Wednesday 21 December 2011

मेरी धरती, या वो तारा...

आसमान के तारे निहारने का एक लम्बा तजुर्बा है मुझे. ऐसा लगता है, कि कई जन्मों का लगाव चल रहा होगा मेरा तारों के साथ! तारे निहारते-निहारते कभी-कभी तो ऐसा भी लगता है, कि कुछ तारों क साथ मेरी कुछ पहचान-सी हो गयी है. उनसे निकलने वाली धवल-नीली रौशनी अपनी-अपनी लगती है. कभी -कभी तारों की ज़मीं छूने का मन करता है. उस रौशनी में खो जाने की ख्वाहिश होने लगती है. यहाँ, मेरी दुनिया में तो बहुत मन नहीं लगता मेरा..! जल्दी-जल्दी बदलते मौसम, और उससे भी जल्दी बदलते मिज़ाज! मेरी दुनिया अब कुछ मैली-मैली सी लगती है. कब दोस्त दुश्मनों में बदल जाएँ, कुछ पता ही नहीं! भावनाएं मानो किसी सुरक्षित स्थान पर तालाबंद कर दी गयी हों. किसी के हाथों में सौंपा हुआ हमारा विश्वास यहाँ किसी भी पल चूर-चूर हो सकता है. सुन्दर, रोशन चेहरे तो हमारे यहाँ भी होते हैं, पर वो रौशनी, वो सुन्दरता सिर्फ थोपी हुई होती है, सतही होती है. 
उस ऊपरी सतह के पीछे का सच भी हालाँकि भयानक तो नहीं होता. पर फिर भी, सच्चाई में जीना पसंद ही नहीं किया जाता अब मेरी दुनिया में. नयेपन के युग में, सच्चाई को पुरानेपन का दर्जा दिया जा चुका है. और पुरानी चीज़ें तो एक झटके में ही अस्वीकृत कर दी जाती हैं. कहीं खुलेआम विषवमन किया जाता है, तो कहीं पीठ में छुरा घोंपा जाता है. मेरी दुनिया में न तो अब पीने को निर्मल पानी ही मिलता है, और न ही साँस लेने को शुद्ध हवा. सब कुछ मिलावटी हो चुका है. यहाँ की ज़मीं पर भी अब उतना विश्वास नहीं रहा. कभी भी भूचाल आ जाता है यहाँ. असुरक्षा से भरा हुआ है जीवन इस दुनिया में. इसलिए, टिमटिमाते हुए तारे देखते हुए, मेरी आँखें भी आशा से टिमटिमाने लगती हैं. वहाँ न तो कोई पीठ पीछे वार करने वाला होगा, और न ही कोमल भावनाओं पर निष्ठुर प्रहार करने वाला कोई होगा. 
वहाँ की हवा, पानी में अप्राकृतिक तत्व नहीं होंगे. सब कुछ विशुद्ध होगा. और विश्वसीय भी. पर एक बात, जो अभी-अभी मन में प्रकाशित हो रही है, मुझे कुछ सोचने पर मजबूर कर रही है. वहाँ कोई अपने तो होंगे ही नहीं!
तो क्या अपनों के बिना वो तारे, वो रौशनी मुझे सचमुच लुभा पायेंगे? दो टूक जवाब है, 'बिलकुल नहीं'. हाँ, मैली-मैली सी हो तो गयी है दुनिया मेरी, पर अपनों का साथ हो, तो कठिन से कठिन रास्ते भी आसान हो ही जाते हैं.और फिर, मैली हो भी गयी है तो क्या हुआ! हम यत्न करेंगे, इसे फिर से सुन्दर बनाने का! यों भी, दूसरे का महल कितना भी सुन्दर, और आरामदायक क्यों न हो,और हमारे हिस्से में झोंपडपट्टी ही क्यों न आई हो, सुकून तो अपने घर में ही होता है. मेरी धरती ही मेरा स्वर्ग है.

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