Thursday, 31 October 2013

समाचार-पत्रों में प्रकाशित लेख



कैसी हो दीपावली ...


मिठास एवं प्रकाश के साथ माता लक्ष्मी का स्वागत करने का राष्ट्रीय पर्व है दीपावली। और न जाने क्यों हम हर मायने में इस पर्व के मायने उलट रहे हैं! मिठास हेतु जो मिष्ठान्न बाज़ार से लेते हैं, उनमें कृत्रिम रंग और कीटनाशकों की मात्रा बढ़ती जा रही है, पर किसी पर असर नहीं है। प्रकाश हेतु मिट्टी के पारम्परिक दीये कहीं दिखते ही नहीं हैं, जिनसे कुम्हार को भी रोज़गार प्राप्त हो पाता! बिजली की लड़ियों में सुंदरता तो है, पर स्वाभाविकता नहीं!
बाकी रही माता लक्ष्मी के स्वागत की बात, रात भर बारूद-पटाखे फोड़कर मेहनत से कमाये धन को भस्म करके समृद्धि की देवी को कैसे प्रसन्न किया जा सकता है, समझ में नहीं आता।
घर पर ही मावे और मेवे से स्वादिष्ट पकवान बनाकर, मिट्टी के नन्हे दीपक जगमगाकर इस पर्व को प्रियजनों-मित्रों के संग मनाया जाए, और इसके साथ ही कुछ मिठास और प्रकाश दरिद्र-नारायण को भी अर्पण की जाए। झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने वाले छोटे-छोटे बच्चों की आँखें जब मिठाई देखकर टिमटिमाने लगती हैं, तब मन में प्रसन्नता का प्रकाश स्वयं ही भर उठता है। अगर ऐसी हो दीपावली, तो आनंद ही कुछ और हो!




Wednesday, 16 October 2013

ये मेरी हॉबी...

मेरी हॉबी है, रोज़ शाम को अपनी द्विचक्रिका (साइकिल) के आगे लगी टोकरी में रंग-बिरंगे फूलों का एक सुन्दर-सा गुच्छा सजाकर, (हवाई) सैर के लिए निकलना। और उसके बाद रस्ते-भर मस्ती से हीरोइनों की तरह प्यारे-प्यारे गीत गुनगुनाते जाना। मगर आजकल ये मेरी हॉबी मुझे परेशां-परेशां-परेशां करने लगी है। कारण??
 

'मच्छर' !

मौसमी मच्छरों की इस साल ऐसी ज़बरदस्त पैदावार हो रही है, कि रस्ते पर साइक्लिंग करते हुए गाना गाने के लिए ज़रा-सा मुँह खोला नहीं, कि … ईईईई …… ईईईई…………   !!!

प्रिय हस्ताक्षर :-

टिम्सी मेहता :) :P

Friday, 11 October 2013

मेरे देश की बातें....

लम्बी यात्रा के बाद आज घर-वापसी हुई। कई शहर पार करते हुए, खेत-खलिहानों के मध्य, एक छोटे-से गाँव में एक औपचारिक कार्यक्रम से जाना हुआ था। जिस शांति-नीरवता का ज़िक्र अक्सर ग्राम्य-जीवन के साथ किया जाता है, ठीक उसी शांति-ठहराव का अहसास वहाँ हुआ। गाड़ियों का शोर-शराबा तो दूर-दूर तक नही, कच्चे रास्तों पर पैदल चलने का अनुभव अच्छा लग रहा था।
कहीं कौवों की काँव-काँव सुनाई दे रही थी, और कहीं रँभाती हुई गाय नज़र आती थी। अपनी मस्ती में घूम रहे छोटे-छोटे बच्चों को रस्ते भर निहारा, उनकी स्वाभाविकता सचमुच एक दुर्लभ दृश्य के जैसी प्यारी प्रतीत हो रही थी। मौसम बहुत अनुकूल न था, और हमारे पास समय भी बहुत कम था। सो इस शुद्ध वातावरण का जितना लुत्फ़ लिया जा सकता था, उतना लिया नहीं गया।
जिनके यहाँ हम गए थे, वहाँ बिजली नदारद थी। इसलिए हाथ वाले पंखे झलकर गर्मी दूर करने के प्रयास करते हुए बचपन के वो छूटे हुए दिन याद आ गए, जब हमारे यहाँ जनरेटर-इनवर्टर नहीं हुआ करते थे। बातों-बातों में हमारे मेजबान ने बताया, कि यहाँ गाँव में तो दिन में दो ही घंटे के लिए बिजली के दर्शन होते हैं, और यह भी पता नही,
कि वो दो घंटे कौनसे होंगे। 
अपनी रौ में वो तो और भी बहुत-सी बातें कहते चले गए, पर मेरा ध्यान तो उनकी उस एक बात ने ही अवरुद्ध कर दिया। गाँव में दिन में सिर्फ दो घंटे बिजली देने का क्या अर्थ हुआ, यह मुझे समझ नही आ सका। उमस भरे मौसम में, क्या गाँव वालों को गर्मी नहीं लगती? और शहर वालों के लिए बिजली की भला ऐसी क्या भारी ज़रूरत होती है, जो गांववालों की नहीं होती?
दिन-रात
मिट्टी में मिट्टी होकर जग-भर के लिए अन्न उगाने वाले किसानों के लिए मेरे यहाँ बिजली तक उपलब्ध नहीं है। मन में बहुत कुछ आया, जो यहाँ लिखने की इच्छा नहीं हो रही! कम शब्दों में, मुझे बहुत ही ख़राब लगा यह सुनकर।