Friday 10 February 2012

प्रेम कोई भिक्षुक नहीं है..

कुछ दिन पहले मेरे घर के आँगन में एक कबूतर बैठा मिला. कभी पक्षियों को इतना शांत नहीं देखा. इसलिए, देखते ही पता चल गया, कि वह बीमारी की अवस्था में है. मानव से इतर जितना भी जीव-जगत है, उसमे भय की प्रधानता हमेशा से ही दिखती आई है. तो, उस भोले पंछी को दाना देने का मन हुआ. पर फिर सोचा, कि डर कर घबरा जायेगा. लेकिन उसकी विवशता के आगे मेरे मन के भ्रम-विकल्पों ने चुप्पी साध ही ली. और मैंने बहुत शांत-सधे क़दमों के साथ उसके लिए दाना-पानी प्रस्तुत कर दिया. मुझे बहुत प्रसन्नता हुई यह देखकर, कि वह न तो डरा, न ही उसने पंख फड़फड़ाए. मन में ऐसा विश्वास जगा, कि यह प्रेम की भाषा ही है, जिससे समूचे जगत में किसी भी जीव के साथ संवाद स्थापित किया जा सकता है! ‘प्रेम’ मेरी समझ में भावनाओं का वह विशुद्धतम स्वरूप है, जो केवल मन से ही एक अदृश्य रस के रूप में प्रवाहित होता है, और सिर्फ मन ही उसे ग्रहण कर सकता है. यहाँ उद्देश्य कुछ पाना तो होता ही नहीं है, बस.. देना, बाँटना, फैलाना! अपनी शुभकामनाओं को, शुभ-भावों को शब्दों की आकृति में सीमित किये बिना, और किसी प्रत्युत्तर की आशा से रहित होकर अर्पण करते रहना ही तो प्रेम है!
मेरे पास कोई कारण ही नहीं है, प्रचलित ‘वेलेंटाइन डे’ को पवित्रतम प्रेम के साथ सम्बद्ध करने का. गहराई का साम्य समुद्रतल दर्शित करने की एक परंपरा-सी है हमारे यहाँ! पर प्रेम की गहराई को तो माप ही कौन सकता है! वह तो अगाध समुद्र-सा होता है. दूसरी ओर, वेलेंटाइन डे जैसे अवसरों पर जो प्रदर्शन होता है, उसमे भावों की गहराई का भला क्या स्थान है! सतही, दिखावटी, नकली, दिन-दिन में बदल जाने वाले भाव को प्रेम कहने की परंपरा ही कहाँ से शुरू हो गयी होगी!
भावों की उत्पत्ति मन में होती है. और मन प्रकृति द्वारा संचालित है. वसंत-मास में प्रकृति का वैभव-विलास मानो, स्वर्गिक होने लगता है. ऐसे में, मन पर, एवं भावों पर उसका प्रभाव होना अति-स्वाभाविक है. मन प्रसन्नता का नित्य संस्पर्श करने लगता है. भाव भी मंत्रमुग्ध-से होकर मृदु-कल्पनाओं की पींग पर सवार हो आसमान तक डोलने लगते हैं. ऐसे में, वेलेंटाइन डे जैसे भ्रामक शब्द उन भावों का चुपके-ही दोहन करने लगते हैं, जिन्हें सूक्ष्मता में मग्न होना भा रहा होता है. प्रसन्नता की जो अंजुली प्रकृति भर-भर कर पिला रही होती है, उसमे विक्षेप का कारण बनकर आ जाते हैं ऐसे दिवस, जो पवित्रता से परिचित ही नहीं हैं. प्रेम का स्वरूप समझना हो, तो प्रकृति के गलियारे में प्रवेश करना ही होगा. जहाँ नित्य उत्सव हो रहे हैं, नीरवता में भी लताएँ अंगड़ाइयाँ लेती रहती हैं, पुष्प सुरभित होते रहते हैं, नदियाँ बलखाती रहती हैं, पक्षी कूजन करते रहते हैं, ऐसी उस प्रकृति से सीखने की आवश्यकता होती है, कि प्रेम तत्त्व क्या होता है. फल-फूल-औषधि-अन्न-जल, वह देती जाती है, हम लेते जाते हैं. जो भी जीवन है, प्रकृति के अनंत प्रेम के फलस्वरूप ही होता है. हम तो कभी धन्यवाद भी कहने नहीं जाते उसे! पर वह तब भी रुष्ट नहीं होती है. मौन धारण किये बैठी परम-स्नेहमयी