Tuesday 15 November 2011

दुनिया के समंदर में...


 एक कुशल तैराक की परीक्षा तो पानी में उतरने के बाद ही हो सकती है. रेत पर कोई चाहे, तो बेशक तैराक की तरह हाथ-पैर चला ले! पर इतने भर से, उसकी तैराकी सिद्ध नहीं हो पाती. हम लोग भी, किताबें पढ़-पढ़ कर, कर्तव्य-अकर्तव्य की बातें तो खूब दोहरा लेते हैं. पर हकीकत की ज़मीन पर खड़े होने के बाद, उन शब्दों को याद-भर कर पाना भी मुश्किल हो जाता है कभी-कभी!
कुछ दिन पहले मेरा चॉकलेट खाने का मन किया. दुकान पर पहुँचते ही, एक सात-आठ साल का बच्चा दिखा. हाथ में कटोरा था, जो उसने मेरी ओर बढ़ा दिया. पढ़-सुन रखा है, कि भिक्षा-वृत्ति को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए. इसलिए, मैंने उसे अनदेखा कर दिया. पर वो भी जैसे, ठान कर ही खड़ा था. जिद करने लगा कि, "पैसे दे दो, पैसे दे दो". परेशान होकर मैंने पूछा कि, "क्या करेगा पैसों का?" और वो बोला, "पटाखे लूँगा". "पटाखे जलाना अच्छी बात नहीं होती", कहकर मैंने उसे टालने की कोशिश की. पर वो तो, मानने वालों में से था ही नहीं. बोला, "भूख लगी है. सुबह से कुछ नहीं खाया". दोपहर हो रही थी उस वक्त. एक पल के लिए मन में विचार आया, कि झूठ बोल रहा होगा. पर दूसरे ही पल ये लगा, कि कहीं सच बोल रहा हो तो..! और ज्यादा तर्क-वितर्क न करते हुए, मैंने उसे कुछ पैसे दे दिए. पैसे लेकर जब वो जाने लगा, तो जाने क्यों, मेरी आँखें उसका पीछा करने लगी. हैरत! वो भी मुड़-मुड़ कर बार-बार देखता. अब मुझे शक होने लगा, कि कहीं ये पैसों का कुछ दुरूपयोग न करना चाहता हो..! और मुझे अपने ऊपर अफ़सोस होने लगा. लेकिन अब क्या हो सकता था!
इस बात को बमुश्किल एक हफ्ता गुज़रा होगा, जब मुझे रास्ते पर चलते हुए एक गरीब बच्ची मिल गयी. इतनी प्यारी, कि उसे देखते ही मेरे मुँह पर मुस्कान आ गयी. और वो मुस्कान थी, या उसके लिए हरी झंडी! वो तो दुगने वेग से मुस्कुराई, इस आशा के साथ, कि आज का दिन तो बन गया. उसकी आँखों की टिमटिम मुझे आज भी याद है. पर मुझे वो पिछला संस्मरण भी अच्छी तरह याद था. मैंने उसे आगे बढ़ने का इशारा कर दिया. उसने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे रोकने की कोशिश की. हाँ, ये शायद मेरी उस मुस्कान का ही किया-धरा था. पर इस बार मेरा बचाव-तंत्र मज़बूत था. "गलत बात है माँगना", कहकर मैंने हाथ छुड़ा लिया. 
अगले दिन, उसी रास्ते से निकलते हुए, फुटपाथ पर बैठी उसी बच्ची को मैंने देखा. और एक ही पल में मुझे उसकी पहचान आ गयी. उसकी आँखों की मायूसी बता रही थी, कि उसने भी मुझे पहचान लिया है. मैंने मुँह दूसरी ओर घुमा लिया. इस बार मैंने ठीक वही किया था, जो मेरी समझ में सही था. पर तब भी, कुछ अनकहा-सा, अनसमझा-सा अफ़सोस खुद पर हो रहा था.  सच, इस दुनिया के समंदर में तैर पाना बहुत मुश्किल है.  

11 comments:

Yashwant R. B. Mathur said...

बहुत ही अच्छा लिखा है आपने।

सादर

Media and Journalism said...

बहुत-बहुत धन्यवाद आपका..! सादर आभार..!

Rajesh Kumari said...

bahut achcha likha hai sach me kabhi kabhi kuch logon ke karan sahi logo par bhi bharosa nahi hota
beshaq bheekh ko badhava nahi dena chahiye magar sachmuch jo bhookha ho use na de to bhi afsos hota hai.tumhare man ki uljhan sahi hai.mere yahan bhi aaiye.

Sunil Kumar said...

दिल से लिखी गयी और दिल पर असर करने वाली रचना

Media and Journalism said...

प्रोत्साहन देने के लिए आप सब का हार्दिक आभार..! :)

Yashwant R. B. Mathur said...

कल 25/11/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

Media and Journalism said...

एक सुन्दर अवसर के लिए पुन:-पुन: हार्दिक आभार.. :)

Media and Journalism said...

आप सब को ये जान कर प्रसन्नता होगी, कि मेरी इस रचना के आधार पर जागरण-जंक्शन पर मुझे "ब्लॉगर ऑफ़ द वीक" घोषित किया गया है.
:)

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

यही हैं जीवन के रंग ...अच्छी प्रस्तुति ..विचारणीय

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

सचमुच! एक सार्थक आलेख....
ब्लॉगर आफ द वीक बनने की लिये बधाइयां...
सादर...

Media and Journalism said...

आप सब का पुन:-पुन: हार्दिक आभार.. :)