विचार जानने के प्रयास किये. पर परिणाम, वो तो और भी उलझाने वाले! कहीं-कहीं जीवन का रूप इतना सरल और मनोहर नज़र आता है, कि भाग्यवादी होने का मन होने लगता है. आवश्यकता से पहले ही मनचाही वस्तु सामने आ जाया करती है वहाँ. वो रूप देखकर लगता है, कि सचमुच, ईश्वरीय वरदान ही तो है जीवन! और तभी, जीवन के किसी दूसरे रूप से मुलाकात हो जाती है, जहाँ कोशिशें बहुत होती हैं. दिन-रात दिमाग के घोड़े दौड़ाना, अवसर खोजना. और नतीजे भी अच्छे ही दिखते हैं. जहाँ निशाना लगाया था, तीर ठीक वहीँ जाकर लगा. इस रूप को देखकर यकीन हो आता है,  कि कर्मक्षेत्र है ये जीवन. और इस कर्मक्षेत्र में जितना गहरा गोता होगा, उतने ही महंगे मोती मिलेंगे. ये देखकर, वो पहेली थोड़ी-बहुत सुलझने लगती है. पर अचानक ही, किसी दिन, किसी रस्ते पर जीवन का एक नया रूप दिख जाता है. दिन भर पसीना बहाना, सर्दी-गर्मी-तबीयत-हालात, हर बहाने को किनारे लगाकर, मुसीबतों के साथ रस्साकशी करना! और दिन के अंत में, प्याज के संग सूखी रोटी, हलक से उतारना! ज़िन्दगी भर गद्दे वाले पलंग पर सोने का सपना-भर देखना! वैसे किस्मत कभी-कभी अपनी पैंतरेबाजी दिखाती है इनके साथ भी! कोई झुग्गी का बच्चा अंतर्राष्ट्रीय फिल्म का कलाकार बन जाता है, तो कभी कोई किसी गहरी सुरंग में गिरकर राष्ट्रीय सुर्खियाँ प्राप्त कर लेता है. और ऐसे इक्का-दुक्का को देखकर बाकी के ढेरों चेहरे उस भाग्य की ओर ताकने लग जाते हैं, जो युगों से मुँह फेरकर बैठा होता है इनसे. देश में विदेशी धन के निवेश का प्रश्न हो, या राज्यों के टुकड़े होने पर बहस हो, इनके हाथों की नियति तो झाड़ू-पोंछा ही रहनी है. जीवन का ये रूप देखकर, पिछले दोनों रूप भ्रामक लगने लगते हैं. और तभी, एक चौथा रूप सामने आ जाता है. उन लोगों का, जो भाग्य की मार तो खाए ही होते हैं, पर कर्म का भी आश्रय नहीं लेते. शायद उनका भी कोई दृष्टिकोण होता हो इसके पीछे, या शायद कुछ कटु अनुभव रहे हों, जो उन्हें सामान्य पटरी पर आने न देता हो!
इन चार रूपों को देखने-जानने के बाद, कुछ उत्तर तो नहीं मिलता जीवन की पहेली का. बस इतन ही सही लगता है, कि भाग्य अनुकूल हो न हो, कर्म का प्रतिफल मिले न मिले, जीवन रूकता कभी नहीं है. तो हम भी बस कोशिश करते रहें, चलते रहें! शायद किसी मोड़ पर जीवन के कदमों के संग हमारे कदम भी मिल ही जाएँ...!

Tuesday, 6 December 2011

हर फ़िक्र को धुंए में…

जिंदादिली का एक अनूठा दीपक आखिरकार शांत हो गया. एक सदाबहार अभिनेता, जिसे उम्र की कोई बंदिश कभी रोक न पायी, आखिरकार जीवन की यात्रा के चरम पर पहुँच ही गया. और अपने प्रशंसकों के लिए छोड़ गया एक रिक्तता, जिसे कभी कोई नहीं भर सकता. एक पूरा सुनहरा युग अपने बेजोड़ अभिनय, और निराले जीवन के ढंग से अपने नाम कर गए, ‘देव आनंद’. मैंने उस युग को खुद तो नहीं देखा है, पर सुना, पढ़ा, और जाना ज़रूर है.
बताया जाता है, कि कॉलेज में कर्फ्यू का माहौल हो जाता था, जिस दिन देव आनंद की नयी फिल्म रिलीज़ होती थी. उनकी फिल्मों का सुरूर ऐसा होता था, कि ‘फर्स्ट डे फर्स्ट शो’ न देख पाना युवाओं के लिए निराशा का कारण हो जाता था. और हर एक बार, प्रशंसकों की अपेक्षाओं पर खरे उतरना हर एक के बस की बात तो नहीं होती. पर देव आनंद का तो ये ख़ास शउर था. और बात अगर फ़िल्मी रील की ही होती, तो शायद इतनी बड़ी भी न होती. पर उनकी सक्रियता, संगीतमयता तो उनके जीवन के हर पहलु में नज़र आती थी. ‘हर फ़िक्र को धुंए में उड़ाता चला गया’ गीत को अपने मस्तमौला अंदाज़ से अमर कर देने वाले देव आनंद सचमुच ज़िन्दगी का साथ निभाने वाले एक अनोखे कलाकार थे. उम्र के इस पड़ाव पर भी उनकी सृजनात्मकता थम नहीं पायी. व्यावसायिक असफलताओं के तो कुछ मायने ही नहीं थे उनके लिए. और इस तरह, उनका जीवन लगातार इसी भावना से भरा रहा, कि बाहरी शान से बहुत ज़्यादा मायने हैं अंदरूनी शान के. ‘शानदार जीवन’, ये शब्द तो बना ही जैसे देव आनंद के लिए है.
पर उनके निधन की खबर मिली, तो चंद शब्द जो सुने, मुँह से खुद ही निकल गया, कि उनकी मृत्यु भी कम शानदार नहीं थी. मालूम हुआ, कि अंतिम समय में उनके पुत्र उनके साथ थे. आज जिस दौर में हम जी रहे हैं, वहाँ बेगानों की कमी हो या न हो, अपनों की कमी होना एक आम बात है. और वृद्धाश्रमों की बढती संख्या तो इसका प्रकट प्रमाण है ही. नन्हे पौधे-सा एक बच्चा, जिसे प्रेम, और संरक्षण के जल से सींच कर एक सघन पेड़ बनाया होता है, अंतिम समय में उसकी छाया मिलना आज के युग में परम सौभाग्य से कम नहीं होता. बड़े होते-होते, उस पेड़ को शायद वो झुर्रीदार हाथ बदसूरत, और बुरे लगने लगते हैं. वो भूल गया होता है, कि अगर ये हाथ तब उसके साथ न होते, तो शायद वो पौधा बचपन में ही मुरझा गया होता. पर उस पेड़ की छाया की छाया से देव आनंद का अंतिम समय महरूम नहीं रहा. इससे ज्यादा खुशनुमा मृत्यु और क्या हो सकती है! ऐसे में, उनका सौभाग्य न केवल सराहनीय है, पर ईर्ष्या के भी योग्य लगता है, जिसमे  सफ़र भी शानदार था, अंदाज़ भी शानदार, और अंजाम भी शानदार..!

Friday, 2 December 2011

समाचार पत्रों में प्रकाशित लेख. ( दिसम्बर माह )

 समाचार-पत्रों में प्रकाशित लेख(दिसम्बर माह)
                                   
                                     
                                                               
                       
                                          
                                    

Wednesday, 30 November 2011

सर्दी का रोमांच


बहुत-से लोग आजकल चहकते हुए मिलते हैं. क्योंकि सर्दियाँ, यानी कि, उनका मनपसंद मौसम जो आ गया है. गाल गुलाबी होने लगे हैं. रंग-बिरंगे ऊनी कपडे संदूकों से बाहर निकल चुके हैं. मोटा कपडा पहनने, और मोटा अनाज खाने का यही तो समय है. इसलिए, मक्की, और बाजरे की रोटियाँ भी तवे पर सिकने लग गयी हैं. इस मौसम की बहुत-सी बातें ख़ास होती हैं.  शाम ढलते-ढलते हवाओं में धुँध शामिल होने लगती है. जब ये धुँध की चादर किसी प्रकाश के स्रोत पर छा जाती है, तो वो तेज़ रौशनी भी मद्धिम होकर बहुत सुन्दर लगती है. कहीं गर्म मूंगफलियों की सुगंध उड़-उड़ कर लोगों को न्योता देती है, तो कहीं भुनी हुई शकरकंद भी ऐसा ही कुछ जादू दिखाती है. हलवाइयों की दुकानों पर मिठाइयों के नए-नए रंग नज़र आने लगते हैं. गाजरपाक, मूँग का हलवा, और सोहन हलवा जैसे कितने नाम सर्दी के जायके के साथ पता नहीं कब से जुड़े हुए हैं.
कुछ लोगों को तो सर्दियों का इंतज़ार इसलिए भी रहता है, क्योंकि एक-दूसरे पर बर्फ के गोले उड़ाने का भी तो यही समय होता है. पहाड़ी इलाकों पर, जहाँ हिमपात होता है, इस मौसम में जाना मनपसंद शगल होता है ऐसे लोगों के लिए. एक बात और भी है. कहते हैं, कि जितनी कड़ाके की ठण्ड पड़ेगी, उतना ही खेतों में सोना बरसेगा. यानी कि, ठण्ड जितनी ज्यादा होगी, गेहूँ का सिट्टा उतना ही सुन्दर पकेगा. और तभी, ये भी एक ख़ास कारण हो जाता है, कृषि-प्रधान संस्कृति वाले लोगों के लिए, ठण्ड का स्वागत करने का. इतना ही नहीं, सर्दी के आने से गर्मियों में लुका-छिपी खेलने वाली बिजली-देवी के नाज़-नखरों से भी राहत मिल जाती है. बस कुछ अच्छे गर्म कपडे हों, फिर तो सर्दियों का मज़ा ही न्यारा है. 
वैसे, क्या आप बिना गर्म कपड़ों, और रजाई के, एक सर्दी की कल्पना कर सकते हैं? हालांकि अभी तो सर्दी का आग़ाज़-भर ही हुआ है. एक दिन इस सर्दी के साथ, बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के, मुलाक़ात कर के देखेंगे आप? अजीब लग रहा है बताते हुए, पर मैंने की है ये कोशिश. 'कंपकंपाने' वाला एक अनुभव कह सकते हैं इसे. दरअसल, मुझे ये जानना था, कि किसी गरीब-फटेहाल आदमी के लिए सर्दी का रोमांच कैसा होता है. और, इस छोटे-से प्रयोग के बाद, मुझे एक बात तो अच्छी तरह समझ में आ गयी. कि सदियों के मौसम में एक गरीब आदमी, जो कल तक जीवित था, रातोंरात अखबार की एक खबर में क्यों सिमट जाता है. 
माघ के महीने में ज़रूरतमंद को कम्बल आदि दान करना महापुण्य कहा जाता है. आप में से भी बहुतों ने शायद ऐसा महापुण्य अर्जित करने का मन बना रखा होगा. मुझे लगता है, कि तब बांटने से अच्छा, वो कम्बल अभी ज़रुरतमंदों तक पहुँच जाएँ. पुण्य-राशि तो शायद थोड़ी कम हो जाएगी, पर किसी की जान की कीमत के आगे, वो नुकसान कुछ भी नहीं. 

Wednesday, 23 November 2011

ये बार्बी-डॉल संस्कृति..

