Thursday, 8 September 2011

बातें भूली-बिसरी सी. . .


कहते हैं, कि बीते हुए कल के बारे में सोचना समय की बर्बादी है. क्योंकि अब वो बदला नहीं जा सकता. और आने वाले कल के बारे में सोचना भी समय की बर्बादी है. क्योंकि वो तो अज्ञात ही है. हम जानते ही नहीं हैं, कि कल क्या होगा, कैसा होगा. इसलिए, वर्तमान में ही जीना चाहिए, वर्तमान को ही जीना चाहिए, भरपूर !
यों, मेरी भी यही सोच है. पर कभी-कभी, कोई ऐसी हवा चल ही पड़ती है, जिससे जीवन की किताब के वो पन्ने खुल जाते हैं, जिन्हें हम 'अतीत' कहते हैं. और ऐसे ही, अचानक, एक बचपन का वाकया याद आ गया.
सातवी कक्षा की बात है. ग्यारह साल उम्र थी मेरी. हमारी इंग्लिश की क्लास एक सर लिया करते थे. वो एक रजिस्टर उठा कर आया करते थे, और उसमे लिखे हुए उत्तर हम लोगों को लिखवाया करते थे. एक दिन, मेरी एक मित्र कहीं से एक गाइड ले आई, और उसने हमें उसमे लिखे प्रश्न-उत्तर दिखाए. हमारी आँखें फटी की फटी रह गयी. ज्यों-के-त्यों, वही जवाब ! हम सब बच्चे, जो अपने अध्यापक के प्रति बहुत सम्मान का भाव रखते थे, गुस्से से भर गए. और दबी आवाज़ में, एक खिलाफत करने लगे. कुछ दिनों तक तो ऐसे ही चला. और फिर, एक दिन हवा में उड़ता-उड़ता, किसी क्रांतिकारी का भूत हमारी क्लास में आ गया. पता नहीं, और कोई नहीं मिला उसे, मेरे ही सर पर सवार हो गया वो. फिर क्या था, मैंने पूरी क्लास के सामने, अपने अध्यापक से कह दिया, कि,  "सर, आप गाइड में से देखकर पढ़ाते हैं. " मुझे आज भी उनकी प्रतिक्रिया याद है. वो तो जैसे सुन्न-से ही हो गए. और हैरत से चिल्लाए कि, "क्या !! मैं गाइड से पढाता हूँ ?" मैंने भी निडर होकर कहा, कि, "हाँ, आपका पढ़ाया गया एक-एक शब्द गाइड से लिया गया है." कुछ क्षण वो चुप रहे. फिर उन्होंने बताया, कि जिस रजिस्टर में से देखकर वो लिखवाते हैं, वो उनका नहीं, एक अन्य अध्यापिका का है. और वो उनसे पूछ कर बताएँगे. उनकी इस बात पर मुझे संतुष्टि हो गयी. क्योंकि जिन अध्यापिका का नाम उन्होंने लिया था, उनके हाथ में अक्स़र ही वो रजिस्टर दिखा करता था. 
दो-तीन दिन के बाद उन अध्यापिका ने मुझे बुलाया. तकरीबन पंद्रह मिनट तक वो मुझसे बात करती रही. उसे बात की जगह डांट कहना ज्यादा सही रहेगा. और उस डांट के अंतिम शब्दों को भुला पाना मेरे लिए लगभग नामुमकिन है. उन्होंने मुझसे कहा था, कि, " अगर आप अपने टीचर के बारे में ऐसी बात कहोगे, तो आपको स्कूल से निकाल दिया जायेगा." उनकी और कोई बात तो मुझे हिला भी नहीं पायी थी, पर स्कूल से निकालने की धमकी काम कर गयी. क्रांतिकारी का भूत तो वापिस उसी हवा में विलुप्त हो गया, जिसमे से वो प्रकट हुआ था. और ग्यारह साल की वो बच्ची, घबरा कर चुप हो गयी. वो कल्पना भी मेरे लिए भयानक थी, कि कल कोई मेरे बारे मे ऐसा कह रहा हो, कि " उसे स्कूल से निकाल दिया गया है."
हालाँकि वो मुद्दा कोई इतना बड़ा नहीं था, पर फिर भी अध्यापिका ने अपनी छोटी-सी अक्षमता छिपाने के लिए एक छोटे से बच्चे को डराया-धमकाया, और उसे निडरता और सच्चाई की उस स्वाभाविक प्रवृति से दूर कर दिया, जो उसमे ज़ोर मार रही थी. मुझे अपनी स्वाभाविक अवस्था में वापिस आने में काफी समय लग गया. और तब तक वो अध्यापिका मेरे जीवन से बहुत दूर जा चुकी थी. 
इस बात को याद कर के मन में बहुत सारे सवाल उठते हैं. जैसे, क्यों हम अपनी गलतियां छिपाने के लिए किसी दूसरे को भयग्रस्त करने से भी नहीं चूकते ? अगर हम योग्य नहीं हैं, तो योग्यता का झूठा दंभ कब तक पाल पाएंगे ? और क्यों नहीं हम ये समझ पाते, कि उस झूठे दंभ को पालते हुए, हम अपने ही समाज को गन्दा कर रहे है ? 
शिक्षण-संस्थान में तो ये बात और भी अखरती है. जिस स्थान में एक बच्चे को पढ़ा-लिखा कर एक संपूर्ण नागरिक बनाने की आशा की जाती है, वहीँ ऐसा धोखा हो, तो भविष्य का स्वस्थ समाज कैसे निर्मित हो पायेगा भला ?
हाल ही में गुज़रा है शिक्षक दिवस. शायद बहुत से शिक्षकों को पुनर्मंथंन की आवश्यकता है.

शुभ-कामनाएं, भारत..!!!  

No comments: