ये एक ज़िन्दगी, और हज़ारों ख्वाहिशें..!! हर पल हम कुछ न कुछ चाहते रहते हैं. इच्छाओं का झोला कभी खाली नहीं हो पाता. और इन हज़ार-लाख ख्वाहिशों का रूप-रंग भले ही एक दूसरे से कितना भी जुदा क्यों न हो, उनके पीछे छिपी भावना तो एक-सी ही होती है, 'स्वामित्व' की, 'बड़प्पन' की..! अपने सामजिक कद से हम कभी संतुष्ट नहीं हो पाते हैं, और भले ही कितनी भी ऊँचाई क्यों न छू लें, और भी ऊँचे होने का ख्वाब हमेशा जिंदा रहता है हमारी आँखों में.
अब सोचने की बात तो ये है, कि आखिर हम इतनी ऊंचाई पर पहुंचना ही क्यों चाहते हैं? ये बड़प्पन की चाह किसलिए? ज़्यादातर लोग तो सफलता की चाह इसलिए करते हैं, क्योंकि जितनी ज्यादा हमारी सामाजिक सफलता होती है, उतनी ही ज्यादा हमारी सामाजिक पैठ हो जाती है. सफलता मिलते ही दोस्त-रिश्तेदार-शुभचिंतक रातोंरात बढ़ जाते हैं. और हम मगन हो जाते हैं उनके साथ अपनी सफलता का जश्न मनाने में. हर दिन त्यौहार-सा हो जाता है. चमक-दमक, बुलावा-दिखावा, मौज-मस्ती, ये सब सफलता के झोंके के साथ खुद-बखुद आ जाया करते है. कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जो इस जश्न का दायरा सिर्फ अपने इर्द-गिर्द तक ही सीमित नहीं रखते, पर अपने समाज, अपने राष्ट्र के प्रति अपना सरोकार याद रखते हुए कुछ नेक काम भी करते हैं. पर ऐसे लोगों की संख्या तो इतनी कम होती है, कि अँगुलियों पर भी गिने जा सकें..! 'अल्पसंख्यक' भी कह सकते हैं!
एक और भी ख़ास किस्म का सफल समुदाय होता है. ये वो लोग होते हैं, जो अपनी हर सफलता का कर(टैक्स) दूसरों से वसूलना पसंद करते हैं. चूँकि इनके पास सफलता है, इसलिए ये अपने सभी अधिकार अच्छी तरह याद रखते हैं. और 'कर्तव्य', उस पर तो लम्बा भाषण दे सकते हैं. लेकिन उन्ही कर्तव्यों को निभाना, ये लोग एक 'अनधिकार चेष्टा' सा समझते हैं. उन्हें अच्छा लगता है, सामने खड़े हर व्यक्ति का दमन करना, शोषण करना. और हक़ के लिए उठ रही आवाज़ को दबाना. अपनी हर गलती दूसरों के माथे मढ़ देना उन्हें बखूबी आता है. निर्दोष को धमकाना तो उनका प्रिय शगल होता है. सामने खड़ा आदमी जब उनकी बात से थर-थर काँपता है, तो आत्म-मुग्ध होकर वो ऐसा सोचते हैं, कि ,"वाह! कितने प्रभावशाली हैं हम..! "
बहुत-से लोग मिल जायेंगे ऐसे, हमारे आस-पास ही! या शायद खुद हम ही. क्या ऐसा व्यवहार-प्रदर्शन हमें प्रभावशाली बनाता है? मेरे नज़रिए की बात कहूँ, तो, ऐसा लगता है, कि ये तो हमारे 'खोखलेपन' का प्रमाण-पत्र है, जो हम खुद ही थमा रहे होते हैं, दूसरों के हाथों में. या यूँ कहें, कि अपनी कमजोरी दूसरों के समक्ष एक 'रचनात्मक' ढंग से बयान कर रहे होते हैं. एक मानसिक रूप से पंगु व्यक्ति ही ऐसी असुरक्षा से घिरा हुआ हो सकता है. कभी अपने मातहत, कभी घरेलु नौकर-चाकर, और कभी-कभी तो सगे-सम्बन्धियों को भी अपमानित करने से नहीं चूकते हम. अगर वाकई हमारी बात में वज़न है, तो चिल्ला कर बताने की किसे ज़रूरत है? और अगर किसी को भयभीत करना ही हमारी सफलता का परिचायक है, तो इसका तो यही मतलब है, कि हमारे जीवन पर 'राक्षसों' का प्रभाव है. हाँ. किसी को डराना-धमकाना साधारण मनुष्यों का लक्षण कहाँ होता है? शास्त्रों में भी तो ऐसे कितने उल्लेख आते हैं, कि जन-साधारण किसी अच्छे फल की चाह से यज्ञ करते थे, तो राक्षस आकर यज्ञ को खंडित कर देते थे. तब वो साधारण लोग डरते थे, परेशान होते थे. ये सब देखकर, वो राक्षस अपनी भयानक हंसी हँसते थे. दूसरों को डराना तो राक्षस ही कर सकते हैं. अब बात तो है, सोचने की, 'आत्म-मंथन' की, कि कहीं सफलता हमें राक्षसी व्यवहार की ओर तो नहीं ले कर जा रही? कहीं हम सिर्फ दूसरों की घृणा के पात्र बन कर तो नहीं रह गए?
सफलता की पगडण्डी बहुत संकरी होती है. पाना तो बहुत कठिन होता है सफलता को, लेकिन इसे संभाल पाना कहीं ज्यादा कठिन होता है. तपस्या से कम नहीं होता..! अगर मनुष्य होकर हम देवता नहीं बन पाए, तो भला राक्षस बन कर भी क्या हासिल कर लिया? महज़ मनुष्य ही बने रहें, यकीनन, वो भी एक बड़ी उपलब्धि होगी.
6 comments:
कल 21/09/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
जानकर बहुत ख़ुशी हुई, आपका हार्दिक धन्यवाद.
अगर मनुष्य होकर हम देवता नहीं बन पाए, तो भला राक्षस बन कर भी क्या हासिल कर लिया? महज़ मनुष्य ही बने रहें, यकीनन, वो भी एक बड़ी उपलब्धि होगी.
सुंदर संदेश ,सार्थक लेख , बधाई ।
bahut badhia likha hai ....
badhai...
bahut uttam lekh maanav ko prakarti se sabak lena chahiye faldar vraksh humesha jhuk jata hai.apne ko narm aur sahaj banaaye rakhne me hi sabse badi safakta hai.achcha sandesh deta hua aapka yeh aalekh kabile taareef hai.
आप सब का हार्दिक धन्यवाद..! :o)
Post a Comment