क्या बच्चों के खिलोने भी हमारी मानसिकता को प्रभावित कर सकते हैं? शायद नहीं. पर इस वक़्त, मुझे ऐसा लग रहा है, कि शायद हाँ! आज से कुछ ही साल पहले की तो बात है, जब बच्चे गोल-मटोल गुड़िया के साथ खेलते हुए नज़र आया करते थे. 'गुड़िया-पटोला' कहते थे उस खेल को, और अकेले ही खेल-खेल कर खुश होते रहते थे प्लास्टिक की गुड़िया के साथ. उसकी खुलती-बंद होती आँखें उसकी जीवन्तता का भ्रम कराती थी, और बच्चों की सपनीली दुनिया वहीं से शुरू हो जाती थी. जितनी प्यारी, और गोल-मटोल वो गुड़िया खुद होती थी, उतने ही नटखट, और चंचल होते थे, उससे खेलने वाले बच्चे. और इतने में ही गुड़ियों का संसार बदलने लगा.
उस मटकती नीली-आँखों वाली गुड़िया की जगह आ गयी पतली, लम्बी, छरहरी 'बार्बी डॉल'. इस बार्बी डॉल की भाव-भंगिमाओं में कहीं कोई बचपना नहीं, कोई भोलापन नहीं. बस विमान-परिचारिकाओं की-सी, 'कृत्रिम मुस्कान'! और हैरत की बात तो ये है, कि जब से ये बार्बी डॉल आई है, तब से बच्चे भी बदलने लगे हैं. आज के किशोरों पर तो दुबले-पतले दिखने का भूत सवार है. संतुलित आहार तो दूर ही बात है, भोजन पर नियंत्रण उनके लिए ज्यादा ज़रूरी है. 
और ऐसे में, जिस वर्ग पर दबाव आ रहा है, वो है उन बच्चों का वर्ग, जो प्राकृतिक रूप से हृष्ट-पुष्ट हैं. लेकिन समाज उन्हें 'मोटा' कहकर पुकारता है. वैसे ये समस्या सिर्फ हमारे देश की नहीं है, आज तो वैश्विक स्तर पर इस प्रकार के अनुभव किये जा रहे हैं. सच तो ये है, कि हर एक बच्चे को प्राकृतिक रूप से ही एक काया-प्रकार प्राप्त होता है. लेकिन ये हृष्ट-पुष्ट बच्चे, या फिर उनके माता-पिता चाहते हैं, कि इस 'बार्बी-डॉल संस्कृति' में ये बच्चे भी दुबले-पतले दिखने लगें. अब चूँकि ऐसा किसी के चाहने भर से तो हो नहीं जाता. नतीजा, ये असंतोष धीरे-धीरे उन बच्चों पर हावी होने लगता है. और वो पतले तो हो नहीं पाते, पर निर्जीव, और कुम्हलाये-से ज़रूर दिखने लगते हैं. 
प्राय: मेरे देखने-सुनने में आता रहता है, कि मेरी किसी सखी ने वज़न कम करने के लिए आहार-नियंत्रण, अथवा जिम-इत्यादि का प्रयोग किया. वज़न का तो क्या ही बिगड़ना था, हाँ, रक्त-शर्करा की मात्रा में गिरावट आ गयी. या फिर रक्तचाप, चक्कर आने जैसी समस्याओं ने सिर उठा लिया. निजी राय दूँ, तो मुझे तो ऐसा बिलकुल नहीं लगता, कि पतलेपन की होड़ किसी को सुन्दर बना पाती हो. हम जैसे भी हों, खुद से प्रेम करने लगें, तो हम अपने आप ही आकर्षक हो जाते हैं. 
जिस समस्या का हम समाधान चाह कर भी नहीं ढूंढ पा रहे हैं, क्यों न उसे प्रेमपूर्वक स्वीकार ही कर लें! अपने घरों से नकली मुस्कान वाली बार्बी डॉल को निकाल कर गोल-मटोल चहकती  गुड़िया ले आयें! दुनिया सुन्दर हो जाएगी.

Tuesday, 15 November 2011

दुनिया के समंदर में...


 एक कुशल तैराक की परीक्षा तो पानी में उतरने के बाद ही हो सकती है. रेत पर कोई चाहे, तो बेशक तैराक की तरह हाथ-पैर चला ले! पर इतने भर से, उसकी तैराकी सिद्ध नहीं हो पाती. हम लोग भी, किताबें पढ़-पढ़ कर, कर्तव्य-अकर्तव्य की बातें तो खूब दोहरा लेते हैं. पर हकीकत की ज़मीन पर खड़े होने के बाद, उन शब्दों को याद-भर कर पाना भी मुश्किल हो जाता है कभी-कभी!
कुछ दिन पहले मेरा चॉकलेट खाने का मन किया. दुकान पर पहुँचते ही, एक सात-आठ साल का बच्चा दिखा. हाथ में कटोरा था, जो उसने मेरी ओर बढ़ा दिया. पढ़-सुन रखा है, कि भिक्षा-वृत्ति को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए. इसलिए, मैंने उसे अनदेखा कर दिया. पर वो भी जैसे, ठान कर ही खड़ा था. जिद करने लगा कि, "पैसे दे दो, पैसे दे दो". परेशान होकर मैंने पूछा कि, "क्या करेगा पैसों का?" और वो बोला, "पटाखे लूँगा". "पटाखे जलाना अच्छी बात नहीं होती", कहकर मैंने उसे टालने की कोशिश की. पर वो तो, मानने वालों में से था ही नहीं. बोला, "भूख लगी है. सुबह से कुछ नहीं खाया". दोपहर हो रही थी उस वक्त. एक पल के लिए मन में विचार आया, कि झूठ बोल रहा होगा. पर दूसरे ही पल ये लगा, कि कहीं सच बोल रहा हो तो..! और ज्यादा तर्क-वितर्क न करते हुए, मैंने उसे कुछ पैसे दे दिए. पैसे लेकर जब वो जाने लगा, तो जाने क्यों, मेरी आँखें उसका पीछा करने लगी. हैरत! वो भी मुड़-मुड़ कर बार-बार देखता. अब मुझे शक होने लगा, कि कहीं ये पैसों का कुछ दुरूपयोग न करना चाहता हो..! और मुझे अपने ऊपर अफ़सोस होने लगा. लेकिन अब क्या हो सकता था!
इस बात को बमुश्किल एक हफ्ता गुज़रा होगा, जब मुझे रास्ते पर चलते हुए एक गरीब बच्ची मिल गयी. इतनी प्यारी, कि उसे देखते ही मेरे मुँह पर मुस्कान आ गयी. और वो मुस्कान थी, या उसके लिए हरी झंडी! वो तो दुगने वेग से मुस्कुराई, इस आशा के साथ, कि आज का दिन तो बन गया. उसकी आँखों की टिमटिम मुझे आज भी याद है. पर मुझे वो पिछला संस्मरण भी अच्छी तरह याद था. मैंने उसे आगे बढ़ने का इशारा कर दिया. उसने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे रोकने की कोशिश की. हाँ, ये शायद मेरी उस मुस्कान का ही किया-धरा था. पर इस बार मेरा बचाव-तंत्र मज़बूत था. "गलत बात है माँगना", कहकर मैंने हाथ छुड़ा लिया. 
अगले दिन, उसी रास्ते से निकलते हुए, फुटपाथ पर बैठी उसी बच्ची को मैंने देखा. और एक ही पल में मुझे उसकी पहचान आ गयी. उसकी आँखों की मायूसी बता रही थी, कि उसने भी मुझे पहचान लिया है. मैंने मुँह दूसरी ओर घुमा लिया. इस बार मैंने ठीक वही किया था, जो मेरी समझ में सही था. पर तब भी, कुछ अनकहा-सा, अनसमझा-सा अफ़सोस खुद पर हो रहा था.  सच, इस दुनिया के समंदर में तैर पाना बहुत मुश्किल है.  

Tuesday, 8 November 2011

बातों की बातें..


एक बहुत अजीब-सी बात है. कि ये बातें क्या होती हैं. बिना किसी बात के बातें शुरू हो जाती हैं. और बातों-बातों में, पता नहीं, कितनी बातें बन जाती हैं. कहते हैं, कि दुनिया का हर एक काम कहने में और करने में बड़ा फर्क होता है. सिवाय बातों के. बातें कहने और करने में कोई अंतर नहीं है.  तब, क्या बातें करना इतना ही आसान है, जितना दीख रहा है? जवाब है, बिलकुल नहीं. अगर दोस्ती की शुरुआत बात करने से होती है, तो दोस्ती को अलविदा भी कहला सकती हैं ये बातें. यूं भी कहा जा सकता है, कि "सावधानी हटी, दुर्घटना घटी." 
बातों पर मेरे ये विचार दरअसल निष्प्रयोजन नहीं हैं. अपने आस-पास की बातें इस सब पर सोचने पर मजबूर करती हैं. बहुत बार लोग अपनी अक्षमताओं को छिपाने के लिए अपनी वाक्पटुता का आश्रय लेते हैं. " देखा जाएगा-ऐसा कह देंगे-वैसा कह देंगे-बना लेंगे कोई कहानी..", जैसे शब्द आम सुनाई देते हैं हम लोगों को. सुनाई क्या देते हैं, हम ही तो बोल रहे होते हैं असल में..! सामने वाले का विश्वास जीत पाना वैसे कोई इतना मुश्किल काम नहीं होता. चार लच्छेदार बातें बनाई, और बस. विश्वसनीयता हासिल कर ली! लेकिन इस विश्वसनीयता को बनाये रखना कतई आसान नहीं है. वो लच्छेदार बातें एक-दो बार तो भरमा सकती हैं हमें, पर एक सीमा के बाद नहीं. अनुभव की बात है, कि वाक्पटुता से झूठ को सच तो कभी नहीं बनाया जा सकता. सिर्फ इतना है, कि अपने शब्दों के लपेटे से सामने वाले को निरुत्तर कर देते हैं हम.  वैसे,  ये सब तो वो बातें हैं, जो हम सभी के ही निजी अनुभव का हिस्सा हैं. कभी हम ऐसा कहने वाले बने होते हैं, तो कभी सुनने वाले की भूमिका निभा रहे होते हैं.
 लेकिन ऐसा करते हुए हम दूसरों के मन में अपने प्रति सम्मान भी खो देते हैं. तब भी, हमारा इन बनावटी बातों के प्रति लगाव ख़त्म नहीं हो पाता. अब, मुझे तो दो ही कारण समझ में आते हैं, इस व्यवहार के. या तो हम सिर से लेकर पैर तक बनावटी हो चुके हैं, या फिर वाक्पटुता के उन्माद से ग्रस्त हो गए हैं, और वो भी, बिना ही उसका मर्म समझे. और मेरे नज़रिए से, वाक्पटुता तो तभी सिद्ध कही जा सकती है, जब हमारे साथ बैठा व्यक्ति आयु का भेद भूल कर हमारा मित्र हो जाए. एक नन्हा बच्चा भी हमारे साथ बतियाते हुए, उतना ही आनंदित अनुभव करे, जितना कि एक वयोवृद्ध. पराये भी अपने बन जाएँ! ज़मीन पर तो बहुतेरे लोग घर बना चुके हैं. किसी के मन में जगह बना पाना हर एक के बस की बात नहीं है..! क्यों न, वाक्पटुता से इसी लक्ष्य को साधा जाए..!   

समाचार पत्रों में प्रकाशित लेख. ( नवम्बर माह )

 समाचार पत्रों  में प्रकाशित लेख. ( नवम्बर माह )
                                
                                 
  
                                                        
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Tuesday, 1 November 2011

विश्वविद्यालय के गलियारे से..

