Friday, 9 September 2011

पक्षी की संवेदना


                                              नीला आसमान व्यापकता का पर्याय है. कितना सुन्दर लगता है नीला गगन, और उस पर फैली हुई रुई-सी सफ़ेद बदलियाँ..! और कई गुना बढ़ जाती है ये सुन्दरता, जब रंग-बिरंगे पंछी अपने पंख पसारकर इस आसमान में उड़ते नज़र आते हैं. मेरी दृष्टि में, इन पंछियों को निहारना में भी एक आनंद-बोध है. सुबह जब सूरज की लालिमा अपने स्नेहिल स्पर्श से पूरे वातावरण को जगाती है, तो उन पलों को अपने मधुर कलरव के संगीत से भर देते हैं ये प्यारे परिंदे. किसी सीमा-परिधि में न बंधे होकर, सवेरे से उन्मुक्त उड़ान भरते ये नन्हे पंछी दिन ढलते ही अपने-अपने घोंसलों में पहुँच जाते हैं. रात-भर चैन से निद्रा की गोद में रहना, और सुबह होते ही, सक्रियता..ऐसे सुन्दर क्रम में चलता है इनका जीवन.
                                              उसके बाद शुरू होती है भोजन की तलाश. किसी 'लघुतम विमान' के जैसे ये पंछी अपनी दैनिक यात्रा शुरू करते हैं, और अनाज के दाने ढूँढने निकलते हैं. अपना पेट भरने के बाद, बाकी दानों को अपनी चोंच में दबा कर ले आते हैं, घोंसले में इंतज़ार कर रहे अपने चूजों के लिए. भोजन तलाशते हुए भले ही उड़ते-उड़ते कितनी भी दूर क्यों न निकल आयें, पर ठीक संध्या-काल पर अपनी जगह पहुँच जाना भी इनकी एक विशेषता होती है.  
                                              बहुत से लोग अपने-अपने घरों के आँगन में मिटटी के सकोरे रख देते हैं, और उनमे इन पक्षियों के लिए दाना-पानी भर देते हैं, ताकि पक्षियों को दूर तक भूखे-प्यासे न भटकना पड़े. छोटे-बड़े पक्षी उड़ते-उड़ते बहुत उंचाई से भी उन सकोरों में रखा भोजन देख लेते हैं, और अपनी भूख-प्यास से निजात पाते हैं. बहुत बार पानी के सकोरों में ये पंछी घुसकर ही बैठ जाते हैं, और नटखट-से हो जाते हैं. पंखों को फड़फडा कर पानी के छपाके उड़ाते रहते हैं. इतनी सुन्दर प्राकृतिक अठखेलियाँ देखकर कभी-कभी अपना वैभवशाली जीवन भी फीका-सा लगता है.  

                                


                                             पक्षियों के प्रति अलग-अलग लोगों का अलग-अलग ही व्यवहार और नजरिया होता है. एक पुण्यशील व्यक्ति उन्हें ईश्वर के मौन-दूत की तरह देखता है. और उन्हें जल-कनक आदि भेंट करके अपने जीवन के कष्ट दूर होने का मार्ग देखता है. प्रकृति-प्रेमियों के लिए तो उनकी उड़ान भी उतनी ही रोमांचक होती है, जितना उनका कूजना-चहकना. और एक बहेलिये के लिए पक्षी का अर्थ होता है, हवा में उड़ते रुपये. जाल में उनके लिए भोजन रखकर वो उन्हें फँसा लेता है, और पकड़ कर अपने भोजन का इंतजाम करता है. इस दर्द से अछूते होकर, कि शायद घोंसले में उन पंछियों की कोई प्रतीक्षा कर रहा होगा, उन निर्दोष-विवश पंछियों को पिंजरे में कैद कर के किसी के आँगन में टांग दिया जाता है. असीम आकाश की निर्भय सैर करने वाले इन पंछियों को एक नन्हा पिंजरा भला क्या सुख दे सकता है? शायद इससे बड़ा अत्याचार कोई हो नहीं सकता, उनके स्वाभाविक जीवन में ! हमारे आस-पास कहीं 'मानवाधिकार' की बात हो, तो पता नहीं कितने स्वर मुखरित हो जायेंगे..! पर पक्षियों के अधिकारों के लिए लड़ने का किसके पास समय होगा ! 
अपने दुर्भाग्य को कोसते हुए, पिंजरे में बंद ये प्राणी, रोते तो होंगे ! पर 'नादान' हम, उनके रूदन को भी उनका गान समझ बैठते हैं, और खुश होते हैं, तालियाँ बजाते हैं. उस वक्त, शायद अचंभित तो होता ही होगा वो पंछी, ये सोचकर, कि विकास के इस उच्चतम सोपान पर खड़े होकर शायद क्रूरता का भी उच्चतम सोपान उपलब्ध हो जाता होगा इन मनुष्यों को! वैसे, क्या हम मनुष्य अपने लिए एक ऐसे जीवन की कल्पना कर सकते हैं, कि जिसमे हमें सुबह-शाम बिना प्रयास किये अच्छा भोजन तो दे दिया जाए, पर रहने के लिए, केवल एक पिंजरा ही हो..! और उसके बाद, जब हम रोएँ, चिल्लाएँ, शिकायत करें, तो सामने खड़े लोग खुश होते नज़र आयें!
                                            पता नहीं, कितना आघातक हो ऐसा ! शायद कोई श्राप ही दे बैठें हम तो उसको! तो क्या वो पक्षी हमें श्राप नहीं देते होंगे? क्या इतनी बड़ी दुनिया में सजावट की वस्तुओं की कोई कमी हो गयी है, जो हम एक मूक जीव की स्वाधीनता का हरण करने में भी नहीं चूके? और वो भी सिर्फ अपने घर की शोभा बढाने की मंशा से? स्वार्थ-परायणता की पराकाष्ठा शायद इसी को कहते हैं. प्रकृति में बहुत पवित्रता और पारदर्शिता होती है. ऐसे में, सर्वथा प्राकृतिक जीवन जीने वाले इन पक्षियों की संवेदना पर प्रहार का परिणाम भी पारदर्शिता से भरा हुआ ही होता है. उस प्रहार से उपजी उनकी पीड़ा जब हमारे जीवन के साथ जुडती है, तो सुख का संगीत तो नहीं आ सकता हमारे जीवन में..! 
                                           इसलिए, प्रत्येक जीवन का सम्मान करते हुए, हमें इन नन्हे पक्षियों को उनके सुन्दर गगन में ही विहार करने देना चाहिए, यही उनकी स्वाधीनता, और हमारी प्रज्ञा के लिए अपेक्षित है.

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