Friday, 30 September 2011

अब भी समय है..


ये बदलता हुआ मौसम कितना अच्छा लगता है..! लम्बी गर्मियों का 'फिर मिलेंगे' कहकर विदा लेना, और सर्दी का दबे-पैर हवाओं में शामिल होना. लम्बे समय से गुपचुप-गुमसुम से दिखते गुलाब के पौधों पर भी रंगों की तरंगों की अठखेलियों का मौसम..! और इस सुहानी वेला के साथ-साथ पवित्रता का, शुभता का, नवरात्र का शुभ आगमन. शक्ति-उपासना का पावन समय. व्रत-उपासना का उपयुक्त अवसर, और कन्या-पूजन की तैयारियां ! 
ऐसे ही याद आ रहा है, कि बचपन में ऐसी बातें आम सुनाई देती थी, कि कन्याओं में तो साक्षात माँ दुर्गा का वास होता है. बच्चों के मुख से साक्षात भगवान् बोलते हैं. उस वक़्त सुनकर बहुत अच्छा भी लगता था, और थोड़ा-सा अजीब भी. अच्छा इसलिए, क्योंकि एक सम्मान की दृष्टि मिलती थी हम लोगों के प्रति, छोटा बच्चा होते हुए भी. वैसे भी, सम्मान प्राप्त करना तो सबको ही मीठा लगता है. और अजीब इसलिए लगता था, क्योंकि उस समय भी मन में सवालों के बादल मंडराते रहते थे. "कहाँ है मुझमे दुर्गा, मैं तो बस ये ही हूँ !  जैसे सभी बड़े हैं, वैसे ही तो हम बच्चे हैं..! अगर हममे भगवान् हैं, तो उनमें क्यों नहीं?" बहुत कुछ इसी तरह के तर्क आया करते थे मन में ऐसी बातें सुनकर.
पर हमेशा ही, ये जवाब सुनने के बाद बड़े मुस्कुरा दिया करते थे. और आज बड़े होने के बाद, याद कर के मुझे भी हँसी आती है अपनी वो बातें. लेकिन अब इन बातों के पीछे छिपा मर्म भी थोड़ा-थोड़ा समझ आने लगा है. उस समय ऐसी बात से लगता था, कि क्या कोई मोरपंख सिर पर लगा कर, या धनुष-बाण हाथ में धारण किये हुए भगवान् हैं, जो हम बच्चों के मन के भीतेर छिपे हुए हैं? कैसे रहते होंगे मन में छिपकर? वैसे बड़े ही बाल-सुलभ, और स्वाभाविक-से सवाल हैं ये..! 
पर आज इतना तो समझ आया ही है, कि भगवान् की परिभाषा ही दरअसल गलत गढ़ रखी थी हम लोगों ने. भगवान् किसी आकार-विशेष का नाम है क्या? क्या सिर्फ चमत्कार ही भगवत्ता का प्रमाण हैं? मेरी समझ में तो, 'बिलकुल नहीं'. भगवान्, यानि कि पवित्रता, सत्यता, स्वाभाविकता. जहां ये गुण हैं, वहीँ है भगवत्ता..! और बच्चों से तो दूर ही कहाँ होते हैं ये गुण! प्रकृति की पवित्रतम अवस्था जहां अभिव्यक्त होती है, उसी का तो नाम'शिशु' है. जैसे-जैसे हम बड़े होते चले जाते हैं, प्रकृति से विकृति की ओर यात्रा करते चले जाते हैं. बड़े होते-होते, पवित्रता को किसी प्राचीन युग का आभूषण समझ बैठते हैं, जो आज दृष्ट्प्राय ही नहीं है. सत्यता को इस नाम और दाम के युग में कोई नहीं जानता. और स्वाभाविकता, आज के बनावटी युग में क्या काम है उसका? और इसीलिए 'भगवत्ता' का अंश भी आयु बढ़ने से साथ-साथ क्रमिक रूप से घटता चला जाता है. तो इस नज़रिए से, हाँ, आज मुझे भी वो बात बिलकुल सच ही लगती है, कि बच्चों में भगवान् बोलते हैं. वैसे, मूर्ति वाले भगवान् ने तो न कभी जवाब दिया, न देंगे. पर इन नन्हे बच्चों के पास तो शब्दों के भण्डार रहते हैं. किसी की समस्या का हल भले ही उन शब्दों में न हो. पर इस बात से तो हम कभी इन्कार नहीं कर सकते, कि बच्चों की बातें सुनने भर से ही मन प्रसन्न हो जाता है. ये नन्हें बच्चे तो हर पल वाचाल होकर दुनिया को सुन्दर बनाते रहते हैं. 

अपनी चंचलता और सरलता के रंगों से, दुनिया नाम के इस व्यापक चलचित्र को एक सुखद अनुभव बनाने वाला ये बचपन यूँ चहकता, महकता-सा ही अच्छा लगता है. बचपन की बगिया से फूटने वाले प्रसन्नता के पुष्पों से ही तो जगत नामक इस वाटिका की शोभा हैं. बस इस बात का डर है, कि बड़ों की दुनिया की स्वार्थ-परायणता, कठोरता, और भयावहता देख कहीं ये बचपन डर कर संकुचित न हो जाए! दुनिया की कालिख कहीं इस निर्मल बचपन को भी गन्दला न कर दे! और कहीं ये सुनेहरा बचपन अपनी स्वाभाविक मुस्कान न खो दे...
कितना अच्छा हो, अगर इस बदलते मौसम के साथ हमारे मिज़ाज भी कुछ बदल जाएँ, और जिस उच्चता-पवित्रता को हम मूर्ति में ढूंढते रह जाते हैं, उसे अपने आस-पास ही टटोल सकें. भगवान् सचमुच दूर नहीं लगेंगे.
नवरात्र सबके लिए मंगलमय हों.

Thursday, 22 September 2011

वो बचपन की बातें..



