Thursday 22 September 2011

वो बचपन की बातें..



कभी-कभी एक शब्द ही बहुत होता है बचपन की भूली-बिसरी यादों को ज़िन्दा करने के लिए.. अभी-अभी कहीं से सर्कस शब्द सुना, और एक पुराना झरोखा खुल गया, जिसमे झाँक कर देखना एक प्यारी मजबूरी बन गयी थी. पांच साल की उम्र थी मेरी, जब हमारे शहर में सर्कस लगी थी. हम भाई-बहन को स्कूल से सीधे सर्कस पहुंचाने की हिदायत रिक्शा-चालक को दे दी गयी थी, पर हम लोगों को इसके बारे में कुछ पता नहीं था. एक सरप्राइज़ था. जब रिक्शा सर्कस के आगे जा रुका, तो हम लोग बहुत हैरान हुए. "कहीं चालक किसी गलती से तो ऐसा नहीं कर रहा, या कहीं किसी और बच्चे को तो यहाँ नहीं उतारना",  जैसे कई ख़याल एक ही मिनट में हमारे दिमाग में आ गए. लेकिन इतने में ही हम दोनों ने अपनी माँ को हमारी ओर आते देखा. एक भरपूर मुस्कराहट से उनका स्वागत हुआ. मुस्कराहट इतनी ज़ोरदार थी, कि कह सकते हैं कि होंठ कानों को छूने लगे. उसके बाद तो एक-एक कदम जिस हैरानी, ख़ुशी और कौतुहल से अन्दर की ओर बढ़ा, उसका एहसास आज भी ज्यों का त्यों ताज़ा है. सुन रखा था, कि सर्कस में जानवर होते हैं, शेर, बन्दर, और पता नहीं कौन-कौन.. मन जैसे हवा में उड़ रहा था.. 
 हम अन्दर पहुँच कर कुर्सियों पर बैठ गए. और  कुछ ही देर में शो शुरू हुआ. जानवरों के करतब..जो कि हैरत-अंगेज़ होते ही हैं, शुरू हुए. वहाँ , पंडाल में बैठे हुए, शायद ही कोई ऐसा कोना हो, जिस ओर मैंने अपनी नज़र न घुमाई हो. मेरे स्कूल से और कौन-कौन से बच्चे आये हैं, और कौन-कौन लोग हैं, जिन्हें हम जानते हैं, ये सब जासूसी कर डाली. 
दो-तीन घंटे में शो ख़तम हो गया होगा. मेरे लिए, ये सब एक बिलकुल नया अनुभव था, और उस उम्र तक कहुं, तो तब तक का सबसे शानदार अनुभव. जैसे पंख लग गए हों, ऐसे उड़ते हुए हम घर पहुंचे. कितने दिन तक इसी उन्माद में हम झूमते रहे,  भले ही बहुत बचपन की बात है, पर मुझे आश्चर्यजनक रूप से बिलकुल ठीक-ठीक याद है. कुछ महीनों बाद, मैंने उस दिन की यादें अपनी माँ के साथ ताज़ा करनी चाही. मैंने उन्हें बताया, कि जितना अच्छा उन जानवरों को देखने में लग रहा था, उससे भी अच्छा शो तो सर्कस  की छत पर हो रहा था. मेरी माँ ने हैरान हो कर पूछा, कि छत पर कौन सा शो हो रहा था ? तब मैंने उन्हें याद दिलाने की कोशिश की, कि वहाँ कई लोग करतब दिखा रहे थे. साफ़ शब्दों में, माँ ने मुझे बताया, कि ऐसा तो कुछ भी नहीं हुआ था उस शो में, और सर्कस तो नीचे ही हो रही थी. 
तब मुझे समझ आया, कि जो कुछ मैंने देखा था, वो मेरी कल्पना की उड़ान थी. खुद ही, मैंने पता नहीं क्या-क्या ख्वाब बुन लिए थे वहाँ बैठे-बैठे..और उन का मज़ा भी खूब लिया. हालांकि बात तो कुछ अनोखी नहीं है, लेकिन जब वो कल्पनाशीलता याद आती है, तो मन में एक मुस्कान-सी आ जाती है. ऐसा ही कच्ची-मिटटी का-सा  होता है बाल-मन... माता-पिता पूरे जतन से उन्हें कहीं घुमाने ले जाते हैं, एक नया अनुभव दिलाने के लिए, लेकिन उन्हें, अपने सपनो से फुर्सत ही नहीं होती... !
यों निजी तौर पर आज की तारीख़ में मुझे सर्कस की अवधारणा भी कुछ अच्छी नहीं लगती. पशुओं के स्वाभाविक अधिकारों का हनन लगता है ये.   पर स्मृतियों के पन्ने पर अंकित वो चित्र कई बातें सोचने पर मजबूर कर देते हैं. आज के समय की सोचें, तो ऐसा लगता है कि  वो बचपन तो आज के दौर में शायद लुप्त-प्राय ही हो चुका है. आज के दौर में लुप्त-प्राय ही हो चुका है . आज के बचपन में न तो वैसी ललक-पुलक है, न वो आजादी.  न मिटटी में धूल-धूसरित होना, और न बारिश में मोर की तरह झूमना. काग़ज़ की कश्तियाँ तो शायद एक ऐतिहासिक पुर्जे के जैसी हो चुकी हैं. पर वोही तो कशिश थी बचपन में!   आज का बच्चा शायद अपने पिता से भी ज्यादा तकनालाजी की बात जानता हो, लेकिन भोलापन... वो क्या होता है, उसे नहीं पता..
और ये सोच कर लगता है, कि 'बचपन' नामक विकास का सोपान भी एक दिन संग्रहालय में ही जाना जा सकेगा.. क्योंकि तब शरीर से वो भले ही बच्चे हों, लेकिन दिमाग से, प्रौढ़ के जैसे होंगे. अच्छा हो, कि ऐसे किसी कडवे सच का सामना करने से पहले ही हम एक बेहतर कदम उठा लें..!


4 comments:

Sunil Kumar said...

बचपन की यादों से आरम्भ कर सच्च्चाई से यथार्थ और संवेदना की बात करना अच्छा लगा .......

Media and Journalism said...

आभार..! ऐसे शब्द निश्चय ही मुझे प्रेरित करते हैं..!

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...






आपको नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार

Media and Journalism said...

विश्व-मंगल की कामना. धन्यवाद.