शिक्षा के क्षेत्र में 'विश्वविद्यालय' की परिकल्पना मुझे बहुत अच्छी लगती है. एक ऐसा विद्या-मंदिर, जहां विश्व-स्तरीय योग्यता एकत्रित हो, ताकि विश्व-स्तरीय प्रतिभा उत्पादित की जा सके. जहां ज्ञान स्थानीय सीमाओं में ठहरा हुआ न हो, बल्कि उसमे हर दिन एक नए लक्ष्य को भेदने का सामर्थ्य हो.  छात्र-छात्राएं न केवल किताबों की बातें कुशलतापूर्वक समझ पायें, अपितु अलग-अलग संस्कृतियों से जुड़ते हुए, सुन्दर, सभ्य जीवन जीने का व्यावहारिक सूत्र भी समझ सकें. ऐसा चहुमुखी विकास जहां हो सके, वो है विश्वविद्यालय.  और ऐसे में, विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना, मेरे लिए तो आँखों के जुगनुओं को  जगाने के जैसा ही था. अपनी विश्वविद्यालीन शिक्षा के दौरान अक्सर ही मुझे बहुत से स्मरणीय अनुभव होते रहते हैं. और उनमे से एक 'उच्च-कोटि' का अनुभव जो मन की गहराई तक अंकित है, बाँटने की इच्छा है.
कुछ दिन पहले की बात है. पुस्तकालय में मुझे कुछ काम था. एक और छात्रा भी आने वाली थी. इसलिए बाहर खड़े होकर ही उसका इंतज़ार करना शुरू किया. अब अकेला खड़ा इंसान और क्या कर सकता है! इधर-उधर नज़रें घुमानी शुरू कर दी, किसी नयेपन की तलाश में. और एक कोने में जाकर नज़रें टिक गयी. सात-आठ छात्र-छात्राएं एक समूह में खड़े थे, गप्पें लड़ाते हुए. उनकी हंसी-ठिठोली की आवाज़ सुनना अच्छा लग रहा था. वैसे देखा जाए, तो विश्वविद्यालय के गलियारों की रौनक ही छात्रों की चहकती आवाज़ से होती है. इसी हँसी-खेल के बीच, एक छात्रा सामने देखते हुए बोली,  कि " देखो, विन्नी आ रहा है सामने से." 
और सबकी निगाहें उस सामने से आ रहे उस विन्नी नामक छात्र पर जा लगी, जो उनका मित्र था. उसी समूह में से एक छात्र बोला,  कि" चलो, इसकी ओर घूर-घूर कर जोर-जोर से हँसते हैं. शर्मिंदा हो जायेगा, बहुत मज़ा आएगा." और फिर क्या था, वो सब 'विश्वविद्यालय' के छात्र, बिना ही किसी बात के, विन्नी की ओर देख-देख कर हँसने लगे, ताकि उसका आत्मविश्वास, और आत्म-संतुलन गड़बड़ा जाए. मेरी नज़रें चुपके से विन्नी की ओर घूम गयी. अब ये विन्नी महाशय भी बड़े सूरमा निकले. शर्मिंदा तो क्या ही होना था, वो भी सुर में सुर मिला कर जोर-जोर से हँसते हुए उन सब की तरफ बढ़ने लगे.
उस टोली की हरकत को बूझते हुए, विन्नी ने अपना आत्म-नियंत्रण नहीं खोया, और उनकी योजना पर पानी फेर दिया. ये विन्नी, जो मेरे लिए एक अजनबी था, एक गज़ब की सीख दे गया मुझे. कि अगर इस दुनिया में ठीक तरीके से रहना है, तो आत्म-नियंत्रण की रणनीति तैयार रखनी चाहिए हर एक पल.  दुनिया की आँख का पानी तो सूख ही चुका है! अपने साथ उठने-बैठने वाले भी हमें शर्मिंदा करने में गौरव का अनुभव करते हैं यहाँ. और इसीलिए, हर पल चौकन्ना रहने की सख्त ज़रूरत है यहाँ.
एक सवाल भी, हर बार की तरह उठा मन में. कि जब अपने साथ रहने वालों के लिए ही स्वीकृति नहीं बना पाए हम अपने मन में, हर एक कदम पर  हम केकड़ों की तरह अपने ही दोस्तों को गिराने की कोशिश में लगे रहते हैं, वो भी उच्च-शिक्षा लेते हुए! तो भला हमारे देश का निकट भविष्य सुखद कैसे होगा, जब भविष्य के कर्णधार ही सही आचरण से दूर हैं! अपने-अपने मोर्चे पर जब तक हम गलत करना नहीं छोड़ेंगे, तब तक सामने से सही की उम्मीद करना भी तो एक गलती ही है न..! 
विश्वविद्यालय के गलियारे की ये एक छोटी-सी घटना दरअसल ज़िन्दगी का एक बहुत बड़ा पाठ है...!

Friday, 21 October 2011

दीपावली की वेला में ..

बस, आने ही वाली है दीपावली. इतनी करीब है इस वक़्त तो, कि इसकी पायल की छन-छन तो सुनाई भी देने लगी है. हवाओं में दो ख़ास तरह की गंध फैली हुई है. एक है पटाखों की, और दूसरी रंग-रोगन की. किसी भी गली-कूचे में मुड़ जाएँ, इन दो में से किसी एक गंध से तो मुलाकात हो ही जाती है, दीपावली के पखवाड़े में. और इस बार, रंग-रोगन की गंध मेरे इर्द-गिर्द कुछ ज़्यादा ही फैली हुई है. कारण, हमारे ही मकान के नवीनीकरण का काम जारी है. सुन्दर दिखने के इस युग में भला आज कौन पीछे रहना चाहता है? और पिछले कुछ समय से हमें कुछ ऐसा महसूस हो रहा था, ज्यों हमारा मकान उन सब मकानों से कुछ रश्क-सा कर रहा है, जिन्हें उनके मालिक दीपावली के स्वागत में दुल्हन की तरह सजाया करते हैं. इसलिए, मकान के सौन्दर्य-प्रसाधन, यानि कि, रंगों का इंतजाम किया गया. और इसके साथ ही, मेकअप -आर्टिस्ट, यानि कि पेंटर का भी. 
अब चूंकि नवीनीकरण घर के अन्दर होना है. तो सुरक्षा की दृष्टि से, अजनबियों का घर में रहना भी कोई सही बात नहीं है. इसलिए, दो ऐसे लोगों को इस काम के लिए बुलाया गया, जिनके साथ हमारे परिवार की पुरानी जान-पहचान है. एक दीपू, और दूसरा संजय. पर ये दोनों लोग, एक दूसरे के लिए पूरी तरह अजनबी थे. एक देश के पूर्वी हिस्से का, तो दूसरा उत्तर भारत का. हैरत का आलम तब शुरू हुआ, जब इन दोनों ने, पहले ही दिन एक दुसरे को बड़े भाई-छोटे भाई कहकर बुलाना शुरू कर दिया. बिना किसी औपचारिकता के, मिलते ही इन दोनों की दोस्ती की पुख्ता शुरुआत हो गयी. दिनभर काम करते-करते, हाथ तो इन दोनों के बीसियों बार रूक जाते होंगे, पर ज़बान, उसे तो एक पल का भी आराम नहीं. ऐसा भी कह सकते हैं, कि मानो बरसों भर से बातें संजो कर रखी हों दोनों ने, एक दूजे का इंतज़ार करते हुए. एक भी दिन किसी कारण से दीपू की छुट्टी हो जाए, तो संजय मुंह लटकाए मिलेगा. और अगर संजय पैदल चलकर आया होगा, तो दीपू उसे अपने साइकिल पर घर तक छोड़ कर आएगा. 'पक्की दोस्ती'.. यही नाम दिया जा सकता है इन दोनों के इस आपसी तालमेल को देख कर. हमारे घर में इस बात पर तो आजकल शायद कम चर्चा होती है,  कि किस दीवार पर कौन-सा रंग ज्यादा खिलेगा. पर ये बात ज्यादा होती है, कि ये दोस्ती, दीपू और संजय की, न्यारी है..!
और एक विचार जो आये बिना रह ही नहीं सकता मन में, इस दोस्ती को देख कर. वो ये है, कि ऊंचे तबके के लोगों को तो दोस्ती करने में, घुलने-मिलने में, और फिर उसे निभा पाने में, एक लम्बा समय लग जाता है. पर तब भी, आत्मीयता का कोई भरोसा नहीं. नाज़-नखरे, नुक्ता-चीनी, और पता नहीं क्या-क्या..! अपवाद छोड़ दें, तो एक-दो भरोसे के दोस्त होना भी बड़ी बात होती है अमीर समाज में. साफ़-सा झांकता हुआ मतलब है, कि  इंसान पैसे के मामले में जितना ऊँचा उठता जाता है, सम्बन्ध निभा पाने में उतना ही कमज़ोर होता चला जाता है. इसका कारण, कि हम लोग अब रिश्तों को भी बाज़ार में बिकने वाली दूसरी चीज़ों की तरह हरे काग़ज़ों से खरीदा जा सकने वाला समझने लग गए हैं.  और यही बड़ी भूल है हमारी. 
यही तो कारण है, कि एक अदद अजनबी को भी घरों में घुसाने से पहले हम सौ बार सोचते हैं. दीपावली जैसा त्यौहार आज भी उतनी ही धूम-धाम से मनाते तो हैं हम, जो होनी चाहिए. लेकिन, अपने-अपने घरों की सीमाओं के अन्दर ही कैद होकर. बड़े-बड़े आलीशान बंगले बना तो लिए हैं हम लोगों ने, लेकिन क्या उनके साथ में अपने लिए अकेलापन भी खरीद नहीं लिया है हमने? कुछ बदमज़ा सी हो गयी लगती है ज़िन्दगी.
दीपोत्सव सबके जीवन में नव-प्रकाश,प्रसन्नता ले कर आये. हार्दिक शुभकामनाएं.

                                