कभी-कभी एक शब्द ही बहुत होता है बचपन की भूली-बिसरी यादों को ज़िन्दा करने के लिए.. अभी-अभी कहीं से सर्कस शब्द सुना, और एक पुराना झरोखा खुल गया, जिसमे झाँक कर देखना एक प्यारी मजबूरी बन गयी थी. पांच साल की उम्र थी मेरी, जब हमारे शहर में सर्कस लगी थी. हम भाई-बहन को स्कूल से सीधे सर्कस पहुंचाने की हिदायत रिक्शा-चालक को दे दी गयी थी, पर हम लोगों को इसके बारे में कुछ पता नहीं था. एक सरप्राइज़ था. जब रिक्शा सर्कस के आगे जा रुका, तो हम लोग बहुत हैरान हुए. "कहीं चालक किसी गलती से तो ऐसा नहीं कर रहा, या कहीं किसी और बच्चे को तो यहाँ नहीं उतारना",  जैसे कई ख़याल एक ही मिनट में हमारे दिमाग में आ गए. लेकिन इतने में ही हम दोनों ने अपनी माँ को हमारी ओर आते देखा. एक भरपूर मुस्कराहट से उनका स्वागत हुआ. मुस्कराहट इतनी ज़ोरदार थी, कि कह सकते हैं कि होंठ कानों को छूने लगे. उसके बाद तो एक-एक कदम जिस हैरानी, ख़ुशी और कौतुहल से अन्दर की ओर बढ़ा, उसका एहसास आज भी ज्यों का त्यों ताज़ा है. सुन रखा था, कि सर्कस में जानवर होते हैं, शेर, बन्दर, और पता नहीं कौन-कौन.. मन जैसे हवा में उड़ रहा था.. 
 हम अन्दर पहुँच कर कुर्सियों पर बैठ गए. और  कुछ ही देर में शो शुरू हुआ. जानवरों के करतब..जो कि हैरत-अंगेज़ होते ही हैं, शुरू हुए. वहाँ , पंडाल में बैठे हुए, शायद ही कोई ऐसा कोना हो, जिस ओर मैंने अपनी नज़र न घुमाई हो. मेरे स्कूल से और कौन-कौन से बच्चे आये हैं, और कौन-कौन लोग हैं, जिन्हें हम जानते हैं, ये सब जासूसी कर डाली. 
दो-तीन घंटे में शो ख़तम हो गया होगा. मेरे लिए, ये सब एक बिलकुल नया अनुभव था, और उस उम्र तक कहुं, तो तब तक का सबसे शानदार अनुभव. जैसे पंख लग गए हों, ऐसे उड़ते हुए हम घर पहुंचे. कितने दिन तक इसी उन्माद में हम झूमते रहे,  भले ही बहुत बचपन की बात है, पर मुझे आश्चर्यजनक रूप से बिलकुल ठीक-ठीक याद है. कुछ महीनों बाद, मैंने उस दिन की यादें अपनी माँ के साथ ताज़ा करनी चाही. मैंने उन्हें बताया, कि जितना अच्छा उन जानवरों को देखने में लग रहा था, उससे भी अच्छा शो तो सर्कस  की छत पर हो रहा था. मेरी माँ ने हैरान हो कर पूछा, कि छत पर कौन सा शो हो रहा था ? तब मैंने उन्हें याद दिलाने की कोशिश की, कि वहाँ कई लोग करतब दिखा रहे थे. साफ़ शब्दों में, माँ ने मुझे बताया, कि ऐसा तो कुछ भी नहीं हुआ था उस शो में, और सर्कस तो नीचे ही हो रही थी. 
तब मुझे समझ आया, कि जो कुछ मैंने देखा था, वो मेरी कल्पना की उड़ान थी. खुद ही, मैंने पता नहीं क्या-क्या ख्वाब बुन लिए थे वहाँ बैठे-बैठे..और उन का मज़ा भी खूब लिया. हालांकि बात तो कुछ अनोखी नहीं है, लेकिन जब वो कल्पनाशीलता याद आती है, तो मन में एक मुस्कान-सी आ जाती है. ऐसा ही कच्ची-मिटटी का-सा  होता है बाल-मन... माता-पिता पूरे जतन से उन्हें कहीं घुमाने ले जाते हैं, एक नया अनुभव दिलाने के लिए, लेकिन उन्हें, अपने सपनो से फुर्सत ही नहीं होती... !
यों निजी तौर पर आज की तारीख़ में मुझे सर्कस की अवधारणा भी कुछ अच्छी नहीं लगती. पशुओं के स्वाभाविक अधिकारों का हनन लगता है ये.   पर स्मृतियों के पन्ने पर अंकित वो चित्र कई बातें सोचने पर मजबूर कर देते हैं. आज के समय की सोचें, तो ऐसा लगता है कि  वो बचपन तो आज के दौर में शायद लुप्त-प्राय ही हो चुका है. आज के दौर में लुप्त-प्राय ही हो चुका है . आज के बचपन में न तो वैसी ललक-पुलक है, न वो आजादी.  न मिटटी में धूल-धूसरित होना, और न बारिश में मोर की तरह झूमना. काग़ज़ की कश्तियाँ तो शायद एक ऐतिहासिक पुर्जे के जैसी हो चुकी हैं. पर वोही तो कशिश थी बचपन में!   आज का बच्चा शायद अपने पिता से भी ज्यादा तकनालाजी की बात जानता हो, लेकिन भोलापन... वो क्या होता है, उसे नहीं पता..
और ये सोच कर लगता है, कि 'बचपन' नामक विकास का सोपान भी एक दिन संग्रहालय में ही जाना जा सकेगा.. क्योंकि तब शरीर से वो भले ही बच्चे हों, लेकिन दिमाग से, प्रौढ़ के जैसे होंगे. अच्छा हो, कि ऐसे किसी कडवे सच का सामना करने से पहले ही हम एक बेहतर कदम उठा लें..!


Wednesday, 21 September 2011

गति-नियंत्रण आधुनिकता पर..

