Wednesday 1 February 2012

मीठे गन्ने का कड़वा रस..

"मीठे गन्ने चूसने में जो मज़ा आता है, वो गिलास में उड़ेले हुए उसके रस को पीने से कहीं ज्यादा होता है", बातचीत के दौरान एक प्रिय सखी ने ये शब्द मुझसे कहे. हम दोनों को ही गन्ने चूसना बहुत पसंद है. इतना ज्यादा, कि गन्ना चूसने के बाद ज़बान पक जाना भी मंज़ूर है. ऐसे ही, दो दिन पहले मेरे घर में कुछ गन्ने लाये गए. स्थिति ऐसी बनी, कि मेरे लिए अपनी प्रिय चीज़ से दूर रहना मजबूरी हो गया था. पिछले कुछ दिनों से एक दाँत में असह्य पीड़ा के चलते सादा भोजन कर पाना भी मेरे लिए कठिन हो रहा है. तो ऐसे में गन्ना चूसना, कोई प्रश्न ही नहीं उठता.
रसोईघर में रखे ढेर सारे गन्ने तो अपनी मस्ती में लेटे हुए थे. पर इधर मेरे मन का चैन नदारद हो गया था. कमरे में बैठे हुए, मेरे विचारों का केंद्र लगातार वो गन्ने ही बने हुए थे. ज़बान उस रस को चखने के लिए बेताब हो रही थी. और हर बार रसोईघर की ओर बढ़ने पर नज़रें हरे-हरे गन्नों की ओर खुद ही घूम जाती थी. ऐसा लगने लगा, कि मानो मुझे ज़बान ही चिढ़ा रहे हैं मेरे प्रिय गन्ने. पर 'आत्म-नियंत्रण' नाम की भी तो कोई चीज़ होती है! वेगपूर्वक हर बार मैंने अपने ऊपर काबू बनाकर रखा. लेकिन, ज़रा-सा गन्ना खाने से कहाँ कुछ होता है! और आखिर मेरे कदम मुझे गंतव्य की ओर ले ही गये. विधिपूर्वक गन्ना चूसना तो दर्द के कारण मुमकिन नहीं था. इसलिए चाक़ू की सेवाएँ ली गयी. चाक़ू से छिल-छिल कर, और काट-काट कर गन्ने के छोटे-छोटे टुकड़े किये, जिन्हें हमारी बोलचाल में 'गंढेरियाँ' कहते हैं. ये टुकड़े, जितनी बार ज़बान पर रस घोलते, और-और रस पीने की चाह उतनी ही बढ़ती जाती. हाँ, दाँतों से काटने की तुलना में चाक़ू की मदद से खाना मज़े को थोड़ा कमतर तो कर रहा था, पर इतना समझौता तो किया ही जा सकता है! यहाँ अपनी सखी की कही हुई बात मुझे अक्षरश: सत्य प्रतीत हो रही थी. थोड़ा और-थोड़ा और, करते-करते ढेर सारा गन्ना खा लिया. और इस दौरान मन में एक विचार पनपने लगा.
गन्ने जैसा सस्ता पदार्थ, आज तक कितनी बार चूसा होगा, कोई गिनती ही नहीं! तो भी, दर्द के बावजूद भी लोभ-संवरण नहीं हो पाया. और अंत में आत्म-नियंत्रण को धत्ता बता ही दिया. ऐसी होती है इच्छा की प्रबलता. विचार आया, कि एक दरिद्र व्यक्ति, जो बुनियादी ज़रूरतों का भी अभाव देखता है, जब उसे भूख लगती होगी, तो क्या दशा होती होगी उसकी! पेट में गुड़-गुड़ हो रही हो, लेकिन जेब भी पेट की तरह खाली हो, तो क्या हाथ खुद-बखुद नहीं बढ़ जाते होंगे चोरी के लिए? हम पक्की छत के नीचे रहने वाले लोग, अपनी गैर-ज़रूरी इच्छाओं को पूरा करने के लिए भी हर पल बेताब रहते हैं. और वो झुग्गी-झोंपड़ियों में गुज़र-बसर करने वाले लोग भरपेट भोजन करने का भी ख्वाब देखते हैं. ऐसे में, चोरी करते हुए क्या उन्हें नैतिकता-अनैतिकता, अपराध-कानून याद भी रहते होंगे? भले ही मैं चोरी के पक्ष में नहीं हूँ, पर क्या ये बात सोचने की नहीं है, कि कहीं न कहीं उनके इस दोष के पीछे हमारी सामाजिक-व्यवस्था भी दोषी है. क्या निर्धनता-विवशता को दूर करने के लिए समर्थ-समाज की ओर से कोई सार्थक पहल नहीं होनी चाहिए?
सोचते-सोचते गन्ने का वो रस कड़वा लगने लग गया. मेरे दाँत का दर्द तो बढ़ना ही था, सो आज तक भी बेहाल कर रहा है. और जब-जब इस दर्द की कसक उठती है, गन्ने की वो कड़वाहट भी खुद-बखुद याद आ जाती है. उसके साथ-साथ, उन भूखे पेटों से आने वाली गुड़-गुड़ की आवाज़ कानों में खुद ही गूँजने लग जाती है.

4 comments:

Rajesh Kumari said...

ganne ke madhyam se samaj ke ek gareeb varg ki samsya ka bahut achcha varnan kiya hai yeh humare desh ki jaanleva bimari hai gareebi jiske karan hi apraadh panap rahe hain.bilkul sahi baat kahi hai aapne.

Media and Journalism said...

एक प्रयास-भर किया है! आपको पसंद आया, जानकार प्रसन्नता हुई.
सादर धन्यवाद.

पीयूष त्रिवेदी said...

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Media and Journalism said...

Thanks a lot.