Friday 7 October 2011

यही बाकी निशाँ होगा..??



अभी कुछ ही दिन पहले भारत देश के दो ऐसे सपूतों का जन्मदिवस था, जो हर दृष्टि से आदर्श के सांचे में आते हैं. २८ सितम्बर को शहीद भगत सिंह का, और २ अक्टूबर को पंडित लाल बहादुर शास्त्री जी का. एक ने पराधीन भारत की अस्मिता वापिस लाने की कोशिश में अपने प्राण आहूत कर दिए, तो दूसरे ने अपनी सच्चरिता और सादगी से प्रधानमन्त्री पद की गरिमा बढ़ाई. दोनों के ही जन्मदिवस पर मेरी आँखों ने समाचार पत्रों को खूब जाँचा. देश के राजनैतिक पटल की ढेरों ख़बरें, अभिनय-जगत की रंग-बिरंगी तस्वीरें, और क्या नहीं! लेकिन राष्ट्रभक्ति के नाम अपना जीवन समर्पित करने वालों के लिए कोई उल्लेखनीय बात कहीं नहीं मिली.  दूर-दराज में कोई अभिनेता आये, तो उसकी ख़बरें बढ़-चढ़ कर छापी भी जायेंगे, और पढ़ी भी जायेंगी. उन्होंने कब क्या कहा, से लेकर उनके परिधानों के रंग तक चर्चा का विषय बने रहेंगे. लेकिन  क्रान्ति का बिगुल बजाने वाले, देश के लिए शहीद किसी नवयुवक के लिए एक अदद  कोना अपनी जगह खोजता रह जाता है. विचारणीय बात ये है, कि ये अक्षमता समाचार-पत्रों की है, या पाठकों की? मेरी दृष्टि में, अगर किसी को दोष दिया जाना चाहिए, तो वो हैं पाठक. समाचार-पत्र तो एक व्यवसाय के अंतर्गत अपना कार्य करते हैं. 'जो बिकता है, वही छपता है' के मूलवाक्य के साथ, उन्हें तो जनता की रुचि की नब्ज़ टटोलनी बखूबी आती है. और पाठक, उन्हें चाहिए, मसाला. उनकी खुराक है, चटपटी ख़बरें, जिन्हें पढने में उनका मनोरंजन होता हो. इतना ही नहीं, ऐसे चमकीले चेहरों को ही अपना आदर्श कहना उन्हें अच्छा लगता है. पर मेरी दृष्टि में, ये लोग भारत के 'रत्न' तो नहीं, 'भारत-पतन' ज़रूर कहे जा सकते हैं. उनका अनुकरण हमें किस दिशा में ले कर जायेगा, वो शायद बताने की ज़रूरत नहीं है. चलिए, व्यक्तिगत रुचि की बात है. इस पर क्या अंगुली उठानी! पर प्रश्न ये है, कि इस रवैये के बाद, हम अपने देश से कोई उम्मीद क्यों करते हैं? क्या दिया है हमने अपने देश को, जो वापसी में कुछ हमें भी मिले? अपने-अपने स्तर पर, जितना हो पाया, उतना 'फायदा' उठाने से तो हम चूके नहीं कभी! लेकिन एक समर्थ राष्ट्र के निर्माण के लिए, क्या कभी कोई भूमिका निभा पाए हम? अगर हम जागरूक नहीं हैं, तो शिकायत करने का भी हक़ नहीं है हमें! एक कहावत है, कि 'सोये हुए शेर के मुह में हिरन खुद नहीं आया करता'. अपने क्षुद्र स्वार्थों को पूरा करने के लिए तो हम एक झटके में ही अपनी नींद तोड़ दिया करते हैं! पर जब बारी आती है राष्ट्र-निर्माण की, तो वो हम दूसरों पर छोड़ना पसंद करते हैं. और यही तो कारण है, कि आज के समाज में कोई दूसरा भगत सिंह पैदा नहीं हो पाया! इन हालात में, ये विचार ज़रूर आता है, कि और कुछ नहीं, तो वर्ष में एक दिन ही सही, इतना जानने का तो प्रयास कर ही लिया जाना चाहिए, कि किन हालात में मृत्यु का मार्ग चुनना ज्यादा ज़रूरी हो गया होगा भगत सिंह के लिए! या फिर नैतिकता के साथ भी कर्तव्य-वहन कैसे किया शास्त्री जी ने! पर वो तो तब न, जब हमारे मन के सुप्त शेर को भ्रष्टाचार के सुनहरे हिरन का शिकार करने में कोई रुचि हो..! पर वो एक दिन भी, महंगा लगता है अब हमें..
और शायद,
वतन पर मिटने वालों का 'नहीं' बाकी निशाँ होगा..




4 comments:

Yashwant R. B. Mathur said...

आपकी पोस्ट की हलचल आज (09/10/2011को) यहाँ भी है

Media and Journalism said...

आभारी हूँ.

सागर said...

behtreen post...

Media and Journalism said...

आप का धन्यवाद