गति-नियंत्रण आधुनिकता पर..
आधुनिक युग, आधुनिक रंग-ढंग, पूरी जीवन-शैली पर ही आधुनिकता की चादर चढ़ी है आज. जीवन का कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं है आज आधुनिकता के प्रभाव से. तकनीकी विकास तो हम सबके जीवन को क्रांतिकारी रूप से प्रभावित कर रहा है . विचारों का आदान-प्रदान विश्व के किन्ही भी हिस्सों में आज इतनी सरलता, और द्रुत गति से हो पाता है, कि जैसे आमने-सामने ही खड़े हों. और इस क्रांति का सीधा प्रभाव हमारे जीवन-स्तर, और जीवन के ढंग पर पड़ा है. भौगोलिक दूरियाँ आज के दौर में पूरी तरह से अपने मायने खो चुकी हैं. अत्याधुनिक तकनीकी-कौशल के युग में उपकरणों की भूमिका बहुत मुखर हो चुकी है. कह सकते हैं, कि इस युग की खूबी है, एक बेहतर जीवन-शैली, बशर्ते हम युग की रफ़्तार के साथ अपने कदम मिलकर चल सकें.
पर इस रफ़्तार के साथ कदम मिलाना उस सूरत में बेमानी हो जाता है, जब हम सड़क पर इस रफ़्तार के साथ खेलने की कोशिश करने लगते हैं. आज के युवाओं में 'बाइक्स' का चाव नशे का रूप ले  चुका है. और सिर्फ युवा ही क्यों, किशोरों में भी कम क्रेज़ नहीं नज़र आता, बाइक्स और गाड़ियों को लेकर. बारह-तेरह साल की उम्र में तो बाइक का हेंडल संभालना फितरत बन चुकी है. फिर भले ही इस उम्र का किशोर शारीरिक और मानसिक स्तर पर इतना मज़बूत हो या न, कि भीड़-भाड़ भरी सड़क पर उसे चला सकें. पर अभिभावक भी इस पर कोई आपत्ति नहीं जताते. एक चलती सड़क पर दिमाग की जिस मुस्तैदी की अपेक्षा किसी वाहन-चालाक से की जाती है, वो  बारह-तेरह साल की कच्ची उम्र में तो उपलब्ध नहीं हो पाती. पर माता-पिता तो इसे भी गौरव का विषय ही समझते हैं, कि उनकी कम-उम्र संतान के पास वाहन चलाने का गुर है. कभी-कभी तो मुंह हैरत से खुला ही रह जाता है, जब सड़क पर चलते हुए कुछ ऐसे भी लोग नज़र आ जाते हैं, जो केवल छः-सात वर्ष के अपने बालक को गाड़ी चलाना सिखा रहे होते हैं. मन में सवाल आता है, कि क्यों? क्या ये कोई ऐसी उपलब्धि है, जिसके बिना आपके बालक का बचपन अधूरा है? या फिर क्या गाड़ी चला लेने से आपका बालक कोई विश्व-विजेता बन जायेगा? ऐसा तो नहीं है कुछ भी. तो फिर शायद हम अपना कोई दंभ ही पोसते रहते हैं छोटे बच्चों को वाहन चलाने का प्रशिक्षण देते हुए. लेकिन हम ये क्यों भूल जाते हैं, कि छोटे बच्चे पूरी दक्षता से वाहन चला ही नहीं सकते? जान का जोखिम है इसमें, दोनों ओर से आ रहे लोगों के लिए. अठारह वर्ष से कम उम्र के लोगों के लिए मोटर-वाहन चलाने का प्रावधान तो विधि-निषिद्ध ही है. तभी तो वाहन चलाने का लाइसंस भी निर्धारित आयु के बाद ही बनता है. पर हम तो कानून तोड़ने से भी नहीं चूकते. 
और इसका ये भी मतलब नहीं है, कि अठारह वर्ष के होते ही हम अंधाधुंध वाहन चलाने लग जाएँ. गति-नियम, यातायात के नियमों का पालन तो हर हाल में होना ही चाहिए. आज के आधुनिकतावादी माता-पिता अपनी किशोर-युवा संतान की ऐसी इच्छाएं आँख मूँद कर पूरी कर दिया करते हैं. नतीजों से बेपरवाह, ऐसे माता-पिता के लिए अपने बच्चों की हर इच्छा पूरी करना ही प्राथमिकता होती है. और विलासिता के नशे में चूर वो बच्चे सड़क पर ही करतब करने से नहीं चूकते. बेशक, ये जोखिम की चरम सीमा है. ताजातरीन उदहारण तो हम सबके सामने ही है, जब भारतीय क्रिकेट के पूर्व-कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन के पुत्र एक अत्याधुनिक और बेशकीमती बाइक की सवारी करते हुए गंभीर रूप से घायल होकर मृत्यु-ग्रस्त हो गए. ईश्वर न करे कि ऐसा किसी के भी साथ हो, लेकिन अगर सिर्फ दुआओं से ही ये दुनिया खूबसूरत हो पाती, तो भला इया प्रकार के लेख लिखे जाने की ज़रूरत ही क्या थी? कुछ वर्ष पूर्व उत्सव नामक एक किशोर ने अपने अमीर पिता की बहुत महंगी गाडी चलाते हुए एक राहगीर को कुचल दिया था. 'हाई-प्रोफाइल' दुर्घटनाएं होती हैं, तो सबकी नज़रें खुद-बखुद ही उस ओर चली जाती हैं. पर आम-जीवन में भी ऐसी दुर्घटनाएं कम नहीं होती. उदाहरणों की क्या कमी है, पर मूल विषय ये है, कि अभिभावकों का अपने बच्चों की हर ऐसी इच्छा पूरी करना, जिसके लिए वो शाररिक-मानसिक रूप से तैयार नहीं है, निश्चय ही एक गैर-जिम्मेदाराना कदम है. इस हद तक गलत, कि जो किसी को मौत के मुह में भी धकेल सकता है. और वो कोई 'कोई' भी हो सकता है. एक और भी बात है. आँकड़े कहते हैं, कि पूरे विश्व में, सड़क हादसों से होने वाली मृत्यु की दर हमारे देश में सर्वाधिक है. कारण सोचे जाने की ज़रूरत है. या शायद खुद से पूछने की ही ज़रूरत है. 
जब तक अपने दिखावे के इस रवैये से युक्त होकर हम इन चीज़ों को 'स्टेटस-सिम्बल' के साथ जोड़ते रहेंगे, तब तक आधुनिकता के बगीचे के फूल तो भले ही हमें महकाते रहेंगे, पर कांटे भी बराबर चुभते रहेंगे. और गौर करने की बात है, कि इन में से कुछ कांटे विषैले, और जानलेवा भी होते हैं. कम-से-कम वयस्क होने से पूर्व तो साइकिल की सवारी ही होनी चाहिए. जहां एक ओर इससे पर्यावरण-प्रदूषण की समस्या घटेगी, वहीँ पेट्रोल-डीज़ल की मांग भी कुछ कम हो पाएगी. साइकिल  जैसी सवारी को भीड़-भाड़ में से निकाल लेना कोई बड़ी मुश्किल नहीं है. इसलिए, इसके इस्तेमाल से आम हो चुकी जाम की समस्या पर भी लगाम लग सकती है. बाकी सब बातों के साथ-साथ, साइकिल चलाना एक बहुत अच्छा व्यायाम भी है, जिसके लिए अलग से वक्त निकाल पाना आधुनिक जीवन-शैली में आसानी से नही हो पाता. साइकिल का प्रयोग आधुनिक जगत में उठ रही कई समस्याओं से निजात दिला सकता है. 
आधुनिकता की होड़ तक तो ठीक है. पर अन्धानुकरण तो किसी भी चीज़ का हितकारी नहीं है. इसलिए, आधुनिकता की दौड़ का हिस्सा तो हम ख़ुशी-ख़ुशी बनें, पर गति-नियंत्रण की अहमियत को न भूलते हुए.
शुभकामनाएँ. 