Wednesday, 19 October 2011

रिअल्टी शोज़ बनाम रिअल लाइफ

ब्लैक एंड व्हाईट से रंगीन तक का सफ़र तय करने में टेलीविज़न ने बहुत लम्बा समय लगाया. लेकिन एक बार रंगीन होने के बाद, अब हर रोज़ इसके रंग बदल रहे हैं. और इसका असर कितना गहरा है, उसके साक्षी तो हम सब खुद ही हैं. टेलिविज़न पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम एक साधारण दर्शक के सामाजिक दृष्टिकोण को प्रभावित करने में एक बड़ी भूमिका निभाते हैं. आज से कुछ ही समय पहले तक, 'सास-बहु के सीरिअल' ही ये तय करते थे, कि भारतीय नारियाँ अगले दिन होने वाली भारी-भरकम खरीददारी किस चीज़ की करेंगी. आस-पड़ोस की गप्पों, और चुगलियों की जगह इन सास-बहु के किरदारों ने बखूबी ले ली थी. मानो, एक भावनात्मक-सा रिश्ता स्थापित हो चुका था, भारतीय नारियों, और इन सीरिअल किरदारों के बीच. 
पर आज के टेलीविज़न का परिदृश्य कुछ बदला सा है. लम्बे समय से 'ऊबाऊ' का तमगा झेल रहे इन सास-बहु सीरियालों की जगह आज रिअल्टी शोज़ का झंडा फहरा रहा है. सब नामी मनोरंजन चैनल एक या अधिक तरह के रिअल्टी शोज़ प्रसारित करने में लगे हुए हैं. एक होड़ का भी नाम दिया जा सकता है, और प्रतिस्पर्धा का भी. और इस होड़ में, जो सबसे अलग होगा, वही टिक पायेगा. कुछ इस मानसिकता के साथ, चैनल वाले अपने शो के विषय का चयन करते हैं.
ये रिअल्टी शोज़ आम आदमी से लेकर सेलिब्रिटीज़ तक की सहभागिता के ज़रिये कार्यक्रम को असल जीवन से जोड़ने का प्रयास करते हैं. और दर्शक, इनमे दिखाए जाने वाले भावों के उतार-चढ़ाव में खुद को खोजता है. गायन, नृत्य, विविध प्रकार की प्रतिभाओं के प्रदर्शन से लेकर, खतरनाक स्टंट करना शुमार होता है इन शोज़ में. कभी आम आदमी की प्रतिभा की खोज की जाती है, तो कभी नामचीन लोगों को परीक्षा के घेरे में लाया जाता है. और इसके बदले में विजेता को मिलती है, एक बड़ी धनराशि, और बेशुमार शोहरत. और ये इनाम रातोंरात ही विजेता को एक ऐसी ऊंचाई पर पहुंचा देता है, जिसकी चाहत हज़ारों को होती है. 
इस दृष्टि से देखा जाए, तो ये रिअल्टी शोज़ किसी शॉर्ट-कट से कम नहीं हैं सफलता के लिए. पैसा, नाम, और पहचान के साथ-साथ अपने मनपसंद करियर की ओर रास्ता खुल जाता है. लेकिन मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए, तो इन रिअल्टी शोज़ की परिकल्पना कुछ सही नहीं लगती. इन चैनलों के लिए तो केवल टीआरपी जुटाना ही एकमेव मकसद होता है. और उसके लिए ये लोग शो में किसी भी तरीके से आकर्षण बढ़ाना चाहते हैं. ऊल-जलूल तरीकों से भी आकर्षण बढाने से उन्हें कोई परहेज़ नहीं होता. इनामी राशि को ऊंचा करने के पीछे भी यही सोच होती है. और उस राशि को हासिल करते ही किसी की भी ज़िन्दगी रातोंरात फर्श से अर्श का सफ़र तय कर सकती है. इसीलिए भाग लेने वालों की महत्वाकाँक्षा भी आसमान छूने लगती है. लेकिन हज़ारों में से कुछ बीस-पच्चीस को ही स्वीकार किया जाता है, और बाकी सब को बाहर का दरवाज़ा दिखा दिया जाता है. और इतना ही नहीं, इसके बाद उनकी भी यूँ छंटनी की जाती है, कि सिर्फ एक को ही विजेता घोषित किया, और बाकी सब खाली हाथ घर लौटने पर मजबूर. सवाल तो उठता है, कि क्या उन बाहर कर दिए गए हज़ारों में प्रतिभा का ऐसा अभाव सचमुच रहा होगा? हाथ कंगन को आरसी क्या, हम सब ही गवाह रहे हैं किसी न किसी ऐसे शो के, जहां योग्य प्रतिभागी को भी अस्वीकार किया गया. बहुतेरी बार चयन-प्रणाली पर भी सवाल उठे हैं, और पारदर्शिता पर भी. पर जो भी हो, इन नतीजों के साथ ही, टूट जाते हैं वो हज़ारों सपने भी , जो सिर्फ चंद लोगों के द्वारा एक रणनीति के तहत बुने गए होते हैं. 
अगर इतना कुछ ही होता, तो भी शायद गवारा हो जाता. पर जब छोटे-छोटे बच्चों के लिए भी ऐसे शोज़ की प्रस्तुति की जाती है, तो आश्चर्य होता है. महज़ छः से बारह-तेरह वर्ष तक के छोटे बच्चों को प्रतिभागी बनाकर गायन-नृत्य जैसी प्रतियोगिताएं कराई जाती हैं. छोटे-छोटे बच्चों में जीतने को लेकर जिस प्रकार की ललक  दिखती है, वो सचमुच चिंता का विषय है. क्योंकि यह तो पूर्व-निर्धारित ही है, कि सिर्फ एक बच्चा विजेता होगा. हर एक सप्ताह जब एक प्रतिभाशाली बच्चे को शो से बाहर किया जाता है, तो उसकी प्रतिक्रिया बेहद दुखास्पद होती है. फूट-फूट कर रोते इन बच्चों को चुप करा पाना बहुत मुश्किल हो जाता है. और तिस पर 'वाइल्ड-कार्ड' नामक जुमला, वो तो इन बच्चों को बाहर निकलने के बाद भी एक उम्मीद में रखता है, फिर शो में वापसी की. अब वाइल्ड-कार्ड एक, और बच्चे अनेक. तो इस तरह एक बार फिर, किसी एक के चयन के बाद, बाकी के नन्हे बच्चों के सपने उसी वेग से टूट जाते हैं. अब यदि बाल-मनोविज्ञान समझा जाए, तो कई प्रश्न हैं. जैसे, क्या इतने छोटे बच्चे इतना बड़ा दवाब झेल भी सकते हैं, जो उन्हें ऐसे शोज़ में मिलता है? अगर वो विजेता बन भी जाएँ, तो क्या जीतने के बाद मिलने वाली प्रतिष्ठा को वो संभाल पायेंगे? इतनी बड़ी सफलता मिलने के बाद क्या उनके बचपन की सुन्दरता महफूज़ रह पाएगी? और जीत न पाने की स्थिति में, क्या इतनी बड़ी विफलता उन्हें आसानी से सामान्य होने देगी? दोनों ही हालात में, उनका मन इतना मज़बूत नहीं होता, कि आने वाली परिस्थितियों में वे सामान्य व्यवहार रख पायें. पर इस बड़ी चिंता से कोसों दूर, अभिभावक उन्हें ऐसे बड़े मंचों पर ले जाना एक गौरव का विषय समझते हैं. अपने अधूरे सपने पूरे करना, या फिर जल्द अमीर बने की चाहत, या फिर शायद समाज में प्रतिष्ठित होने के लिए, उन्हें ये रास्ता बहुत आसान लगता है. पर सच यह है, कि ऐसा करके वो अपने बच्चों के बचपन को ही छीन रहे होते हैं. गुलाब की नाज़ुक कली समय आने पर ही सुन्दर फूल बन पाती है. समय से पहले उससे छेड़-छाड़ करना उसके एक सुन्दर पुष्प में परिणत होने की संभावनाएँ कम करने के जैसा है. और ठीक उसी तरह, बचपन की नजाकत से भी छेड़-छाड़ करना कोई हितावह नहीं है. 
समस्या ये है, कि पूरा समाज ही आज ऐसी चीज़ों के अन्धानुकरण में लगा हुआ है. जब तक समाज के सब लोग इस नवीन संस्कृति के मनोवैज्ञानिक पहलु से अवगत नहीं हो जाते, तब तक हालात परिवर्तित होने की संभावनाएँ बहुत ज्यादा नहीं हैं. लेकिन अपने जीवन के प्रति उत्तरदायी तो हम खुद ही हैं. और कोई समझ पाए या न, एक ज़िम्मेदार अभिभावक के लिए तो, जागरूक होकर अपनी संतान को बड़ा होने तक योग्य बनाना ज्यादा महत्वपूर्ण होना चाहिए, बनिस्बत बचपन में ही उसकी प्रतिभाओं को निचोड़कर बड़े होने तक उसे नीरस कर देने के.

समाचार-पत्रों में प्रकाशित लेख

समाचार-पत्रों में प्रकाशित लेख  (अक्तूबर माह).


                                                
                                              

                                                  




                             

Friday, 14 October 2011

यूँ भुला न पाएंगे. . .



सुना तो हमेशा से था, कि संगीत का रिश्ता सीधे रूह से होता है, पर समझ पहली बार आई है ये बात. किस तरह, एक इंसान का जाना इतने लोगों को जज़्बाती कर गया..!! देश के नामी लोगों से लेकर, आम आदमी तक, हर एक के लफ़्ज़ों का यही रंग..! 'जगजीत सिंह', जिन्होंने ग़ज़ल गायकी को एक नयी मुकाम दी.. ग़ज़लों की मद्धिम हो रही रोशनी को एक भरपूर लौ दिलाई.. जिन्होंने शब्दों को जज्बातों की एक मखमली उड़ान दी..! ईश्वर की देन एक सुनहरी आवाज़ को गहन तपस्या, और लगन के ताप से चमका कर कुंदन बना दिया.
कौन नहीं मुरीद होगा ऐसी अहसासों की भाप से भीगी हुई उस जादुई सरगम का, जो हर एक मन के लिए सुकून की गुंजाइश के साथ बुनी गई हो!  मीठे, सुरीले , शांत और आत्मिक रस से भरे संगीत के चाहने वाले हर एक दिल में कहीं न कहीं एक मायूसी का एहसास उठ आया होगा जगजीत सिंह के दुनियावी सफ़र के पूरे होने की खबर सुनकर. सच, एक खालीपन मुझे भी महसूस हुआ. जब-जब उनका संगीत सुना, तब तब खुद को किसी और जहाँ मे पाया..और उस जहाँ की ख़ास बात ये होती थी, कि वहाँ पर कभी कोई दुःख नहीं होता था. वहाँ तो बस एक अलमस्ती होती थी, जिसमे दूर-दूर तक कोई कमी नहीं. मन में एक ख़याल आया, कि ऐसी वो क्या बात थी, कि इतने ग़ज़ल गायकों के बीच जगजीत सिंह हमेशा अलहदा, निराले रहे! 
दरअसल, उन्होंने बेईमानी नहीं की कभी सुरों के साथ. जब भी गाया, जो भी गाया, दिल से गाया, भरपूर गाया. मिसाल तो फिर खुद-बखुद बननी ही थी. दिल से निकले अलफ़ाज़ की अगर कोई मजबूरी होती है, तो वो है, दुसरे दिल को छूना. चाह कर भी वो इस कोशिश में नाकाम नहीं रह सकता.  और जगजीत जी का गले से निकलने वाले शब्द अपने आप को इस मजबूरी से घिरा ही पाते थे. जिस जिस गीत को होठों से छुआ, उस उस गीत को अमर कर दिया. नतीजा सामने, उनकी आवाज़ के तलबगार बढ़ते ही चले गए, हर एक ग़ज़ल के साथ, हर एक सुरीली शाम के अन्जाम के साथ. 
एक अजीब सा विचार घेर रहा है मेरी कलम को इस वक्त. आज हम उस दुनिया में जी रहे हैं, जहां अपने भी अपनों का बिछोह महसूस नहीं किया करते. पर उस पराये के लिए जाने कितने जज़्बात उमड़ आये..! जहां ख़ून का रिश्ता भी धोखा दे जाता है, उस दुनिया में अजनबियों की भी आँखें भर आई आपके रुखसत होने पर, तो ये एक अनोखी ही बात है. महज़ अपने संगीत, और ज़हानत के साथ आपने अपने श्रोताओं को अपना बना लिया, ये तो बेशक एक जादुई शख्सियत ही कर सकती है. सुरों से दोस्ती तो इमानदारी से निभायी ही, साथ ही ज़िन्दगी भी बेदाग़ जी कर दिखा दी. जिस दुनिया से उनके ताल्लुकात रहे, उसमे अपना नाम ऊँचा करना तो बड़ी बात है ही, पर उस नाम तो साफ़ रख पाना, ये हर कोई नहीं कर पाता. और शायद तभी, एक अनदिखा धागा बंध गया था उनके, और उनके श्रोताओं के बीच..! उनकी ज़िन्दगी किस दर्द से दो-चार होकर रही, वो तो किसी से छिपा नहीं. पर दिल के दर्द को होठों की मुस्कान से ज़ाहिर करने का भी एक अनूठा शउर जानते थे सुरों के वो बेताज बादशाह..!
उनके जाने से दिल की जो गली खाली-सी महसूस हो रही है, उसे यूँ उन्हें याद कर भरने की कोशिश करनी चाही थी. पर इतना लिख गुजरने के बाद, अब एहसास हो रहा है, कि जिस शख्स का सीमाओं से ताल्लुक ही नहीं रहा,  उसको श्रद्धांजलि, चंद शब्दों में देने की, कोई सोच भी कैसे सकता है! सीमाओं में रहने वाले कभी फलक तक नहीं पहुँच सकते. और फलक से दिल तक बसने वाले को चार लफ़्ज़ों में कौन कैद कर सकता है! आप तो बस दिलों में जिंदा रहेंगे, हमेशा, हमेशा, और हमेशा..! 
इस जग को जीत कर जहाँ तुम चले गए, वहाँ खूब सुकून हो, बस यही दुआ है.                          
                      

Friday, 7 October 2011

यही बाकी निशाँ होगा..??



