Friday, 30 September 2011

अब भी समय है..


ये बदलता हुआ मौसम कितना अच्छा लगता है..! लम्बी गर्मियों का 'फिर मिलेंगे' कहकर विदा लेना, और सर्दी का दबे-पैर हवाओं में शामिल होना. लम्बे समय से गुपचुप-गुमसुम से दिखते गुलाब के पौधों पर भी रंगों की तरंगों की अठखेलियों का मौसम..! और इस सुहानी वेला के साथ-साथ पवित्रता का, शुभता का, नवरात्र का शुभ आगमन. शक्ति-उपासना का पावन समय. व्रत-उपासना का उपयुक्त अवसर, और कन्या-पूजन की तैयारियां ! 
ऐसे ही याद आ रहा है, कि बचपन में ऐसी बातें आम सुनाई देती थी, कि कन्याओं में तो साक्षात माँ दुर्गा का वास होता है. बच्चों के मुख से साक्षात भगवान् बोलते हैं. उस वक़्त सुनकर बहुत अच्छा भी लगता था, और थोड़ा-सा अजीब भी. अच्छा इसलिए, क्योंकि एक सम्मान की दृष्टि मिलती थी हम लोगों के प्रति, छोटा बच्चा होते हुए भी. वैसे भी, सम्मान प्राप्त करना तो सबको ही मीठा लगता है. और अजीब इसलिए लगता था, क्योंकि उस समय भी मन में सवालों के बादल मंडराते रहते थे. "कहाँ है मुझमे दुर्गा, मैं तो बस ये ही हूँ !  जैसे सभी बड़े हैं, वैसे ही तो हम बच्चे हैं..! अगर हममे भगवान् हैं, तो उनमें क्यों नहीं?" बहुत कुछ इसी तरह के तर्क आया करते थे मन में ऐसी बातें सुनकर.
पर हमेशा ही, ये जवाब सुनने के बाद बड़े मुस्कुरा दिया करते थे. और आज बड़े होने के बाद, याद कर के मुझे भी हँसी आती है अपनी वो बातें. लेकिन अब इन बातों के पीछे छिपा मर्म भी थोड़ा-थोड़ा समझ आने लगा है. उस समय ऐसी बात से लगता था, कि क्या कोई मोरपंख सिर पर लगा कर, या धनुष-बाण हाथ में धारण किये हुए भगवान् हैं, जो हम बच्चों के मन के भीतेर छिपे हुए हैं? कैसे रहते होंगे मन में छिपकर? वैसे बड़े ही बाल-सुलभ, और स्वाभाविक-से सवाल हैं ये..! 
पर आज इतना तो समझ आया ही है, कि भगवान् की परिभाषा ही दरअसल गलत गढ़ रखी थी हम लोगों ने. भगवान् किसी आकार-विशेष का नाम है क्या? क्या सिर्फ चमत्कार ही भगवत्ता का प्रमाण हैं? मेरी समझ में तो, 'बिलकुल नहीं'. भगवान्, यानि कि पवित्रता, सत्यता, स्वाभाविकता. जहां ये गुण हैं, वहीँ है भगवत्ता..! और बच्चों से तो दूर ही कहाँ होते हैं ये गुण! प्रकृति की पवित्रतम अवस्था जहां अभिव्यक्त होती है, उसी का तो नाम'शिशु' है. जैसे-जैसे हम बड़े होते चले जाते हैं, प्रकृति से विकृति की ओर यात्रा करते चले जाते हैं. बड़े होते-होते, पवित्रता को किसी प्राचीन युग का आभूषण समझ बैठते हैं, जो आज दृष्ट्प्राय ही नहीं है. सत्यता को इस नाम और दाम के युग में कोई नहीं जानता. और स्वाभाविकता, आज के बनावटी युग में क्या काम है उसका? और इसीलिए 'भगवत्ता' का अंश भी आयु बढ़ने से साथ-साथ क्रमिक रूप से घटता चला जाता है. तो इस नज़रिए से, हाँ, आज मुझे भी वो बात बिलकुल सच ही लगती है, कि बच्चों में भगवान् बोलते हैं. वैसे, मूर्ति वाले भगवान् ने तो न कभी जवाब दिया, न देंगे. पर इन नन्हे बच्चों के पास तो शब्दों के भण्डार रहते हैं. किसी की समस्या का हल भले ही उन शब्दों में न हो. पर इस बात से तो हम कभी इन्कार नहीं कर सकते, कि बच्चों की बातें सुनने भर से ही मन प्रसन्न हो जाता है. ये नन्हें बच्चे तो हर पल वाचाल होकर दुनिया को सुन्दर बनाते रहते हैं. 

अपनी चंचलता और सरलता के रंगों से, दुनिया नाम के इस व्यापक चलचित्र को एक सुखद अनुभव बनाने वाला ये बचपन यूँ चहकता, महकता-सा ही अच्छा लगता है. बचपन की बगिया से फूटने वाले प्रसन्नता के पुष्पों से ही तो जगत नामक इस वाटिका की शोभा हैं. बस इस बात का डर है, कि बड़ों की दुनिया की स्वार्थ-परायणता, कठोरता, और भयावहता देख कहीं ये बचपन डर कर संकुचित न हो जाए! दुनिया की कालिख कहीं इस निर्मल बचपन को भी गन्दला न कर दे! और कहीं ये सुनेहरा बचपन अपनी स्वाभाविक मुस्कान न खो दे...
कितना अच्छा हो, अगर इस बदलते मौसम के साथ हमारे मिज़ाज भी कुछ बदल जाएँ, और जिस उच्चता-पवित्रता को हम मूर्ति में ढूंढते रह जाते हैं, उसे अपने आस-पास ही टटोल सकें. भगवान् सचमुच दूर नहीं लगेंगे.
नवरात्र सबके लिए मंगलमय हों.

3 comments:

Yashwant R. B. Mathur said...

कल 17/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अच्छी प्रस्तुति

Media and Journalism said...

बहुत-बहुत धन्यवाद