Friday, 16 September 2011

ये पगडण्डी सफलता की....



ये एक ज़िन्दगी, और हज़ारों ख्वाहिशें..!! हर पल हम कुछ न कुछ चाहते रहते हैं. इच्छाओं का झोला कभी खाली नहीं हो पाता. और इन हज़ार-लाख ख्वाहिशों का रूप-रंग भले ही एक दूसरे से कितना भी जुदा क्यों न हो, उनके पीछे छिपी भावना तो एक-सी ही होती है, 'स्वामित्व' की, 'बड़प्पन' की..! अपने सामजिक कद से हम कभी संतुष्ट नहीं हो पाते हैं, और भले ही कितनी भी ऊँचाई क्यों न छू लें, और भी ऊँचे होने का ख्वाब हमेशा जिंदा रहता है हमारी आँखों में. 
अब सोचने की बात तो ये है, कि आखिर हम इतनी ऊंचाई पर पहुंचना ही क्यों चाहते हैं? ये बड़प्पन की चाह किसलिए? ज़्यादातर लोग तो सफलता की चाह इसलिए करते हैं, क्योंकि जितनी ज्यादा हमारी सामाजिक सफलता होती है, उतनी ही ज्यादा हमारी सामाजिक पैठ हो जाती है. सफलता मिलते ही दोस्त-रिश्तेदार-शुभचिंतक रातोंरात बढ़ जाते हैं. और हम मगन हो जाते हैं  उनके साथ अपनी सफलता का जश्न मनाने में. हर दिन त्यौहार-सा हो जाता है. चमक-दमक, बुलावा-दिखावा, मौज-मस्ती, ये सब सफलता के झोंके के साथ खुद-बखुद आ जाया करते है. कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जो इस जश्न का दायरा सिर्फ अपने इर्द-गिर्द तक ही सीमित नहीं रखते, पर अपने समाज, अपने राष्ट्र के प्रति अपना सरोकार याद रखते हुए कुछ नेक काम भी करते हैं. पर ऐसे लोगों की संख्या तो इतनी कम होती है, कि अँगुलियों पर भी गिने जा सकें..! 'अल्पसंख्यक' भी कह सकते हैं!
एक और भी ख़ास किस्म का सफल समुदाय होता है. ये वो लोग होते हैं, जो अपनी हर सफलता का कर(टैक्स) दूसरों से वसूलना पसंद करते हैं. चूँकि इनके पास सफलता है, इसलिए ये अपने सभी अधिकार अच्छी तरह याद रखते हैं. और 'कर्तव्य', उस पर तो लम्बा भाषण दे सकते हैं. लेकिन उन्ही कर्तव्यों को निभाना, ये लोग एक 'अनधिकार चेष्टा' सा समझते हैं. उन्हें अच्छा लगता है, सामने खड़े हर व्यक्ति का दमन करना, शोषण करना. और हक़ के लिए उठ रही आवाज़ को दबाना. अपनी हर गलती दूसरों के माथे मढ़ देना उन्हें बखूबी आता है. निर्दोष को धमकाना तो उनका प्रिय शगल होता है. सामने खड़ा आदमी जब उनकी बात से थर-थर काँपता है, तो आत्म-मुग्ध होकर वो ऐसा सोचते हैं, कि ,"वाह! कितने प्रभावशाली हैं हम..! "
बहुत-से लोग मिल जायेंगे ऐसे, हमारे आस-पास ही! या शायद खुद हम ही. क्या ऐसा व्यवहार-प्रदर्शन हमें प्रभावशाली बनाता है? मेरे नज़रिए की बात कहूँ, तो, ऐसा लगता है, कि ये तो हमारे 'खोखलेपन' का प्रमाण-पत्र है, जो हम खुद ही थमा रहे होते हैं, दूसरों के हाथों में. या यूँ कहें, कि अपनी कमजोरी दूसरों के समक्ष एक 'रचनात्मक' ढंग से बयान कर रहे होते हैं. एक मानसिक रूप से पंगु व्यक्ति ही ऐसी असुरक्षा से घिरा हुआ हो सकता है. कभी अपने मातहत, कभी घरेलु नौकर-चाकर, और कभी-कभी तो सगे-सम्बन्धियों को भी अपमानित करने से नहीं चूकते हम. अगर वाकई हमारी बात में वज़न है, तो चिल्ला कर बताने की किसे ज़रूरत है? और अगर किसी को भयभीत करना ही हमारी सफलता का परिचायक है, तो इसका तो यही मतलब है, कि हमारे जीवन पर 'राक्षसों' का प्रभाव है. हाँ. किसी को डराना-धमकाना साधारण मनुष्यों का लक्षण कहाँ होता है? शास्त्रों में भी तो ऐसे कितने उल्लेख आते हैं, कि जन-साधारण किसी अच्छे फल की चाह से यज्ञ करते थे, तो राक्षस आकर यज्ञ को खंडित कर देते थे. तब वो साधारण लोग डरते थे, परेशान होते थे. ये सब देखकर, वो राक्षस अपनी भयानक हंसी हँसते थे. दूसरों को डराना तो राक्षस ही कर सकते हैं. अब बात तो है, सोचने की, 'आत्म-मंथन' की, कि कहीं सफलता हमें राक्षसी व्यवहार की ओर तो नहीं ले कर जा रही? कहीं हम सिर्फ दूसरों की घृणा के पात्र बन कर तो नहीं रह गए?
सफलता की पगडण्डी बहुत संकरी होती है. पाना तो बहुत कठिन होता है सफलता को, लेकिन इसे संभाल पाना कहीं ज्यादा कठिन होता है. तपस्या से कम नहीं होता..! अगर मनुष्य होकर हम देवता नहीं बन पाए, तो भला राक्षस बन कर भी क्या हासिल कर लिया?  महज़ मनुष्य ही बने रहें, यकीनन, वो भी एक बड़ी उपलब्धि होगी.   

Tuesday, 13 September 2011

अमिताभ का अमित प्रभाव...