अभी कुछ ही दिन पहले भारत देश के दो ऐसे सपूतों का जन्मदिवस था, जो हर दृष्टि से आदर्श के सांचे में आते हैं. २८ सितम्बर को शहीद भगत सिंह का, और २ अक्टूबर को पंडित लाल बहादुर शास्त्री जी का. एक ने पराधीन भारत की अस्मिता वापिस लाने की कोशिश में अपने प्राण आहूत कर दिए, तो दूसरे ने अपनी सच्चरिता और सादगी से प्रधानमन्त्री पद की गरिमा बढ़ाई. दोनों के ही जन्मदिवस पर मेरी आँखों ने समाचार पत्रों को खूब जाँचा. देश के राजनैतिक पटल की ढेरों ख़बरें, अभिनय-जगत की रंग-बिरंगी तस्वीरें, और क्या नहीं! लेकिन राष्ट्रभक्ति के नाम अपना जीवन समर्पित करने वालों के लिए कोई उल्लेखनीय बात कहीं नहीं मिली.  दूर-दराज में कोई अभिनेता आये, तो उसकी ख़बरें बढ़-चढ़ कर छापी भी जायेंगे, और पढ़ी भी जायेंगी. उन्होंने कब क्या कहा, से लेकर उनके परिधानों के रंग तक चर्चा का विषय बने रहेंगे. लेकिन  क्रान्ति का बिगुल बजाने वाले, देश के लिए शहीद किसी नवयुवक के लिए एक अदद  कोना अपनी जगह खोजता रह जाता है. विचारणीय बात ये है, कि ये अक्षमता समाचार-पत्रों की है, या पाठकों की? मेरी दृष्टि में, अगर किसी को दोष दिया जाना चाहिए, तो वो हैं पाठक. समाचार-पत्र तो एक व्यवसाय के अंतर्गत अपना कार्य करते हैं. 'जो बिकता है, वही छपता है' के मूलवाक्य के साथ, उन्हें तो जनता की रुचि की नब्ज़ टटोलनी बखूबी आती है. और पाठक, उन्हें चाहिए, मसाला. उनकी खुराक है, चटपटी ख़बरें, जिन्हें पढने में उनका मनोरंजन होता हो. इतना ही नहीं, ऐसे चमकीले चेहरों को ही अपना आदर्श कहना उन्हें अच्छा लगता है. पर मेरी दृष्टि में, ये लोग भारत के 'रत्न' तो नहीं, 'भारत-पतन' ज़रूर कहे जा सकते हैं. उनका अनुकरण हमें किस दिशा में ले कर जायेगा, वो शायद बताने की ज़रूरत नहीं है. चलिए, व्यक्तिगत रुचि की बात है. इस पर क्या अंगुली उठानी! पर प्रश्न ये है, कि इस रवैये के बाद, हम अपने देश से कोई उम्मीद क्यों करते हैं? क्या दिया है हमने अपने देश को, जो वापसी में कुछ हमें भी मिले? अपने-अपने स्तर पर, जितना हो पाया, उतना 'फायदा' उठाने से तो हम चूके नहीं कभी! लेकिन एक समर्थ राष्ट्र के निर्माण के लिए, क्या कभी कोई भूमिका निभा पाए हम? अगर हम जागरूक नहीं हैं, तो शिकायत करने का भी हक़ नहीं है हमें! एक कहावत है, कि 'सोये हुए शेर के मुह में हिरन खुद नहीं आया करता'. अपने क्षुद्र स्वार्थों को पूरा करने के लिए तो हम एक झटके में ही अपनी नींद तोड़ दिया करते हैं! पर जब बारी आती है राष्ट्र-निर्माण की, तो वो हम दूसरों पर छोड़ना पसंद करते हैं. और यही तो कारण है, कि आज के समाज में कोई दूसरा भगत सिंह पैदा नहीं हो पाया! इन हालात में, ये विचार ज़रूर आता है, कि और कुछ नहीं, तो वर्ष में एक दिन ही सही, इतना जानने का तो प्रयास कर ही लिया जाना चाहिए, कि किन हालात में मृत्यु का मार्ग चुनना ज्यादा ज़रूरी हो गया होगा भगत सिंह के लिए! या फिर नैतिकता के साथ भी कर्तव्य-वहन कैसे किया शास्त्री जी ने! पर वो तो तब न, जब हमारे मन के सुप्त शेर को भ्रष्टाचार के सुनहरे हिरन का शिकार करने में कोई रुचि हो..! पर वो एक दिन भी, महंगा लगता है अब हमें..
और शायद,
वतन पर मिटने वालों का 'नहीं' बाकी निशाँ होगा..




Friday, 30 September 2011

अब भी समय है..


ये बदलता हुआ मौसम कितना अच्छा लगता है..! लम्बी गर्मियों का 'फिर मिलेंगे' कहकर विदा लेना, और सर्दी का दबे-पैर हवाओं में शामिल होना. लम्बे समय से गुपचुप-गुमसुम से दिखते गुलाब के पौधों पर भी रंगों की तरंगों की अठखेलियों का मौसम..! और इस सुहानी वेला के साथ-साथ पवित्रता का, शुभता का, नवरात्र का शुभ आगमन. शक्ति-उपासना का पावन समय. व्रत-उपासना का उपयुक्त अवसर, और कन्या-पूजन की तैयारियां ! 
ऐसे ही याद आ रहा है, कि बचपन में ऐसी बातें आम सुनाई देती थी, कि कन्याओं में तो साक्षात माँ दुर्गा का वास होता है. बच्चों के मुख से साक्षात भगवान् बोलते हैं. उस वक़्त सुनकर बहुत अच्छा भी लगता था, और थोड़ा-सा अजीब भी. अच्छा इसलिए, क्योंकि एक सम्मान की दृष्टि मिलती थी हम लोगों के प्रति, छोटा बच्चा होते हुए भी. वैसे भी, सम्मान प्राप्त करना तो सबको ही मीठा लगता है. और अजीब इसलिए लगता था, क्योंकि उस समय भी मन में सवालों के बादल मंडराते रहते थे. "कहाँ है मुझमे दुर्गा, मैं तो बस ये ही हूँ !  जैसे सभी बड़े हैं, वैसे ही तो हम बच्चे हैं..! अगर हममे भगवान् हैं, तो उनमें क्यों नहीं?" बहुत कुछ इसी तरह के तर्क आया करते थे मन में ऐसी बातें सुनकर.
पर हमेशा ही, ये जवाब सुनने के बाद बड़े मुस्कुरा दिया करते थे. और आज बड़े होने के बाद, याद कर के मुझे भी हँसी आती है अपनी वो बातें. लेकिन अब इन बातों के पीछे छिपा मर्म भी थोड़ा-थोड़ा समझ आने लगा है. उस समय ऐसी बात से लगता था, कि क्या कोई मोरपंख सिर पर लगा कर, या धनुष-बाण हाथ में धारण किये हुए भगवान् हैं, जो हम बच्चों के मन के भीतेर छिपे हुए हैं? कैसे रहते होंगे मन में छिपकर? वैसे बड़े ही बाल-सुलभ, और स्वाभाविक-से सवाल हैं ये..! 
पर आज इतना तो समझ आया ही है, कि भगवान् की परिभाषा ही दरअसल गलत गढ़ रखी थी हम लोगों ने. भगवान् किसी आकार-विशेष का नाम है क्या? क्या सिर्फ चमत्कार ही भगवत्ता का प्रमाण हैं? मेरी समझ में तो, 'बिलकुल नहीं'. भगवान्, यानि कि पवित्रता, सत्यता, स्वाभाविकता. जहां ये गुण हैं, वहीँ है भगवत्ता..! और बच्चों से तो दूर ही कहाँ होते हैं ये गुण! प्रकृति की पवित्रतम अवस्था जहां अभिव्यक्त होती है, उसी का तो नाम'शिशु' है. जैसे-जैसे हम बड़े होते चले जाते हैं, प्रकृति से विकृति की ओर यात्रा करते चले जाते हैं. बड़े होते-होते, पवित्रता को किसी प्राचीन युग का आभूषण समझ बैठते हैं, जो आज दृष्ट्प्राय ही नहीं है. सत्यता को इस नाम और दाम के युग में कोई नहीं जानता. और स्वाभाविकता, आज के बनावटी युग में क्या काम है उसका? और इसीलिए 'भगवत्ता' का अंश भी आयु बढ़ने से साथ-साथ क्रमिक रूप से घटता चला जाता है. तो इस नज़रिए से, हाँ, आज मुझे भी वो बात बिलकुल सच ही लगती है, कि बच्चों में भगवान् बोलते हैं. वैसे, मूर्ति वाले भगवान् ने तो न कभी जवाब दिया, न देंगे. पर इन नन्हे बच्चों के पास तो शब्दों के भण्डार रहते हैं. किसी की समस्या का हल भले ही उन शब्दों में न हो. पर इस बात से तो हम कभी इन्कार नहीं कर सकते, कि बच्चों की बातें सुनने भर से ही मन प्रसन्न हो जाता है. ये नन्हें बच्चे तो हर पल वाचाल होकर दुनिया को सुन्दर बनाते रहते हैं. 

अपनी चंचलता और सरलता के रंगों से, दुनिया नाम के इस व्यापक चलचित्र को एक सुखद अनुभव बनाने वाला ये बचपन यूँ चहकता, महकता-सा ही अच्छा लगता है. बचपन की बगिया से फूटने वाले प्रसन्नता के पुष्पों से ही तो जगत नामक इस वाटिका की शोभा हैं. बस इस बात का डर है, कि बड़ों की दुनिया की स्वार्थ-परायणता, कठोरता, और भयावहता देख कहीं ये बचपन डर कर संकुचित न हो जाए! दुनिया की कालिख कहीं इस निर्मल बचपन को भी गन्दला न कर दे! और कहीं ये सुनेहरा बचपन अपनी स्वाभाविक मुस्कान न खो दे...
कितना अच्छा हो, अगर इस बदलते मौसम के साथ हमारे मिज़ाज भी कुछ बदल जाएँ, और जिस उच्चता-पवित्रता को हम मूर्ति में ढूंढते रह जाते हैं, उसे अपने आस-पास ही टटोल सकें. भगवान् सचमुच दूर नहीं लगेंगे.
नवरात्र सबके लिए मंगलमय हों.

Thursday, 22 September 2011

वो बचपन की बातें..



कभी-कभी एक शब्द ही बहुत होता है बचपन की भूली-बिसरी यादों को ज़िन्दा करने के लिए.. अभी-अभी कहीं से सर्कस शब्द सुना, और एक पुराना झरोखा खुल गया, जिसमे झाँक कर देखना एक प्यारी मजबूरी बन गयी थी. पांच साल की उम्र थी मेरी, जब हमारे शहर में सर्कस लगी थी. हम भाई-बहन को स्कूल से सीधे सर्कस पहुंचाने की हिदायत रिक्शा-चालक को दे दी गयी थी, पर हम लोगों को इसके बारे में कुछ पता नहीं था. एक सरप्राइज़ था. जब रिक्शा सर्कस के आगे जा रुका, तो हम लोग बहुत हैरान हुए. "कहीं चालक किसी गलती से तो ऐसा नहीं कर रहा, या कहीं किसी और बच्चे को तो यहाँ नहीं उतारना",  जैसे कई ख़याल एक ही मिनट में हमारे दिमाग में आ गए. लेकिन इतने में ही हम दोनों ने अपनी माँ को हमारी ओर आते देखा. एक भरपूर मुस्कराहट से उनका स्वागत हुआ. मुस्कराहट इतनी ज़ोरदार थी, कि कह सकते हैं कि होंठ कानों को छूने लगे. उसके बाद तो एक-एक कदम जिस हैरानी, ख़ुशी और कौतुहल से अन्दर की ओर बढ़ा, उसका एहसास आज भी ज्यों का त्यों ताज़ा है. सुन रखा था, कि सर्कस में जानवर होते हैं, शेर, बन्दर, और पता नहीं कौन-कौन.. मन जैसे हवा में उड़ रहा था.. 
 हम अन्दर पहुँच कर कुर्सियों पर बैठ गए. और  कुछ ही देर में शो शुरू हुआ. जानवरों के करतब..जो कि हैरत-अंगेज़ होते ही हैं, शुरू हुए. वहाँ , पंडाल में बैठे हुए, शायद ही कोई ऐसा कोना हो, जिस ओर मैंने अपनी नज़र न घुमाई हो. मेरे स्कूल से और कौन-कौन से बच्चे आये हैं, और कौन-कौन लोग हैं, जिन्हें हम जानते हैं, ये सब जासूसी कर डाली. 
दो-तीन घंटे में शो ख़तम हो गया होगा. मेरे लिए, ये सब एक बिलकुल नया अनुभव था, और उस उम्र तक कहुं, तो तब तक का सबसे शानदार अनुभव. जैसे पंख लग गए हों, ऐसे उड़ते हुए हम घर पहुंचे. कितने दिन तक इसी उन्माद में हम झूमते रहे,  भले ही बहुत बचपन की बात है, पर मुझे आश्चर्यजनक रूप से बिलकुल ठीक-ठीक याद है. कुछ महीनों बाद, मैंने उस दिन की यादें अपनी माँ के साथ ताज़ा करनी चाही. मैंने उन्हें बताया, कि जितना अच्छा उन जानवरों को देखने में लग रहा था, उससे भी अच्छा शो तो सर्कस  की छत पर हो रहा था. मेरी माँ ने हैरान हो कर पूछा, कि छत पर कौन सा शो हो रहा था ? तब मैंने उन्हें याद दिलाने की कोशिश की, कि वहाँ कई लोग करतब दिखा रहे थे. साफ़ शब्दों में, माँ ने मुझे बताया, कि ऐसा तो कुछ भी नहीं हुआ था उस शो में, और सर्कस तो नीचे ही हो रही थी. 
तब मुझे समझ आया, कि जो कुछ मैंने देखा था, वो मेरी कल्पना की उड़ान थी. खुद ही, मैंने पता नहीं क्या-क्या ख्वाब बुन लिए थे वहाँ बैठे-बैठे..और उन का मज़ा भी खूब लिया. हालांकि बात तो कुछ अनोखी नहीं है, लेकिन जब वो कल्पनाशीलता याद आती है, तो मन में एक मुस्कान-सी आ जाती है. ऐसा ही कच्ची-मिटटी का-सा  होता है बाल-मन... माता-पिता पूरे जतन से उन्हें कहीं घुमाने ले जाते हैं, एक नया अनुभव दिलाने के लिए, लेकिन उन्हें, अपने सपनो से फुर्सत ही नहीं होती... !
यों निजी तौर पर आज की तारीख़ में मुझे सर्कस की अवधारणा भी कुछ अच्छी नहीं लगती. पशुओं के स्वाभाविक अधिकारों का हनन लगता है ये.   पर स्मृतियों के पन्ने पर अंकित वो चित्र कई बातें सोचने पर मजबूर कर देते हैं. आज के समय की सोचें, तो ऐसा लगता है कि  वो बचपन तो आज के दौर में शायद लुप्त-प्राय ही हो चुका है. आज के दौर में लुप्त-प्राय ही हो चुका है . आज के बचपन में न तो वैसी ललक-पुलक है, न वो आजादी.  न मिटटी में धूल-धूसरित होना, और न बारिश में मोर की तरह झूमना. काग़ज़ की कश्तियाँ तो शायद एक ऐतिहासिक पुर्जे के जैसी हो चुकी हैं. पर वोही तो कशिश थी बचपन में!   आज का बच्चा शायद अपने पिता से भी ज्यादा तकनालाजी की बात जानता हो, लेकिन भोलापन... वो क्या होता है, उसे नहीं पता..
और ये सोच कर लगता है, कि 'बचपन' नामक विकास का सोपान भी एक दिन संग्रहालय में ही जाना जा सकेगा.. क्योंकि तब शरीर से वो भले ही बच्चे हों, लेकिन दिमाग से, प्रौढ़ के जैसे होंगे. अच्छा हो, कि ऐसे किसी कडवे सच का सामना करने से पहले ही हम एक बेहतर कदम उठा लें..!


