Thursday, 22 March 2012

वतन की उल्फत..

"अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ भुला सकते नहीं,
सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं!"
२३ मार्च की तारीख मुझे हमेशा याद रहती है. वीर भगत सिंह जी की शहादत की इस तारीख को भुला पाना मुमकिन नहीं है. एक छोटी सी उम्र, जब आँखों में बस अपने भविष्य के सुन्दर सपने तैरा करते हैं, में देश की खातिर अपनी बलिदानी देने को तैयार हो जाना, किसी आम आदमी के बस की बात तो नहीं हो सकती! स्वतंत्र भारत में जन्मने वाले हम सब बहुत भाग्यशाली हैं, कि हमें वो दुर्दिन नहीं देखने पड़े, जब अपनी ही धरती पर हम बंधक, गुलाम होते!
अगर उस वक्त वो सब युवा क्रांतिकारी अपने प्राणों का मोह त्याग कर स्वतन्त्रता आन्दोलन में शामिल न हुए होते, तो आज भी बंधन, और ग़ुलामी के वो दुर्दिन छुड़ाये  न छूट पा रहे होते. आज के समय में तो ऐसे विचार सिर्फ काल्पनिक ही लगते हैं, कि देश के लिए अपना जीवन त्यागने के लिए कोई तत्पर हो, और वह भी अपने जीवन के वसंत-काल में! जिस जीवन को उज्ज्वल बनाने के लिए एक आम आदमी न दिन की परवाह करता है, और न रात की, उस जीवन को आहूत करना बच्चों का खेल तो नहीं हो सकता! किसी परिस्थिति में, जब सामने सफलता स्पष्ट दिख रही हो, बड़े खतरे लेने को भी हम तैयार हो सकते हैं. लेकिन जब लक्ष्य भी स्पष्ट न दिख रहा हो, तब भी न डगमगाना, वो तो भारत के उन महान सपूतों के ही बस की बात थी. कैसा रहा होगा वो जीवन, जिसमे हर पल निगाहें सिर्फ एक ही लक्ष्य पर टिकी रहती थी, और वह लक्ष्य था, भारतमाता को उन अंग्रेज़ डाकुओं की गिरफ्त से मुक्त करा पाना! न भूख दिखती थी न प्यास, रात और दिन का भेद ही नामालूम था, उन सूरमाओं को. और निर्मम मौत तो उन्हें हर पल अपने शिकंजे में कस लेने के लिए कमर कस कर रहा करती थी. पर मौत की किसे परवाह थी? हर एक पल सिर्फ एक आग धधकती रहती थी उन दिलों में, जो अटल लक्ष्य लेकर चले थे, अपनी भारतमाता को आज़ाद कराने का! खुद ही मशाल के जैसे हो गए उन वीरों के आह्वान पर देश में उस वक्त खून का लोहा उबलने लगता था. ऐसे जोशीले सपूत हों, तो माँ कितने दिन बंधक बनी रहती! देश तो आज़ाद हो गया, पर उस आज़ादी की सुबह के सूरज को देखने से पहले उन महान क्रांतिकारियों की आँखें सदा के लिए बंद हो चुकी थी. यकीनन भारतमाता खुश तो बहुत हुई होगी आज़ाद होकर, पर अपने सच्चे सपूतों को खोने के दुःख में आज भी शायद फूट-फूट कर रोया करती होगी! 
हम सब के इस स्वतंत्र जीवन की बुनियाद जिन सच्चे वीरों के प्राणों से बन पायी है, उनकी शहादत के इस दिवस पर मन में बस इतना ही विचार आता है, कि अपनी भारतमाता की उस पीड़ा को दूर कर सकें! भगत सिंह तो हम नहीं हो सकते, पर उनकी शहादत का मर्म तो समझ सकें! उन अमर शहीद की शहादत को मेरा कोटिश: प्रणाम! वीर भगत सिंह जी के ये शब्द हमेशा याद रहते हैं, कि
"दिल से न निकलेगी मर कर भी वतन की उल्फत,
मेरी मिटटी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी".

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