'पञ्चकोटि-महामणि', इस लुभावने शब्द्द्वय का उद्घोष करते हुए एक बार फिर आ गए हैं अमिताभ बच्चन, कौन बनेगा करोड़पति की प्रस्तुति करते हुए. और एक बार फिर, चर्चाओं के गलियारे में पूरी तरह छा गया है उनका नाम. जहाँ एक ओर बड़ी धनराशि का आकर्षण काम कर रहा है, वहीँ दूसरी ओर अमिताभ के प्रशंसक अपने मनपसंद अभिनेता की उपस्थिति पसंद कर रहे हैं. वैसे अमिताभ के प्रशंसकों के लिए तो उनकी उपस्थिति ही किसी पञ्चकोटि-महामणि के जैसी है. अगर इस देश में कभी सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्तियों का कोई चुनाव किया जाए, तो कोई छिपी हुई बात नहीं है कि अमिताभ का नाम उस सूची में बहुत ऊपर आएगा. कोई उनके जीवंत अभिनय का कायल है, और कोई उनकी आवाज़ का, कोई उनकी कद-काठी से प्रभावित है, तो किसी के लिए उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही एक आदर्श है. और सिर्फ भारत ही क्यों, वैश्विक पटल पर भी उनका प्रभाव मद्धिम नहीं हो पाता. आज अमिताभ लोकप्रियता के उस शिखर पर खड़े हैं, जहाँ उन्हें देख तो सब सकते हैं, पर छू नहीं सकते. एक आम ज़िन्दगी से ख़ास मुकाम तक का उनका ये सफ़र किसी के लिए भी एक मिसाल है.
और वहीँ दूसरी ओर, कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें अमिताभ बच्चन से कोई विशेष लगाव नहीं है. हाँ, उनके प्रशंसकों को तो ये बात बहुत ही अटपटी लगेगी. पर बेशक, बहुत से ऐसे लोग हैं जो अमिताभ के प्रभाव से अछूते हैं, फिर भले ही ऐसे लोगों का वर्ग बहुत बड़ा न भी हो..! और ये सच है, कि मैं भी उसी छोटे-से वर्ग में से एक हूँ. बचपन से लेकर आज तक, पता नहीं कितनी सारी भूमिकाओं को विविधतापूर्वक निभाते हुए देखा होगा मैंने अमिताभ बच्चन को! पर फिर भी, आज तक कभी मेरी आँखों को उनके व्यक्तित्व की चकाचौंध चुंधिया नहीं पायी. अब ऐसा क्यों है, इस प्रश्न का तो कोई उत्तर नहीं है मेरे पास. स्वीकृति की बात है. यों  भी, पूरे समाज की स्वीकृति एकरंगी भला हो भी कैसे सकती है! अब वो उनका अभिनय-कौशल हों या फिर विज्ञापन-जगत में उनकी बढती पैठ, उनको मिलने वाले पुरस्कारों की संख्या, या छोटे परदे पर उनकी उपस्थिति, या चाहे उनके पूरे परिवार के साथ जुडी हुई अंतर्राष्ट्रीय ख्याति हो, पर इनमे से कोई एक भी कारण मुझे कभी उनके प्रशंसक-वर्ग की सदस्यता नहीं दिला पाया.
पर फिर भी एक बात है उनके जीवन से जुड़ी हुई, जो मेरी दृष्टि में मानवता पर निश्चय ही उनका उपकार है. मुझे याद है, आज से कई वर्ष पूर्व उनका एक साक्षात्कार टेलिविज़न पर प्रसारित हो रहा था. चैनल बदलते हुए, बस यों ही देखना शुरू कर दिया मैंने. उसमे वो बता रहे थे, कि हमारे देश के किसी एक प्रान्त के किसान ऋणग्रस्त होकर आत्मघाती प्रवृत्ति के शिकार हो रहे थे. बहुत से किसान अपने जीवन का अंत कर चुके थे, और बहुत-से और किसान उसी मार्ग की ओर उन्मुख होते नज़र आ रहे थे. केवल दो हज़ार से दस हज़ार रुपये की मामूली-सी ऋण-राशि का भुगतान कर पाने में असमर्थ ये किसान वर्षों से प्रकृति का प्रकोप सह रहे थे. और निकट भविष्य में भी, धन जुटा पाने की कोई दिशा बनती नज़र नहीं आ रही थी. ऐसे में, जीवन जीने की इच्छा का परित्याग ही उनके पास एकमात्र रास्ता था. 
अमिताभ बच्चन ने उस साक्षात्कार में बताया, कि जब उन्हें किसानों की उस त्रासदी के बारे में पता चला, तो उन्होंने बहुत से किसानों की आर्थिक सहायता करके उन्हें ऋणमुक्त कराया, और मृत्यु की ओर जाने से रोका. अपने व्यक्तिगत धन से किसानों की सहायता करके अमिताभ ने उन्हें जीवन की दिशा दी. आज ये बात याद कर मेरे मन में विचार आता है, कि अगर इस दुनिया में मानवता नाम की कोई देवी है कहीं, तो इस पुण्य कर्म के लिए निश्चय ही उन्होंने अमिताभ पर पुष्प-वर्षा की होगी. क्योंकि, ऐसा सुनकर भी असमंजस होता है, कि महज़ दो से दस हज़ार रुपये के लिए, कृषक-वर्ग अपने ही प्राण देने पर उतारू हो गया, और वो भी 'भारत' देश में, जो कि है ही कृषि-प्रधान..!!  
एक इंसान अपनी जान बचाने के लिए क्या नहीं करता! अगर कभी हम हस्पताल में पड़े किसी रोगी से मिलकर देखें, तो बातों-बातों में एक बार तो वो कह ही देगा, कि, "शुक्र है, जो मेरी जान बच गयी" या फिर, "बस ठीक हो जाऊ मैं, फिर पैसा तो भला कितना ही क्यों न लग जाए"...! अपने, या अपने परिजनों के जीवन, और स्वास्थ्य से ज्यादा महंगा हम लोगों को कुछ भी नहीं लगता. हम कुछ भी देने को तैयार हो जाते हैं, सिर्फ अपना जीवन बचाने के लिए! इतना अनमोल लगता है हमें अपना जीवन ! और ऐसे अनमोल जीवन का, महज़ कुछ हज़ार रुपयों के लिए जो अंत करने पर उतर आये हों, सोचने की बात है, ऐसी क्या बीती होगी उन किसानों के मन पर? जीवन जीने से आसान मरना जिन्हें लगा हो, खेद का विषय है, इतना संत्रास उन किसानों के हिस्से में आ गया...! एक संवेदनशील मनुष्य की आँखें डबडबाने  के लिए तो उन किसानो की भाव-स्थिति को समझना ही काफी होगा.
मृत्यु-संकट से घिरे ऐसे किसी व्यक्ति को जीवन-दान देना शायद हम सब के बूते की बात होगी. अगर हम सब अपने-अपने स्तर पर छोटी-छोटी कोशिशें भी करें, तो शायद समाज की बहुत सारी परेशानियां दूर हों जाएँ! लेकिन ऐसी इच्छा-शक्ति हर-एक में कहाँ..! अपने छोटे-से परिवार के लिए जीना तो हमें अच्छी तरह आता है, पर किसी मजबूर की मदद के लिए हमारे पास न वक्त है, न धन है, और न ही कोई योजना. सिमट चुके हैं हम सब लोग अपने-अपने पारिवारिक जीवन के छोटे-छोटे दायरों में. और उन दायरों के बाहर झाँकना आज हमारे लिए मूर्खता भी है, और अप्रासंगिकता भी.
ऐसे में, और किसी बात के लिए तो पता नहीं, पर इस बात के लिए तो, हाँ, अमिताभ ! आपके प्रेशंसक-वर्ग में शामिल होना अब मेरी मजबूरी हों चुकी है. ईश्वर आपको सदा ही इस मानवीय इच्छा-शक्ति से युक्त रखे, असहाय की सहायता के लिए. 
शुभ-कामनाएं, भारत..!!