Wednesday, 21 September 2011

गति-नियंत्रण आधुनिकता पर..

गति-नियंत्रण आधुनिकता पर..
आधुनिक युग, आधुनिक रंग-ढंग, पूरी जीवन-शैली पर ही आधुनिकता की चादर चढ़ी है आज. जीवन का कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं है आज आधुनिकता के प्रभाव से. तकनीकी विकास तो हम सबके जीवन को क्रांतिकारी रूप से प्रभावित कर रहा है . विचारों का आदान-प्रदान विश्व के किन्ही भी हिस्सों में आज इतनी सरलता, और द्रुत गति से हो पाता है, कि जैसे आमने-सामने ही खड़े हों. और इस क्रांति का सीधा प्रभाव हमारे जीवन-स्तर, और जीवन के ढंग पर पड़ा है. भौगोलिक दूरियाँ आज के दौर में पूरी तरह से अपने मायने खो चुकी हैं. अत्याधुनिक तकनीकी-कौशल के युग में उपकरणों की भूमिका बहुत मुखर हो चुकी है. कह सकते हैं, कि इस युग की खूबी है, एक बेहतर जीवन-शैली, बशर्ते हम युग की रफ़्तार के साथ अपने कदम मिलकर चल सकें.
पर इस रफ़्तार के साथ कदम मिलाना उस सूरत में बेमानी हो जाता है, जब हम सड़क पर इस रफ़्तार के साथ खेलने की कोशिश करने लगते हैं. आज के युवाओं में 'बाइक्स' का चाव नशे का रूप ले  चुका है. और सिर्फ युवा ही क्यों, किशोरों में भी कम क्रेज़ नहीं नज़र आता, बाइक्स और गाड़ियों को लेकर. बारह-तेरह साल की उम्र में तो बाइक का हेंडल संभालना फितरत बन चुकी है. फिर भले ही इस उम्र का किशोर शारीरिक और मानसिक स्तर पर इतना मज़बूत हो या न, कि भीड़-भाड़ भरी सड़क पर उसे चला सकें. पर अभिभावक भी इस पर कोई आपत्ति नहीं जताते. एक चलती सड़क पर दिमाग की जिस मुस्तैदी की अपेक्षा किसी वाहन-चालाक से की जाती है, वो  बारह-तेरह साल की कच्ची उम्र में तो उपलब्ध नहीं हो पाती. पर माता-पिता तो इसे भी गौरव का विषय ही समझते हैं, कि उनकी कम-उम्र संतान के पास वाहन चलाने का गुर है. कभी-कभी तो मुंह हैरत से खुला ही रह जाता है, जब सड़क पर चलते हुए कुछ ऐसे भी लोग नज़र आ जाते हैं, जो केवल छः-सात वर्ष के अपने बालक को गाड़ी चलाना सिखा रहे होते हैं. मन में सवाल आता है, कि क्यों? क्या ये कोई ऐसी उपलब्धि है, जिसके बिना आपके बालक का बचपन अधूरा है? या फिर क्या गाड़ी चला लेने से आपका बालक कोई विश्व-विजेता बन जायेगा? ऐसा तो नहीं है कुछ भी. तो फिर शायद हम अपना कोई दंभ ही पोसते रहते हैं छोटे बच्चों को वाहन चलाने का प्रशिक्षण देते हुए. लेकिन हम ये क्यों भूल जाते हैं, कि छोटे बच्चे पूरी दक्षता से वाहन चला ही नहीं सकते? जान का जोखिम है इसमें, दोनों ओर से आ रहे लोगों के लिए. अठारह वर्ष से कम उम्र के लोगों के लिए मोटर-वाहन चलाने का प्रावधान तो विधि-निषिद्ध ही है. तभी तो वाहन चलाने का लाइसंस भी निर्धारित आयु के बाद ही बनता है. पर हम तो कानून तोड़ने से भी नहीं चूकते. 
और इसका ये भी मतलब नहीं है, कि अठारह वर्ष के होते ही हम अंधाधुंध वाहन चलाने लग जाएँ. गति-नियम, यातायात के नियमों का पालन तो हर हाल में होना ही चाहिए. आज के आधुनिकतावादी माता-पिता अपनी किशोर-युवा संतान की ऐसी इच्छाएं आँख मूँद कर पूरी कर दिया करते हैं. नतीजों से बेपरवाह, ऐसे माता-पिता के लिए अपने बच्चों की हर इच्छा पूरी करना ही प्राथमिकता होती है. और विलासिता के नशे में चूर वो बच्चे सड़क पर ही करतब करने से नहीं चूकते. बेशक, ये जोखिम की चरम सीमा है. ताजातरीन उदहारण तो हम सबके सामने ही है, जब भारतीय क्रिकेट के पूर्व-कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन के पुत्र एक अत्याधुनिक और बेशकीमती बाइक की सवारी करते हुए गंभीर रूप से घायल होकर मृत्यु-ग्रस्त हो गए. ईश्वर न करे कि ऐसा किसी के भी साथ हो, लेकिन अगर सिर्फ दुआओं से ही ये दुनिया खूबसूरत हो पाती, तो भला इया प्रकार के लेख लिखे जाने की ज़रूरत ही क्या थी? कुछ वर्ष पूर्व उत्सव नामक एक किशोर ने अपने अमीर पिता की बहुत महंगी गाडी चलाते हुए एक राहगीर को कुचल दिया था. 'हाई-प्रोफाइल' दुर्घटनाएं होती हैं, तो सबकी नज़रें खुद-बखुद ही उस ओर चली जाती हैं. पर आम-जीवन में भी ऐसी दुर्घटनाएं कम नहीं होती. उदाहरणों की क्या कमी है, पर मूल विषय ये है, कि अभिभावकों का अपने बच्चों की हर ऐसी इच्छा पूरी करना, जिसके लिए वो शाररिक-मानसिक रूप से तैयार नहीं है, निश्चय ही एक गैर-जिम्मेदाराना कदम है. इस हद तक गलत, कि जो किसी को मौत के मुह में भी धकेल सकता है. और वो कोई 'कोई' भी हो सकता है. एक और भी बात है. आँकड़े कहते हैं, कि पूरे विश्व में, सड़क हादसों से होने वाली मृत्यु की दर हमारे देश में सर्वाधिक है. कारण सोचे जाने की ज़रूरत है. या शायद खुद से पूछने की ही ज़रूरत है. 
जब तक अपने दिखावे के इस रवैये से युक्त होकर हम इन चीज़ों को 'स्टेटस-सिम्बल' के साथ जोड़ते रहेंगे, तब तक आधुनिकता के बगीचे के फूल तो भले ही हमें महकाते रहेंगे, पर कांटे भी बराबर चुभते रहेंगे. और गौर करने की बात है, कि इन में से कुछ कांटे विषैले, और जानलेवा भी होते हैं. कम-से-कम वयस्क होने से पूर्व तो साइकिल की सवारी ही होनी चाहिए. जहां एक ओर इससे पर्यावरण-प्रदूषण की समस्या घटेगी, वहीँ पेट्रोल-डीज़ल की मांग भी कुछ कम हो पाएगी. साइकिल  जैसी सवारी को भीड़-भाड़ में से निकाल लेना कोई बड़ी मुश्किल नहीं है. इसलिए, इसके इस्तेमाल से आम हो चुकी जाम की समस्या पर भी लगाम लग सकती है. बाकी सब बातों के साथ-साथ, साइकिल चलाना एक बहुत अच्छा व्यायाम भी है, जिसके लिए अलग से वक्त निकाल पाना आधुनिक जीवन-शैली में आसानी से नही हो पाता. साइकिल का प्रयोग आधुनिक जगत में उठ रही कई समस्याओं से निजात दिला सकता है. 
आधुनिकता की होड़ तक तो ठीक है. पर अन्धानुकरण तो किसी भी चीज़ का हितकारी नहीं है. इसलिए, आधुनिकता की दौड़ का हिस्सा तो हम ख़ुशी-ख़ुशी बनें, पर गति-नियंत्रण की अहमियत को न भूलते हुए.
शुभकामनाएँ. 

Friday, 16 September 2011

ये पगडण्डी सफलता की....



