Thursday 16 February 2012

असली राजा-नकली राजा

क्या आपने बंद आँखों से कभी सपना देखा है, कि आप एक 'राजा' हैं? अगर हाँ, तो खुली आँखों से भी उस सपने को शायद कई बार बुना होगा. कम से कम एक बार तो मन ने कहा ही होगा, कि "काश, ये सपना सच होता!" राजा होना बात ही कुछ ऐसी है. बड़े-बड़े महल, रत्न-मणियाँ, हाथी-घोड़े, दुन्दुभी-रणभेरी.. ऐसा ऐश्वर्यशाली जीवन किसे नहीं लुभाएगा!  एक ताली बजाते ही मनचाही वस्तु सामने ला दी जाए, और हर पल सिपाहियों की फ़ौज सुरक्षा के लिए तैनात हों! भोजन की मेज पर विविधतम स्वादिष्ट व्यंजन, और सब कुछ प्रचुर मात्रा में. परीक्षा की घड़ी न आए, तो ऐसा भी कहा जा सकता है, कि जिसके पास सब कुछ 'अनंत' है, वह है राजा. और बस, इसीलिए, यह सपना काजल की तरह हमारी आँखों पर लिपटा रहता है.
पिछले दिनों एक राजघराने के बारे में जानकारी मिली. हालाँकि वर्तमान में भारत में राज-पाट की परम्परा समाप्त हो चुकी है, पर राजाओं के वंश तो आज भी हैं. और किसी न किसी रूप में राजसी परम्पराएँ वहाँ निबाही जा रही हैं. धन-मान के अतिरिक्त, मुझे बताया गया, कि राजघरानों में पाक-कला के कुछ ऐसे जौहर हुआ करते हैं, जिनकी विधि की जानकारी महल की सीमा के भीतर ही रहती है. रानियों के पास भोजन पकाने की कुछ ऐसी विधियों अथवा सामग्रियों का ज्ञान हुआ करता है, जो उनके अतिरिक्त और कोई नहीं जानता. जानकर बहुत आश्चर्य हुआ. पर इससे भी अधिक आश्चर्य की बात तो अभी मेरी प्रतीक्षा कर रही थी. इस विधि की जानकारी रानी कभी अपनी पुत्री को भी नहीं दिया करती. केवल अपने पुत्र की पत्नी, यानि कि 'भावी रानी' को ही रसोई की यह कला सौंपी जाती है. इस अजीब परम्परा के पीछे तर्क यह दिया गया, कि पुत्रियों को बता दिया, तो हमारे घराने से निकलकर दूसरे घर-घराने में भी उस भोजन की सुगंध आने लगेगी. तो फिर राजघराने की विशिष्टता क्या बचेगी?
सिर चकराने के लिए यह तर्क पर्याप्त लगा. क्या ऐसा व्यवहार कृपणता का परिचायक नहीं है? जहाँ अब तक राजा का विवरण सुनकर सबकुछ अनंत-परिपूर्ण लगता था, वहाँ राजा का मन तो बहुत ही छोटा, और सीमित-सा लगा. अपनी विशिष्टता बनाये रखने के लिए अगर सूर्य ने भी धरती को अपना प्रकाश देना बंद कर दिया होता, तो आज धरती पर जीवन का लवलेश भी न होता. फूलों ने अपनी विशिष्टता बनाये रखने के लिए अगर अपनी पंखुड़ियाँ न खोली होती, तो दुनिया में सुगंध का नाम भी कोई न जानता होता. कवि-गीतकार ने अगर अपनी कृतियाँ स्वयं तक ही रखी होती, क्या तब जीवन संगीतरहित होकर नीरस-उबाऊ न हो गया होता! विचारकों ने भी अगर अपने विचार खुद तक ही महफूज़ रखे होते, तो दुनिया में कभी कोई नवीन क्रान्ति न आ पाई होती.  हम लोग आज तक भी शायद पैदल यात्रा कर रहे होते, अगर आविष्कारकों ने अपनी सफलताएँ जन-सामान्य के साथ न बाँटी होती. ऐसा व्यवहार, और वह भी एक राजा के द्वार पर, कतई सराहनीय नहीं हो सकता. क्या विशिष्टता का प्रयोजन केवल वाहवाही अर्जित करना ही है? यदि हाँ, तो बहुत ही सस्ती विशिष्टता है वह.
इस परम्परा के विषय में सुनने के बाद, एक बात तो बहुत अच्छी तरह समझ आ गई, कि सिर्फ राज-पाट, और वैभव से कोई राजा नहीं बन सकता. जिसका मन राजा बनने के बाद भी संकीर्णताओं से भरा हुआ है, वह तो बस दिखावटी, नकली राजा है. पूरी दुनिया के लिए जिसके मन में जगह है, दुनिया का असली राजा तो वही हो सकता है.

2 comments:

Rahul Arya said...

just awesome thoughts ma'am.....

Media and Journalism said...

Thanks a lot!