समाचार-पत्रों में प्रकाशित लेख ( सितम्बर ) ..

 समाचार-पत्रों में प्रकाशित लेख..  ( सितम्बर )



                                        



                                                        

                                        
                               






Friday, 9 September 2011

पक्षी की संवेदना


                                              नीला आसमान व्यापकता का पर्याय है. कितना सुन्दर लगता है नीला गगन, और उस पर फैली हुई रुई-सी सफ़ेद बदलियाँ..! और कई गुना बढ़ जाती है ये सुन्दरता, जब रंग-बिरंगे पंछी अपने पंख पसारकर इस आसमान में उड़ते नज़र आते हैं. मेरी दृष्टि में, इन पंछियों को निहारना में भी एक आनंद-बोध है. सुबह जब सूरज की लालिमा अपने स्नेहिल स्पर्श से पूरे वातावरण को जगाती है, तो उन पलों को अपने मधुर कलरव के संगीत से भर देते हैं ये प्यारे परिंदे. किसी सीमा-परिधि में न बंधे होकर, सवेरे से उन्मुक्त उड़ान भरते ये नन्हे पंछी दिन ढलते ही अपने-अपने घोंसलों में पहुँच जाते हैं. रात-भर चैन से निद्रा की गोद में रहना, और सुबह होते ही, सक्रियता..ऐसे सुन्दर क्रम में चलता है इनका जीवन.
                                              उसके बाद शुरू होती है भोजन की तलाश. किसी 'लघुतम विमान' के जैसे ये पंछी अपनी दैनिक यात्रा शुरू करते हैं, और अनाज के दाने ढूँढने निकलते हैं. अपना पेट भरने के बाद, बाकी दानों को अपनी चोंच में दबा कर ले आते हैं, घोंसले में इंतज़ार कर रहे अपने चूजों के लिए. भोजन तलाशते हुए भले ही उड़ते-उड़ते कितनी भी दूर क्यों न निकल आयें, पर ठीक संध्या-काल पर अपनी जगह पहुँच जाना भी इनकी एक विशेषता होती है.  
                                              बहुत से लोग अपने-अपने घरों के आँगन में मिटटी के सकोरे रख देते हैं, और उनमे इन पक्षियों के लिए दाना-पानी भर देते हैं, ताकि पक्षियों को दूर तक भूखे-प्यासे न भटकना पड़े. छोटे-बड़े पक्षी उड़ते-उड़ते बहुत उंचाई से भी उन सकोरों में रखा भोजन देख लेते हैं, और अपनी भूख-प्यास से निजात पाते हैं. बहुत बार पानी के सकोरों में ये पंछी घुसकर ही बैठ जाते हैं, और नटखट-से हो जाते हैं. पंखों को फड़फडा कर पानी के छपाके उड़ाते रहते हैं. इतनी सुन्दर प्राकृतिक अठखेलियाँ देखकर कभी-कभी अपना वैभवशाली जीवन भी फीका-सा लगता है.  

                                


                                             पक्षियों के प्रति अलग-अलग लोगों का अलग-अलग ही व्यवहार और नजरिया होता है. एक पुण्यशील व्यक्ति उन्हें ईश्वर के मौन-दूत की तरह देखता है. और उन्हें जल-कनक आदि भेंट करके अपने जीवन के कष्ट दूर होने का मार्ग देखता है. प्रकृति-प्रेमियों के लिए तो उनकी उड़ान भी उतनी ही रोमांचक होती है, जितना उनका कूजना-चहकना. और एक बहेलिये के लिए पक्षी का अर्थ होता है, हवा में उड़ते रुपये. जाल में उनके लिए भोजन रखकर वो उन्हें फँसा लेता है, और पकड़ कर अपने भोजन का इंतजाम करता है. इस दर्द से अछूते होकर, कि शायद घोंसले में उन पंछियों की कोई प्रतीक्षा कर रहा होगा, उन निर्दोष-विवश पंछियों को पिंजरे में कैद कर के किसी के आँगन में टांग दिया जाता है. असीम आकाश की निर्भय सैर करने वाले इन पंछियों को एक नन्हा पिंजरा भला क्या सुख दे सकता है? शायद इससे बड़ा अत्याचार कोई हो नहीं सकता, उनके स्वाभाविक जीवन में ! हमारे आस-पास कहीं 'मानवाधिकार' की बात हो, तो पता नहीं कितने स्वर मुखरित हो जायेंगे..! पर पक्षियों के अधिकारों के लिए लड़ने का किसके पास समय होगा ! 
अपने दुर्भाग्य को कोसते हुए, पिंजरे में बंद ये प्राणी, रोते तो होंगे ! पर 'नादान' हम, उनके रूदन को भी उनका गान समझ बैठते हैं, और खुश होते हैं, तालियाँ बजाते हैं. उस वक्त, शायद अचंभित तो होता ही होगा वो पंछी, ये सोचकर, कि विकास के इस उच्चतम सोपान पर खड़े होकर शायद क्रूरता का भी उच्चतम सोपान उपलब्ध हो जाता होगा इन मनुष्यों को! वैसे, क्या हम मनुष्य अपने लिए एक ऐसे जीवन की कल्पना कर सकते हैं, कि जिसमे हमें सुबह-शाम बिना प्रयास किये अच्छा भोजन तो दे दिया जाए, पर रहने के लिए, केवल एक पिंजरा ही हो..! और उसके बाद, जब हम रोएँ, चिल्लाएँ, शिकायत करें, तो सामने खड़े लोग खुश होते नज़र आयें!
                                            पता नहीं, कितना आघातक हो ऐसा ! शायद कोई श्राप ही दे बैठें हम तो उसको! तो क्या वो पक्षी हमें श्राप नहीं देते होंगे? क्या इतनी बड़ी दुनिया में सजावट की वस्तुओं की कोई कमी हो गयी है, जो हम एक मूक जीव की स्वाधीनता का हरण करने में भी नहीं चूके? और वो भी सिर्फ अपने घर की शोभा बढाने की मंशा से? स्वार्थ-परायणता की पराकाष्ठा शायद इसी को कहते हैं. प्रकृति में बहुत पवित्रता और पारदर्शिता होती है. ऐसे में, सर्वथा प्राकृतिक जीवन जीने वाले इन पक्षियों की संवेदना पर प्रहार का परिणाम भी पारदर्शिता से भरा हुआ ही होता है. उस प्रहार से उपजी उनकी पीड़ा जब हमारे जीवन के साथ जुडती है, तो सुख का संगीत तो नहीं आ सकता हमारे जीवन में..! 
                                           इसलिए, प्रत्येक जीवन का सम्मान करते हुए, हमें इन नन्हे पक्षियों को उनके सुन्दर गगन में ही विहार करने देना चाहिए, यही उनकी स्वाधीनता, और हमारी प्रज्ञा के लिए अपेक्षित है.