ये एक ज़िन्दगी, और हज़ारों ख्वाहिशें..!! हर पल हम कुछ न कुछ चाहते रहते हैं. इच्छाओं का झोला कभी खाली नहीं हो पाता. और इन हज़ार-लाख ख्वाहिशों का रूप-रंग भले ही एक दूसरे से कितना भी जुदा क्यों न हो, उनके पीछे छिपी भावना तो एक-सी ही होती है, 'स्वामित्व' की, 'बड़प्पन' की..! अपने सामजिक कद से हम कभी संतुष्ट नहीं हो पाते हैं, और भले ही कितनी भी ऊँचाई क्यों न छू लें, और भी ऊँचे होने का ख्वाब हमेशा जिंदा रहता है हमारी आँखों में. 
अब सोचने की बात तो ये है, कि आखिर हम इतनी ऊंचाई पर पहुंचना ही क्यों चाहते हैं? ये बड़प्पन की चाह किसलिए? ज़्यादातर लोग तो सफलता की चाह इसलिए करते हैं, क्योंकि जितनी ज्यादा हमारी सामाजिक सफलता होती है, उतनी ही ज्यादा हमारी सामाजिक पैठ हो जाती है. सफलता मिलते ही दोस्त-रिश्तेदार-शुभचिंतक रातोंरात बढ़ जाते हैं. और हम मगन हो जाते हैं  उनके साथ अपनी सफलता का जश्न मनाने में. हर दिन त्यौहार-सा हो जाता है. चमक-दमक, बुलावा-दिखावा, मौज-मस्ती, ये सब सफलता के झोंके के साथ खुद-बखुद आ जाया करते है. कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जो इस जश्न का दायरा सिर्फ अपने इर्द-गिर्द तक ही सीमित नहीं रखते, पर अपने समाज, अपने राष्ट्र के प्रति अपना सरोकार याद रखते हुए कुछ नेक काम भी करते हैं. पर ऐसे लोगों की संख्या तो इतनी कम होती है, कि अँगुलियों पर भी गिने जा सकें..! 'अल्पसंख्यक' भी कह सकते हैं!
एक और भी ख़ास किस्म का सफल समुदाय होता है. ये वो लोग होते हैं, जो अपनी हर सफलता का कर(टैक्स) दूसरों से वसूलना पसंद करते हैं. चूँकि इनके पास सफलता है, इसलिए ये अपने सभी अधिकार अच्छी तरह याद रखते हैं. और 'कर्तव्य', उस पर तो लम्बा भाषण दे सकते हैं. लेकिन उन्ही कर्तव्यों को निभाना, ये लोग एक 'अनधिकार चेष्टा' सा समझते हैं. उन्हें अच्छा लगता है, सामने खड़े हर व्यक्ति का दमन करना, शोषण करना. और हक़ के लिए उठ रही आवाज़ को दबाना. अपनी हर गलती दूसरों के माथे मढ़ देना उन्हें बखूबी आता है. निर्दोष को धमकाना तो उनका प्रिय शगल होता है. सामने खड़ा आदमी जब उनकी बात से थर-थर काँपता है, तो आत्म-मुग्ध होकर वो ऐसा सोचते हैं, कि ,"वाह! कितने प्रभावशाली हैं हम..! "
बहुत-से लोग मिल जायेंगे ऐसे, हमारे आस-पास ही! या शायद खुद हम ही. क्या ऐसा व्यवहार-प्रदर्शन हमें प्रभावशाली बनाता है? मेरे नज़रिए की बात कहूँ, तो, ऐसा लगता है, कि ये तो हमारे 'खोखलेपन' का प्रमाण-पत्र है, जो हम खुद ही थमा रहे होते हैं, दूसरों के हाथों में. या यूँ कहें, कि अपनी कमजोरी दूसरों के समक्ष एक 'रचनात्मक' ढंग से बयान कर रहे होते हैं. एक मानसिक रूप से पंगु व्यक्ति ही ऐसी असुरक्षा से घिरा हुआ हो सकता है. कभी अपने मातहत, कभी घरेलु नौकर-चाकर, और कभी-कभी तो सगे-सम्बन्धियों को भी अपमानित करने से नहीं चूकते हम. अगर वाकई हमारी बात में वज़न है, तो चिल्ला कर बताने की किसे ज़रूरत है? और अगर किसी को भयभीत करना ही हमारी सफलता का परिचायक है, तो इसका तो यही मतलब है, कि हमारे जीवन पर 'राक्षसों' का प्रभाव है. हाँ. किसी को डराना-धमकाना साधारण मनुष्यों का लक्षण कहाँ होता है? शास्त्रों में भी तो ऐसे कितने उल्लेख आते हैं, कि जन-साधारण किसी अच्छे फल की चाह से यज्ञ करते थे, तो राक्षस आकर यज्ञ को खंडित कर देते थे. तब वो साधारण लोग डरते थे, परेशान होते थे. ये सब देखकर, वो राक्षस अपनी भयानक हंसी हँसते थे. दूसरों को डराना तो राक्षस ही कर सकते हैं. अब बात तो है, सोचने की, 'आत्म-मंथन' की, कि कहीं सफलता हमें राक्षसी व्यवहार की ओर तो नहीं ले कर जा रही? कहीं हम सिर्फ दूसरों की घृणा के पात्र बन कर तो नहीं रह गए?
सफलता की पगडण्डी बहुत संकरी होती है. पाना तो बहुत कठिन होता है सफलता को, लेकिन इसे संभाल पाना कहीं ज्यादा कठिन होता है. तपस्या से कम नहीं होता..! अगर मनुष्य होकर हम देवता नहीं बन पाए, तो भला राक्षस बन कर भी क्या हासिल कर लिया?  महज़ मनुष्य ही बने रहें, यकीनन, वो भी एक बड़ी उपलब्धि होगी.   

Tuesday, 13 September 2011

अमिताभ का अमित प्रभाव...



'पञ्चकोटि-महामणि', इस लुभावने शब्द्द्वय का उद्घोष करते हुए एक बार फिर आ गए हैं अमिताभ बच्चन, कौन बनेगा करोड़पति की प्रस्तुति करते हुए. और एक बार फिर, चर्चाओं के गलियारे में पूरी तरह छा गया है उनका नाम. जहाँ एक ओर बड़ी धनराशि का आकर्षण काम कर रहा है, वहीँ दूसरी ओर अमिताभ के प्रशंसक अपने मनपसंद अभिनेता की उपस्थिति पसंद कर रहे हैं. वैसे अमिताभ के प्रशंसकों के लिए तो उनकी उपस्थिति ही किसी पञ्चकोटि-महामणि के जैसी है. अगर इस देश में कभी सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्तियों का कोई चुनाव किया जाए, तो कोई छिपी हुई बात नहीं है कि अमिताभ का नाम उस सूची में बहुत ऊपर आएगा. कोई उनके जीवंत अभिनय का कायल है, और कोई उनकी आवाज़ का, कोई उनकी कद-काठी से प्रभावित है, तो किसी के लिए उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही एक आदर्श है. और सिर्फ भारत ही क्यों, वैश्विक पटल पर भी उनका प्रभाव मद्धिम नहीं हो पाता. आज अमिताभ लोकप्रियता के उस शिखर पर खड़े हैं, जहाँ उन्हें देख तो सब सकते हैं, पर छू नहीं सकते. एक आम ज़िन्दगी से ख़ास मुकाम तक का उनका ये सफ़र किसी के लिए भी एक मिसाल है.
और वहीँ दूसरी ओर, कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें अमिताभ बच्चन से कोई विशेष लगाव नहीं है. हाँ, उनके प्रशंसकों को तो ये बात बहुत ही अटपटी लगेगी. पर बेशक, बहुत से ऐसे लोग हैं जो अमिताभ के प्रभाव से अछूते हैं, फिर भले ही ऐसे लोगों का वर्ग बहुत बड़ा न भी हो..! और ये सच है, कि मैं भी उसी छोटे-से वर्ग में से एक हूँ. बचपन से लेकर आज तक, पता नहीं कितनी सारी भूमिकाओं को विविधतापूर्वक निभाते हुए देखा होगा मैंने अमिताभ बच्चन को! पर फिर भी, आज तक कभी मेरी आँखों को उनके व्यक्तित्व की चकाचौंध चुंधिया नहीं पायी. अब ऐसा क्यों है, इस प्रश्न का तो कोई उत्तर नहीं है मेरे पास. स्वीकृति की बात है. यों  भी, पूरे समाज की स्वीकृति एकरंगी भला हो भी कैसे सकती है! अब वो उनका अभिनय-कौशल हों या फिर विज्ञापन-जगत में उनकी बढती पैठ, उनको मिलने वाले पुरस्कारों की संख्या, या छोटे परदे पर उनकी उपस्थिति, या चाहे उनके पूरे परिवार के साथ जुडी हुई अंतर्राष्ट्रीय ख्याति हो, पर इनमे से कोई एक भी कारण मुझे कभी उनके प्रशंसक-वर्ग की सदस्यता नहीं दिला पाया.
पर फिर भी एक बात है उनके जीवन से जुड़ी हुई, जो मेरी दृष्टि में मानवता पर निश्चय ही उनका उपकार है. मुझे याद है, आज से कई वर्ष पूर्व उनका एक साक्षात्कार टेलिविज़न पर प्रसारित हो रहा था. चैनल बदलते हुए, बस यों ही देखना शुरू कर दिया मैंने. उसमे वो बता रहे थे, कि हमारे देश के किसी एक प्रान्त के किसान ऋणग्रस्त होकर आत्मघाती प्रवृत्ति के शिकार हो रहे थे. बहुत से किसान अपने जीवन का अंत कर चुके थे, और बहुत-से और किसान उसी मार्ग की ओर उन्मुख होते नज़र आ रहे थे. केवल दो हज़ार से दस हज़ार रुपये की मामूली-सी ऋण-राशि का भुगतान कर पाने में असमर्थ ये किसान वर्षों से प्रकृति का प्रकोप सह रहे थे. और निकट भविष्य में भी, धन जुटा पाने की कोई दिशा बनती नज़र नहीं आ रही थी. ऐसे में, जीवन जीने की इच्छा का परित्याग ही उनके पास एकमात्र रास्ता था. 
अमिताभ बच्चन ने उस साक्षात्कार में बताया, कि जब उन्हें किसानों की उस त्रासदी के बारे में पता चला, तो उन्होंने बहुत से किसानों की आर्थिक सहायता करके उन्हें ऋणमुक्त कराया, और मृत्यु की ओर जाने से रोका. अपने व्यक्तिगत धन से किसानों की सहायता करके अमिताभ ने उन्हें जीवन की दिशा दी. आज ये बात याद कर मेरे मन में विचार आता है, कि अगर इस दुनिया में मानवता नाम की कोई देवी है कहीं, तो इस पुण्य कर्म के लिए निश्चय ही उन्होंने अमिताभ पर पुष्प-वर्षा की होगी. क्योंकि, ऐसा सुनकर भी असमंजस होता है, कि महज़ दो से दस हज़ार रुपये के लिए, कृषक-वर्ग अपने ही प्राण देने पर उतारू हो गया, और वो भी 'भारत' देश में, जो कि है ही कृषि-प्रधान..!!  
एक इंसान अपनी जान बचाने के लिए क्या नहीं करता! अगर कभी हम हस्पताल में पड़े किसी रोगी से मिलकर देखें, तो बातों-बातों में एक बार तो वो कह ही देगा, कि, "शुक्र है, जो मेरी जान बच गयी" या फिर, "बस ठीक हो जाऊ मैं, फिर पैसा तो भला कितना ही क्यों न लग जाए"...! अपने, या अपने परिजनों के जीवन, और स्वास्थ्य से ज्यादा महंगा हम लोगों को कुछ भी नहीं लगता. हम कुछ भी देने को तैयार हो जाते हैं, सिर्फ अपना जीवन बचाने के लिए! इतना अनमोल लगता है हमें अपना जीवन ! और ऐसे अनमोल जीवन का, महज़ कुछ हज़ार रुपयों के लिए जो अंत करने पर उतर आये हों, सोचने की बात है, ऐसी क्या बीती होगी उन किसानों के मन पर? जीवन जीने से आसान मरना जिन्हें लगा हो, खेद का विषय है, इतना संत्रास उन किसानों के हिस्से में आ गया...! एक संवेदनशील मनुष्य की आँखें डबडबाने  के लिए तो उन किसानो की भाव-स्थिति को समझना ही काफी होगा.
मृत्यु-संकट से घिरे ऐसे किसी व्यक्ति को जीवन-दान देना शायद हम सब के बूते की बात होगी. अगर हम सब अपने-अपने स्तर पर छोटी-छोटी कोशिशें भी करें, तो शायद समाज की बहुत सारी परेशानियां दूर हों जाएँ! लेकिन ऐसी इच्छा-शक्ति हर-एक में कहाँ..! अपने छोटे-से परिवार के लिए जीना तो हमें अच्छी तरह आता है, पर किसी मजबूर की मदद के लिए हमारे पास न वक्त है, न धन है, और न ही कोई योजना. सिमट चुके हैं हम सब लोग अपने-अपने पारिवारिक जीवन के छोटे-छोटे दायरों में. और उन दायरों के बाहर झाँकना आज हमारे लिए मूर्खता भी है, और अप्रासंगिकता भी.
ऐसे में, और किसी बात के लिए तो पता नहीं, पर इस बात के लिए तो, हाँ, अमिताभ ! आपके प्रेशंसक-वर्ग में शामिल होना अब मेरी मजबूरी हों चुकी है. ईश्वर आपको सदा ही इस मानवीय इच्छा-शक्ति से युक्त रखे, असहाय की सहायता के लिए. 
शुभ-कामनाएं, भारत..!!

समाचार-पत्रों में प्रकाशित लेख ( सितम्बर ) ..