माता की तरह पोषित करती ही जाती है. इससे सुन्दर स्वरूप क्या होगा प्रेम का! जहाँ-जहाँ इस अहैतुक-प्रेम का अस्तित्व है, वहाँ-वहाँ जीवन हर क्षण केवल उत्सव-रूप ही है. जब जीवन के हर क्षण में ही प्रेम हो सकता है, तो फिर इस उदार-शैली को त्याग कर केवल एक दिन प्रेम के नाम करने का औचित्य क्या हो सकता है? वह भी तब, जब वह एकदिवसीय प्रेम, प्रेम न होकर केवल एक भ्रान्ति-भर ही है! कहते हैं, कि भाव जितना सूक्ष्म होगा, वह स्थूल जगत को उतना ही अधिक प्रभावित कर पायेगा. प्रेम-भाव भी इसका अपवाद कहाँ है! इस अति-सूक्ष्म भाव के द्वारा सम्पूर्ण विश्व जीता जा सकता है. प्रेम की वंशी की तान से तो वन्य-पशु भी वशीभूत हो जाया करते हैं. शत्रु भी मित्र हो जाया करते हैं. इस पवित्र प्रेम का अर्थ ही है, पूर्णता. कभी किसी गौ के मस्तक पर प्रेमपूर्वक हाथ फेरें! उसके नयनों में एक भावपूर्ण स्वीकृति दिखेगी. किसी श्वान को पुचकार कर, सहला कर तो देखें, दुम हिलाता हमारे वर्तुल में घूमने लगेगा. इसका कारण यह है, कि ये निर्दोष जीव प्रकृति की निकटता में रहते हुए प्रेम नामक तत्त्व से युक्त होते हैं. पर प्रेम के इस जागतिक स्वरूप की कुरूपता देखी जाए! यहाँ क्रोध है, हिंसा है, अश्रु हैं! अधूरापन तो पर्याय ही हो चुका है जागतिक प्रेम का. तब भी इसे ईश्वरीय वरदान मानना, कहीं न कहीं हमारी ही स्वीकृतियों में भूलवश है. कारण की ओर ध्यान दिया जाए, तो वह होगा प्रकृति की स्नेहिल गोद का परित्याग. चेतनायुक्त प्रकृति का त्याग करके जड़वत पदार्थों के संग्रह में जुटा मनुष्य प्रेम की अस्मिता को तो कुचल ही चुका है, पर साथ ही, प्रेम के नाम पर पतन की नव सम्भावनाओं को जरुर तलाश रहा है.
यदि अधूरापन है, तो पूर्णता का अन्वेषण भी स्वाभाविक है. इसलिए, मन प्यासी हिरणी की भांति यहाँ-वहां दौड़ता रहता है. पर मरुभूमि में जलाशय कहाँ! बार-बार मृगतृष्णा थकाती है, रुलाती है. लेकिन शान्ति नहीं दे पाती. इसलिए, मन दोबारा चल निकलता है किसी नए जलाशय की खोज में. ऐसी खोज किसी वेलेंटाइन डे-सदृश नाम से कभी उत्तरित नहीं हो सकती. प्रेम, अथवा पूर्णता ‘देने’ पर ही घटित होता है. मेरा व्यक्तिगत मत यही है, कि प्रेम मनुष्य का स्वभाव है. और स्वभाव में जीना ही प्रसन्नता का कारक होता है. पर विपरीत दिशा में चलते हुए स्वाभाविक जीवन सम्भव नहीं है. किसी एक दिवस में ही प्रेम ही अभिव्यक्ति सीमित करना न केवल हास्यास्पद है, वरन अर्थहीन भी है.
हम हर दिन उल्लास में जियें. प्रकृति प्रदत्त आशीष को समझें. मन में व्यर्थ वैर-विरोधाभास को स्थान न दें! अकारण ही शुभत्व का विस्तार करते रहें. उसके बाद किसी से प्रेम की परिभाषा पूछने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी! प्रेम हमारा स्वभाव हो जायेगा. एक भयातुर पक्षी भी जब हमारे आगे समर्पण कर दे, तो जान लेना चाहिए, कि प्रेम-भाव सिद्ध हो गया है. विकृतियों का आवरण हटकर संस्कृति का उद्भव स्वयं हो जायेगा. फिर किसी ‘वेलेंटाइन-डे’ पर अपने अस्तित्व की भिक्षा मांगता प्रतीत नहीं होगा प्रेम!

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