Thursday, 8 September 2011

बातें भूली-बिसरी सी. . .


कहते हैं, कि बीते हुए कल के बारे में सोचना समय की बर्बादी है. क्योंकि अब वो बदला नहीं जा सकता. और आने वाले कल के बारे में सोचना भी समय की बर्बादी है. क्योंकि वो तो अज्ञात ही है. हम जानते ही नहीं हैं, कि कल क्या होगा, कैसा होगा. इसलिए, वर्तमान में ही जीना चाहिए, वर्तमान को ही जीना चाहिए, भरपूर !
यों, मेरी भी यही सोच है. पर कभी-कभी, कोई ऐसी हवा चल ही पड़ती है, जिससे जीवन की किताब के वो पन्ने खुल जाते हैं, जिन्हें हम 'अतीत' कहते हैं. और ऐसे ही, अचानक, एक बचपन का वाकया याद आ गया.
सातवी कक्षा की बात है. ग्यारह साल उम्र थी मेरी. हमारी इंग्लिश की क्लास एक सर लिया करते थे. वो एक रजिस्टर उठा कर आया करते थे, और उसमे लिखे हुए उत्तर हम लोगों को लिखवाया करते थे. एक दिन, मेरी एक मित्र कहीं से एक गाइड ले आई, और उसने हमें उसमे लिखे प्रश्न-उत्तर दिखाए. हमारी आँखें फटी की फटी रह गयी. ज्यों-के-त्यों, वही जवाब ! हम सब बच्चे, जो अपने अध्यापक के प्रति बहुत सम्मान का भाव रखते थे, गुस्से से भर गए. और दबी आवाज़ में, एक खिलाफत करने लगे. कुछ दिनों तक तो ऐसे ही चला. और फिर, एक दिन हवा में उड़ता-उड़ता, किसी क्रांतिकारी का भूत हमारी क्लास में आ गया. पता नहीं, और कोई नहीं मिला उसे, मेरे ही सर पर सवार हो गया वो. फिर क्या था, मैंने पूरी क्लास के सामने, अपने अध्यापक से कह दिया, कि,  "सर, आप गाइड में से देखकर पढ़ाते हैं. " मुझे आज भी उनकी प्रतिक्रिया याद है. वो तो जैसे सुन्न-से ही हो गए. और हैरत से चिल्लाए कि, "क्या !! मैं गाइड से पढाता हूँ ?" मैंने भी निडर होकर कहा, कि, "हाँ, आपका पढ़ाया गया एक-एक शब्द गाइड से लिया गया है." कुछ क्षण वो चुप रहे. फिर उन्होंने बताया, कि जिस रजिस्टर में से देखकर वो लिखवाते हैं, वो उनका नहीं, एक अन्य अध्यापिका का है. और वो उनसे पूछ कर बताएँगे. उनकी इस बात पर मुझे संतुष्टि हो गयी. क्योंकि जिन अध्यापिका का नाम उन्होंने लिया था, उनके हाथ में अक्स़र ही वो रजिस्टर दिखा करता था. 
दो-तीन दिन के बाद उन अध्यापिका ने मुझे बुलाया. तकरीबन पंद्रह मिनट तक वो मुझसे बात करती रही. उसे बात की जगह डांट कहना ज्यादा सही रहेगा. और उस डांट के अंतिम शब्दों को भुला पाना मेरे लिए लगभग नामुमकिन है. उन्होंने मुझसे कहा था, कि, " अगर आप अपने टीचर के बारे में ऐसी बात कहोगे, तो आपको स्कूल से निकाल दिया जायेगा." उनकी और कोई बात तो मुझे हिला भी नहीं पायी थी, पर स्कूल से निकालने की धमकी काम कर गयी. क्रांतिकारी का भूत तो वापिस उसी हवा में विलुप्त हो गया, जिसमे से वो प्रकट हुआ था. और ग्यारह साल की वो बच्ची, घबरा कर चुप हो गयी. वो कल्पना भी मेरे लिए भयानक थी, कि कल कोई मेरे बारे मे ऐसा कह रहा हो, कि " उसे स्कूल से निकाल दिया गया है."
हालाँकि वो मुद्दा कोई इतना बड़ा नहीं था, पर फिर भी अध्यापिका ने अपनी छोटी-सी अक्षमता छिपाने के लिए एक छोटे से बच्चे को डराया-धमकाया, और उसे निडरता और सच्चाई की उस स्वाभाविक प्रवृति से दूर कर दिया, जो उसमे ज़ोर मार रही थी. मुझे अपनी स्वाभाविक अवस्था में वापिस आने में काफी समय लग गया. और तब तक वो अध्यापिका मेरे जीवन से बहुत दूर जा चुकी थी. 
इस बात को याद कर के मन में बहुत सारे सवाल उठते हैं. जैसे, क्यों हम अपनी गलतियां छिपाने के लिए किसी दूसरे को भयग्रस्त करने से भी नहीं चूकते ? अगर हम योग्य नहीं हैं, तो योग्यता का झूठा दंभ कब तक पाल पाएंगे ? और क्यों नहीं हम ये समझ पाते, कि उस झूठे दंभ को पालते हुए, हम अपने ही समाज को गन्दा कर रहे है ? 
शिक्षण-संस्थान में तो ये बात और भी अखरती है. जिस स्थान में एक बच्चे को पढ़ा-लिखा कर एक संपूर्ण नागरिक बनाने की आशा की जाती है, वहीँ ऐसा धोखा हो, तो भविष्य का स्वस्थ समाज कैसे निर्मित हो पायेगा भला ?
हाल ही में गुज़रा है शिक्षक दिवस. शायद बहुत से शिक्षकों को पुनर्मंथंन की आवश्यकता है.