 समाचार-पत्रों में प्रकाशित लेख..  ( सितम्बर )



                                        



                                                        

                                        
                               






Friday, 9 September 2011

पक्षी की संवेदना


                                              नीला आसमान व्यापकता का पर्याय है. कितना सुन्दर लगता है नीला गगन, और उस पर फैली हुई रुई-सी सफ़ेद बदलियाँ..! और कई गुना बढ़ जाती है ये सुन्दरता, जब रंग-बिरंगे पंछी अपने पंख पसारकर इस आसमान में उड़ते नज़र आते हैं. मेरी दृष्टि में, इन पंछियों को निहारना में भी एक आनंद-बोध है. सुबह जब सूरज की लालिमा अपने स्नेहिल स्पर्श से पूरे वातावरण को जगाती है, तो उन पलों को अपने मधुर कलरव के संगीत से भर देते हैं ये प्यारे परिंदे. किसी सीमा-परिधि में न बंधे होकर, सवेरे से उन्मुक्त उड़ान भरते ये नन्हे पंछी दिन ढलते ही अपने-अपने घोंसलों में पहुँच जाते हैं. रात-भर चैन से निद्रा की गोद में रहना, और सुबह होते ही, सक्रियता..ऐसे सुन्दर क्रम में चलता है इनका जीवन.
                                              उसके बाद शुरू होती है भोजन की तलाश. किसी 'लघुतम विमान' के जैसे ये पंछी अपनी दैनिक यात्रा शुरू करते हैं, और अनाज के दाने ढूँढने निकलते हैं. अपना पेट भरने के बाद, बाकी दानों को अपनी चोंच में दबा कर ले आते हैं, घोंसले में इंतज़ार कर रहे अपने चूजों के लिए. भोजन तलाशते हुए भले ही उड़ते-उड़ते कितनी भी दूर क्यों न निकल आयें, पर ठीक संध्या-काल पर अपनी जगह पहुँच जाना भी इनकी एक विशेषता होती है.  
                                              बहुत से लोग अपने-अपने घरों के आँगन में मिटटी के सकोरे रख देते हैं, और उनमे इन पक्षियों के लिए दाना-पानी भर देते हैं, ताकि पक्षियों को दूर तक भूखे-प्यासे न भटकना पड़े. छोटे-बड़े पक्षी उड़ते-उड़ते बहुत उंचाई से भी उन सकोरों में रखा भोजन देख लेते हैं, और अपनी भूख-प्यास से निजात पाते हैं. बहुत बार पानी के सकोरों में ये पंछी घुसकर ही बैठ जाते हैं, और नटखट-से हो जाते हैं. पंखों को फड़फडा कर पानी के छपाके उड़ाते रहते हैं. इतनी सुन्दर प्राकृतिक अठखेलियाँ देखकर कभी-कभी अपना वैभवशाली जीवन भी फीका-सा लगता है.  

                                


                                             पक्षियों के प्रति अलग-अलग लोगों का अलग-अलग ही व्यवहार और नजरिया होता है. एक पुण्यशील व्यक्ति उन्हें ईश्वर के मौन-दूत की तरह देखता है. और उन्हें जल-कनक आदि भेंट करके अपने जीवन के कष्ट दूर होने का मार्ग देखता है. प्रकृति-प्रेमियों के लिए तो उनकी उड़ान भी उतनी ही रोमांचक होती है, जितना उनका कूजना-चहकना. और एक बहेलिये के लिए पक्षी का अर्थ होता है, हवा में उड़ते रुपये. जाल में उनके लिए भोजन रखकर वो उन्हें फँसा लेता है, और पकड़ कर अपने भोजन का इंतजाम करता है. इस दर्द से अछूते होकर, कि शायद घोंसले में उन पंछियों की कोई प्रतीक्षा कर रहा होगा, उन निर्दोष-विवश पंछियों को पिंजरे में कैद कर के किसी के आँगन में टांग दिया जाता है. असीम आकाश की निर्भय सैर करने वाले इन पंछियों को एक नन्हा पिंजरा भला क्या सुख दे सकता है? शायद इससे बड़ा अत्याचार कोई हो नहीं सकता, उनके स्वाभाविक जीवन में ! हमारे आस-पास कहीं 'मानवाधिकार' की बात हो, तो पता नहीं कितने स्वर मुखरित हो जायेंगे..! पर पक्षियों के अधिकारों के लिए लड़ने का किसके पास समय होगा ! 
अपने दुर्भाग्य को कोसते हुए, पिंजरे में बंद ये प्राणी, रोते तो होंगे ! पर 'नादान' हम, उनके रूदन को भी उनका गान समझ बैठते हैं, और खुश होते हैं, तालियाँ बजाते हैं. उस वक्त, शायद अचंभित तो होता ही होगा वो पंछी, ये सोचकर, कि विकास के इस उच्चतम सोपान पर खड़े होकर शायद क्रूरता का भी उच्चतम सोपान उपलब्ध हो जाता होगा इन मनुष्यों को! वैसे, क्या हम मनुष्य अपने लिए एक ऐसे जीवन की कल्पना कर सकते हैं, कि जिसमे हमें सुबह-शाम बिना प्रयास किये अच्छा भोजन तो दे दिया जाए, पर रहने के लिए, केवल एक पिंजरा ही हो..! और उसके बाद, जब हम रोएँ, चिल्लाएँ, शिकायत करें, तो सामने खड़े लोग खुश होते नज़र आयें!
                                            पता नहीं, कितना आघातक हो ऐसा ! शायद कोई श्राप ही दे बैठें हम तो उसको! तो क्या वो पक्षी हमें श्राप नहीं देते होंगे? क्या इतनी बड़ी दुनिया में सजावट की वस्तुओं की कोई कमी हो गयी है, जो हम एक मूक जीव की स्वाधीनता का हरण करने में भी नहीं चूके? और वो भी सिर्फ अपने घर की शोभा बढाने की मंशा से? स्वार्थ-परायणता की पराकाष्ठा शायद इसी को कहते हैं. प्रकृति में बहुत पवित्रता और पारदर्शिता होती है. ऐसे में, सर्वथा प्राकृतिक जीवन जीने वाले इन पक्षियों की संवेदना पर प्रहार का परिणाम भी पारदर्शिता से भरा हुआ ही होता है. उस प्रहार से उपजी उनकी पीड़ा जब हमारे जीवन के साथ जुडती है, तो सुख का संगीत तो नहीं आ सकता हमारे जीवन में..! 
                                           इसलिए, प्रत्येक जीवन का सम्मान करते हुए, हमें इन नन्हे पक्षियों को उनके सुन्दर गगन में ही विहार करने देना चाहिए, यही उनकी स्वाधीनता, और हमारी प्रज्ञा के लिए अपेक्षित है.

Thursday, 8 September 2011

बातें भूली-बिसरी सी. . .


कहते हैं, कि बीते हुए कल के बारे में सोचना समय की बर्बादी है. क्योंकि अब वो बदला नहीं जा सकता. और आने वाले कल के बारे में सोचना भी समय की बर्बादी है. क्योंकि वो तो अज्ञात ही है. हम जानते ही नहीं हैं, कि कल क्या होगा, कैसा होगा. इसलिए, वर्तमान में ही जीना चाहिए, वर्तमान को ही जीना चाहिए, भरपूर !
यों, मेरी भी यही सोच है. पर कभी-कभी, कोई ऐसी हवा चल ही पड़ती है, जिससे जीवन की किताब के वो पन्ने खुल जाते हैं, जिन्हें हम 'अतीत' कहते हैं. और ऐसे ही, अचानक, एक बचपन का वाकया याद आ गया.
सातवी कक्षा की बात है. ग्यारह साल उम्र थी मेरी. हमारी इंग्लिश की क्लास एक सर लिया करते थे. वो एक रजिस्टर उठा कर आया करते थे, और उसमे लिखे हुए उत्तर हम लोगों को लिखवाया करते थे. एक दिन, मेरी एक मित्र कहीं से एक गाइड ले आई, और उसने हमें उसमे लिखे प्रश्न-उत्तर दिखाए. हमारी आँखें फटी की फटी रह गयी. ज्यों-के-त्यों, वही जवाब ! हम सब बच्चे, जो अपने अध्यापक के प्रति बहुत सम्मान का भाव रखते थे, गुस्से से भर गए. और दबी आवाज़ में, एक खिलाफत करने लगे. कुछ दिनों तक तो ऐसे ही चला. और फिर, एक दिन हवा में उड़ता-उड़ता, किसी क्रांतिकारी का भूत हमारी क्लास में आ गया. पता नहीं, और कोई नहीं मिला उसे, मेरे ही सर पर सवार हो गया वो. फिर क्या था, मैंने पूरी क्लास के सामने, अपने अध्यापक से कह दिया, कि,  "सर, आप गाइड में से देखकर पढ़ाते हैं. " मुझे आज भी उनकी प्रतिक्रिया याद है. वो तो जैसे सुन्न-से ही हो गए. और हैरत से चिल्लाए कि, "क्या !! मैं गाइड से पढाता हूँ ?" मैंने भी निडर होकर कहा, कि, "हाँ, आपका पढ़ाया गया एक-एक शब्द गाइड से लिया गया है." कुछ क्षण वो चुप रहे. फिर उन्होंने बताया, कि जिस रजिस्टर में से देखकर वो लिखवाते हैं, वो उनका नहीं, एक अन्य अध्यापिका का है. और वो उनसे पूछ कर बताएँगे. उनकी इस बात पर मुझे संतुष्टि हो गयी. क्योंकि जिन अध्यापिका का नाम उन्होंने लिया था, उनके हाथ में अक्स़र ही वो रजिस्टर दिखा करता था. 
दो-तीन दिन के बाद उन अध्यापिका ने मुझे बुलाया. तकरीबन पंद्रह मिनट तक वो मुझसे बात करती रही. उसे बात की जगह डांट कहना ज्यादा सही रहेगा. और उस डांट के अंतिम शब्दों को भुला पाना मेरे लिए लगभग नामुमकिन है. उन्होंने मुझसे कहा था, कि, " अगर आप अपने टीचर के बारे में ऐसी बात कहोगे, तो आपको स्कूल से निकाल दिया जायेगा." उनकी और कोई बात तो मुझे हिला भी नहीं पायी थी, पर स्कूल से निकालने की धमकी काम कर गयी. क्रांतिकारी का भूत तो वापिस उसी हवा में विलुप्त हो गया, जिसमे से वो प्रकट हुआ था. और ग्यारह साल की वो बच्ची, घबरा कर चुप हो गयी. वो कल्पना भी मेरे लिए भयानक थी, कि कल कोई मेरे बारे मे ऐसा कह रहा हो, कि " उसे स्कूल से निकाल दिया गया है."
हालाँकि वो मुद्दा कोई इतना बड़ा नहीं था, पर फिर भी अध्यापिका ने अपनी छोटी-सी अक्षमता छिपाने के लिए एक छोटे से बच्चे को डराया-धमकाया, और उसे निडरता और सच्चाई की उस स्वाभाविक प्रवृति से दूर कर दिया, जो उसमे ज़ोर मार रही थी. मुझे अपनी स्वाभाविक अवस्था में वापिस आने में काफी समय लग गया. और तब तक वो अध्यापिका मेरे जीवन से बहुत दूर जा चुकी थी. 
इस बात को याद कर के मन में बहुत सारे सवाल उठते हैं. जैसे, क्यों हम अपनी गलतियां छिपाने के लिए किसी दूसरे को भयग्रस्त करने से भी नहीं चूकते ? अगर हम योग्य नहीं हैं, तो योग्यता का झूठा दंभ कब तक पाल पाएंगे ? और क्यों नहीं हम ये समझ पाते, कि उस झूठे दंभ को पालते हुए, हम अपने ही समाज को गन्दा कर रहे है ? 
शिक्षण-संस्थान में तो ये बात और भी अखरती है. जिस स्थान में एक बच्चे को पढ़ा-लिखा कर एक संपूर्ण नागरिक बनाने की आशा की जाती है, वहीँ ऐसा धोखा हो, तो भविष्य का स्वस्थ समाज कैसे निर्मित हो पायेगा भला ?
हाल ही में गुज़रा है शिक्षक दिवस. शायद बहुत से शिक्षकों को पुनर्मंथंन की आवश्यकता है.

शुभ-कामनाएं, भारत..!!!