गति-नियंत्रण आधुनिकता पर..
आधुनिक युग, आधुनिक रंग-ढंग, पूरी जीवन-शैली पर ही आधुनिकता की चादर चढ़ी है आज. जीवन का कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं है आज आधुनिकता के प्रभाव से. तकनीकी विकास तो हम सबके जीवन को क्रांतिकारी रूप से प्रभावित कर रहा है . विचारों का आदान-प्रदान विश्व के किन्ही भी हिस्सों में आज इतनी सरलता, और द्रुत गति से हो पाता है, कि जैसे आमने-सामने ही खड़े हों. और इस क्रांति का सीधा प्रभाव हमारे जीवन-स्तर, और जीवन के ढंग पर पड़ा है. भौगोलिक दूरियाँ आज के दौर में पूरी तरह से अपने मायने खो चुकी हैं. अत्याधुनिक तकनीकी-कौशल के युग में उपकरणों की भूमिका बहुत मुखर हो चुकी है. कह सकते हैं, कि इस युग की खूबी है, एक बेहतर जीवन-शैली, बशर्ते हम युग की रफ़्तार के साथ अपने कदम मिलकर चल सकें.
आधुनिक युग, आधुनिक रंग-ढंग, पूरी जीवन-शैली पर ही आधुनिकता की चादर चढ़ी है आज. जीवन का कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं है आज आधुनिकता के प्रभाव से. तकनीकी विकास तो हम सबके जीवन को क्रांतिकारी रूप से प्रभावित कर रहा है . विचारों का आदान-प्रदान विश्व के किन्ही भी हिस्सों में आज इतनी सरलता, और द्रुत गति से हो पाता है, कि जैसे आमने-सामने ही खड़े हों. और इस क्रांति का सीधा प्रभाव हमारे जीवन-स्तर, और जीवन के ढंग पर पड़ा है. भौगोलिक दूरियाँ आज के दौर में पूरी तरह से अपने मायने खो चुकी हैं. अत्याधुनिक तकनीकी-कौशल के युग में उपकरणों की भूमिका बहुत मुखर हो चुकी है. कह सकते हैं, कि इस युग की खूबी है, एक बेहतर जीवन-शैली, बशर्ते हम युग की रफ़्तार के साथ अपने कदम मिलकर चल सकें.
पर इस रफ़्तार के साथ कदम मिलाना उस सूरत में बेमानी हो जाता है, जब हम सड़क
पर इस रफ़्तार के साथ खेलने की कोशिश करने लगते हैं. आज के युवाओं में
'बाइक्स' का चाव नशे का रूप ले चुका है. और सिर्फ युवा ही क्यों, किशोरों
में भी कम क्रेज़ नहीं नज़र आता, बाइक्स और गाड़ियों को लेकर. बारह-तेरह साल
की उम्र में तो बाइक का हेंडल संभालना फितरत बन चुकी है. फिर भले ही इस
उम्र का किशोर शारीरिक और मानसिक स्तर पर इतना मज़बूत हो या न, कि भीड़-भाड़
भरी सड़क पर उसे चला सकें. पर अभिभावक भी इस पर कोई आपत्ति नहीं जताते. एक
चलती सड़क पर दिमाग की जिस मुस्तैदी की अपेक्षा किसी वाहन-चालाक से की जाती
है, वो बारह-तेरह साल की कच्ची उम्र में तो उपलब्ध नहीं हो पाती. पर
माता-पिता तो इसे भी गौरव का विषय ही समझते हैं, कि उनकी कम-उम्र संतान के
पास वाहन चलाने का गुर है. कभी-कभी तो मुंह हैरत से खुला ही रह जाता है, जब
सड़क पर चलते हुए कुछ ऐसे भी लोग नज़र आ जाते हैं, जो केवल छः-सात वर्ष के
अपने बालक को गाड़ी चलाना सिखा रहे होते हैं. मन में सवाल आता है, कि
क्यों? क्या ये कोई ऐसी उपलब्धि है, जिसके बिना आपके बालक का बचपन अधूरा
है? या फिर क्या गाड़ी चला लेने से आपका बालक कोई विश्व-विजेता बन जायेगा?
ऐसा तो नहीं है कुछ भी. तो फिर शायद हम अपना कोई दंभ ही पोसते रहते हैं
छोटे बच्चों को वाहन चलाने का प्रशिक्षण देते हुए. लेकिन हम ये क्यों भूल
जाते हैं, कि छोटे बच्चे पूरी दक्षता से वाहन चला ही नहीं सकते? जान का
जोखिम है इसमें, दोनों ओर से आ रहे लोगों के लिए. अठारह वर्ष से कम उम्र के
लोगों के लिए मोटर-वाहन चलाने का प्रावधान तो विधि-निषिद्ध ही है. तभी तो
वाहन चलाने का लाइसंस भी निर्धारित आयु के बाद ही बनता है. पर हम तो कानून
तोड़ने से भी नहीं चूकते.