शुभ-कामनाएं, भारत..!!!  

Friday, 2 September 2011

गुलाब के प्रहरी

                     
                        गुलाब के फूल मुझे बहुत पसंद हैं. इस नाम में ही, मानो एक स्नेहिल निमंत्रण छिपा हुआ है. गुलाब के पौधे के पास पहुँचते ही उसकी मनमोहक सुगंध एक भाव-भीना स्वागत करने लगती है. रंग देखें, तो लाल, पीला, गुलाबी, केसरी..और पता नहीं कितने-सारे और..! और हर एक रंग से, कैसे एक जादुई आकर्षण टप-टप टपकता हुआ..! सुन्दरता, नवीनता, कोमलता से भरपूर, यौवन के चरमोत्कर्ष को छू रहे गुलाब को देखते ही, उन महानुभाव को धन्यवाद देने का मन होता है, जिन्होंने कभी गुलाब को 'फूलों का राजा' घोषित किया होगा. सदियों से कवि की कलम निरंतर गुलाब की सुन्दरता से प्रेरित होती रही है. कभी गुलाब की कली, तो कभी पुष्प की गरिमा पर शब्दों की पुष्पांजलि अर्पित करती आई है. और इसके उपरान्त भी, ये प्रेरणा आज तक कम नहीं हो नहीं पायी. गुलाब नित्य-नूतन होकर, हर पल एक नयी उमंग ,नयी भाव-भूमि से युक्त ही मिलता है, मुस्कुराता हुआ, महकता हुआ...! 


                       सिर्फ कवि के लिए ही क्यों, प्रत्येक मनुष्य के लिए प्रसन्नता का अमिट सन्देश लिए होता है ये सुन्दर पुष्प. नन्ही कली को देख कर आश्चर्य होता है, ईश्वर की रचना पर ! कैसी सुन्दर, सुगढ़, और मानो, रेशम की छैनी से तराशी गयी हो..! और वही कलिका, जब खिलकर एक संपूर्ण पुष्प में परिवर्तित हो जाती है, तो ईश्वर की रचनात्मकता पर आश्चर्य करने का तो साहस ही नहीं रहता. उसके असीमत्व पर स्वयं ही विश्वास हो जाता है. 

                       झुक जाता है फूल, पूरा खिल जाने पर. वह गुलाब, जहाँ रूप की परिसीमा स्वयं परिभाषित हो रही है, वहाँ भी ऐसी विनम्रता..! वाह..! एक-एक पंखुड़ी खिल-खिलकर मानो अभिनन्दन कर रही होती है जीवन का, एवं जीवन के कारक का..! या फिर, जैसे कि स्वयं ही अंजुली रूप होकर एक नि:शब्द-आभार अर्पण कर रही हो अपने रचयिता को..! क्या इससे सुन्दर चित्रण भी कहीं हो सकता है, जीवन जीने की कला का..? 

                      अलंकारों की कमी नहीं है, इस फूलों के राजा के पास. विनम्रता के साथ, उदारता का भी अक्षय भण्डार..! कितना उदार होता है ये गुलाब, जितनी भी सुगंध होती है, उसे बिना नापे-तोले, बिना संचय किये, बस उड़ेल देता है आती-जाती हवा की चादर पर..! पर फिर भी कभी रिक्त नहीं होता उसका सुगंधि-भण्डार..! 
                       पर ऐसे गुलाब को मैंने आज तक कभी भी कंटक-विहीन नहीं देखा. हर एक फूल की रक्षा के लिए, उसके इर्द-गिर्द सैकडों कंटक , एक युद्धवीर सिपाही की भाँती हर क्षण कटिबद्ध मिलते हैं.  ये देखकर मन में एक स्वाभाविक-सा प्रश्न उमड़ता है, कि जहाँ सौंदर्य की अभिव्यक्ति स्वयं को धन्य अनुभव कर रही है, वहाँ ऐसे निष्ठुर, रसहीन काँटे लगा देने की भला क्या सूझी होगी, प्रकृति को..? पर ये समझने में भी देर नहीं लगती, कि प्रकृति की सूझ-बूझ तो निराली ही है..! इतने सुन्दर पुष्प को भला कौन डाली पर लगा रहने देगा ? हर आता-जाता उसे तोड़कर उसकी सुगंध, कोमलता, और पवित्रता को अपनी मुट्ठी में भर लेना चाहेगा, कुचल देना चाहेगा..! और क्या तब, गुलाब का अस्तित्व संकट में नहीं आ जायेगा ? इसलिए, सजग प्रहरी की भूमिका निभा रहे ये कंटक हर उस हाथ को गुलाब की और बढ़ने से रोकने का प्रयत्न करते रहते हैं, जिसे नैसर्गिक सौंदर्य को नष्ट करने में ही आनंद आता है. 

                        और  ये सब सोचते ही, मुझे एक बात बहुत अच्छी तरह समझ आ जाती है, कि संसार भले ही कितना भी रंग-रंगीला, उदार, और गुणों का स्वागत करता हुआ मिले, गुणी व्यक्ति यहाँ कभी सुरक्षित नहीं है. जहां-जहां गुणों की सुगंधि, मिठास होगी, वहाँ-वहाँ उसे छीन लेने के लिए हर दिशा से चींटियों का आक्रमण हो जायेगा. ऐसे में, एक पग भी बढ़ा पाना कठिन है संसार में, अगर सुरक्षा-प्रणाली सबल न हो तो. मन भले ही गुणों की मणि से कितना भी प्रकाशमान क्यों न हो रहा हो, व्यवहार में कठोरता का आवरण धारण न किया हो, तो संसार में जीना कठिन हो जाए..! 

                       इसलिए , गुलाब को देखकर प्रेरित होना, मुस्कुराना, और सुन्दर जीवन जीने के लिए संकल्पित होना तब तक अधूरा रहेगा, जब तक हम साथ लगे गुलाब के प्रहरी, काँटों को कोसते रहेंगे. सच तो ये है, कि इन्हीं काँटों की निर्दयता और कठोरता के ही कारण गुलाब का सौंदर्य और कोमलता का अस्तित्त्व बना रहता है. और ये सब देख-समझ कर विश्वास हो जाता है, कि समायोजन की कला में भी प्रवीण है प्रकृति ...!!