लम्बी यात्रा के बाद आज घर-वापसी हुई। कई शहर पार करते हुए,
खेत-खलिहानों के मध्य, एक छोटे-से गाँव में एक औपचारिक कार्यक्रम से जाना
हुआ था। जिस शांति-नीरवता का ज़िक्र अक्सर ग्राम्य-जीवन के साथ किया जाता है,
ठीक उसी शांति-ठहराव का अहसास वहाँ हुआ। गाड़ियों का शोर-शराबा तो दूर-दूर तक
नही, कच्चे रास्तों पर पैदल चलने का अनुभव अच्छा लग रहा था।
कहीं कौवों की काँव-काँव सुनाई दे रही थी, और कहीं रँभाती हुई गाय नज़र आती थी। अपनी मस्ती में घूम रहे छोटे-छोटे बच्चों को रस्ते भर निहारा, उनकी स्वाभाविकता सचमुच एक दुर्लभ दृश्य के जैसी प्यारी प्रतीत हो रही थी। मौसम बहुत अनुकूल न था, और हमारे पास समय भी बहुत कम था। सो इस शुद्ध वातावरण का जितना लुत्फ़ लिया जा सकता था, उतना लिया नहीं गया।
जिनके यहाँ हम गए थे, वहाँ बिजली नदारद थी। इसलिए हाथ वाले पंखे झलकर गर्मी दूर करने के प्रयास करते हुए बचपन के वो छूटे हुए दिन याद आ गए, जब हमारे यहाँ जनरेटर-इनवर्टर नहीं हुआ करते थे। बातों-बातों में हमारे मेजबान ने बताया, कि यहाँ गाँव में तो दिन में दो ही घंटे के लिए बिजली के दर्शन होते हैं, और यह भी पता नही, कि वो दो घंटे कौनसे होंगे।
अपनी रौ में वो तो और भी बहुत-सी बातें कहते चले गए, पर मेरा ध्यान तो उनकी उस एक बात ने ही अवरुद्ध कर दिया। गाँव में दिन में सिर्फ दो घंटे बिजली देने का क्या अर्थ हुआ, यह मुझे समझ नही आ सका। उमस भरे मौसम में, क्या गाँव वालों को गर्मी नहीं लगती? और शहर वालों के लिए बिजली की भला ऐसी क्या भारी ज़रूरत होती है, जो गांववालों की नहीं होती?
दिन-रात मिट्टी में मिट्टी होकर जग-भर के लिए अन्न उगाने वाले किसानों के लिए मेरे यहाँ बिजली तक उपलब्ध नहीं है। मन में बहुत कुछ आया, जो यहाँ लिखने की इच्छा नहीं हो रही! कम शब्दों में, मुझे बहुत ही ख़राब लगा यह सुनकर।
कहीं कौवों की काँव-काँव सुनाई दे रही थी, और कहीं रँभाती हुई गाय नज़र आती थी। अपनी मस्ती में घूम रहे छोटे-छोटे बच्चों को रस्ते भर निहारा, उनकी स्वाभाविकता सचमुच एक दुर्लभ दृश्य के जैसी प्यारी प्रतीत हो रही थी। मौसम बहुत अनुकूल न था, और हमारे पास समय भी बहुत कम था। सो इस शुद्ध वातावरण का जितना लुत्फ़ लिया जा सकता था, उतना लिया नहीं गया।
जिनके यहाँ हम गए थे, वहाँ बिजली नदारद थी। इसलिए हाथ वाले पंखे झलकर गर्मी दूर करने के प्रयास करते हुए बचपन के वो छूटे हुए दिन याद आ गए, जब हमारे यहाँ जनरेटर-इनवर्टर नहीं हुआ करते थे। बातों-बातों में हमारे मेजबान ने बताया, कि यहाँ गाँव में तो दिन में दो ही घंटे के लिए बिजली के दर्शन होते हैं, और यह भी पता नही, कि वो दो घंटे कौनसे होंगे।
अपनी रौ में वो तो और भी बहुत-सी बातें कहते चले गए, पर मेरा ध्यान तो उनकी उस एक बात ने ही अवरुद्ध कर दिया। गाँव में दिन में सिर्फ दो घंटे बिजली देने का क्या अर्थ हुआ, यह मुझे समझ नही आ सका। उमस भरे मौसम में, क्या गाँव वालों को गर्मी नहीं लगती? और शहर वालों के लिए बिजली की भला ऐसी क्या भारी ज़रूरत होती है, जो गांववालों की नहीं होती?
दिन-रात मिट्टी में मिट्टी होकर जग-भर के लिए अन्न उगाने वाले किसानों के लिए मेरे यहाँ बिजली तक उपलब्ध नहीं है। मन में बहुत कुछ आया, जो यहाँ लिखने की इच्छा नहीं हो रही! कम शब्दों में, मुझे बहुत ही ख़राब लगा यह सुनकर।
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