और इसका ये भी मतलब नहीं है, कि अठारह वर्ष के होते ही हम अंधाधुंध
वाहन चलाने लग जाएँ. गति-नियम, यातायात के नियमों का पालन तो हर हाल में
होना ही चाहिए. आज के आधुनिकतावादी माता-पिता अपनी किशोर-युवा संतान की ऐसी
इच्छाएं आँख मूँद कर पूरी कर दिया करते हैं. नतीजों से बेपरवाह, ऐसे
माता-पिता के लिए अपने बच्चों की हर इच्छा पूरी करना ही प्राथमिकता होती
है. और विलासिता के नशे में चूर वो बच्चे सड़क पर ही करतब करने से नहीं
चूकते. बेशक, ये जोखिम की चरम सीमा है. ताजातरीन उदहारण तो हम सबके सामने
ही है, जब भारतीय क्रिकेट के पूर्व-कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन के पुत्र एक
अत्याधुनिक और बेशकीमती बाइक की सवारी करते हुए गंभीर रूप से घायल होकर
मृत्यु-ग्रस्त हो गए. ईश्वर न करे कि ऐसा किसी के भी साथ हो, लेकिन अगर सिर्फ
दुआओं से ही ये दुनिया खूबसूरत हो पाती, तो भला इया प्रकार के लेख लिखे जाने की ज़रूरत ही क्या थी? कुछ वर्ष पूर्व उत्सव नामक एक किशोर ने अपने अमीर पिता की बहुत
महंगी गाडी चलाते हुए एक राहगीर को कुचल दिया था. 'हाई-प्रोफाइल'
दुर्घटनाएं होती हैं, तो सबकी नज़रें खुद-बखुद ही उस ओर चली जाती हैं. पर
आम-जीवन में भी ऐसी दुर्घटनाएं कम नहीं होती. उदाहरणों की क्या कमी है, पर
मूल विषय ये है, कि अभिभावकों का अपने बच्चों की हर ऐसी इच्छा पूरी करना,
जिसके लिए वो शाररिक-मानसिक रूप से तैयार नहीं है, निश्चय ही एक
गैर-जिम्मेदाराना कदम है. इस हद तक गलत, कि जो किसी को मौत के मुह में
भी धकेल सकता है. और वो कोई 'कोई' भी हो सकता है. एक और भी बात है. आँकड़े
कहते हैं, कि पूरे विश्व में, सड़क हादसों से होने वाली मृत्यु की दर हमारे
देश में सर्वाधिक है. कारण सोचे जाने की ज़रूरत है. या शायद खुद से पूछने की
ही ज़रूरत है.
जब तक अपने दिखावे के इस रवैये से युक्त होकर हम इन चीज़ों को
'स्टेटस-सिम्बल' के साथ जोड़ते रहेंगे, तब तक आधुनिकता के बगीचे के फूल तो
भले ही हमें महकाते रहेंगे, पर कांटे भी बराबर चुभते रहेंगे. और गौर करने
की बात है, कि इन में से कुछ कांटे विषैले, और जानलेवा भी होते हैं.
कम-से-कम वयस्क होने से पूर्व तो साइकिल की सवारी ही होनी चाहिए. जहां एक
ओर इससे पर्यावरण-प्रदूषण की समस्या घटेगी, वहीँ पेट्रोल-डीज़ल की मांग भी
कुछ कम हो पाएगी. साइकिल जैसी सवारी को भीड़-भाड़ में से निकाल लेना कोई
बड़ी मुश्किल नहीं है. इसलिए, इसके इस्तेमाल से आम हो चुकी जाम की समस्या
पर भी लगाम लग सकती है. बाकी सब बातों के साथ-साथ, साइकिल चलाना एक बहुत अच्छा व्यायाम भी है,
जिसके लिए अलग से वक्त निकाल पाना आधुनिक जीवन-शैली में आसानी से नही
हो पाता. साइकिल का प्रयोग आधुनिक जगत में उठ रही कई समस्याओं से निजात
दिला सकता है.
आधुनिकता की होड़ तक तो ठीक है. पर अन्धानुकरण तो किसी भी चीज़ का
हितकारी नहीं है. इसलिए, आधुनिकता की दौड़ का हिस्सा तो हम ख़ुशी-ख़ुशी
बनें, पर गति-नियंत्रण की अहमियत को न भूलते हुए.
शुभकामनाएँ.
2 comments:
आलेख मे कही गयी आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ।
सादर
आपके विचारों का स्वागत है. आभार.
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