Tuesday, 1 November 2011

विश्वविद्यालय के गलियारे से..

शिक्षा के क्षेत्र में 'विश्वविद्यालय' की परिकल्पना मुझे बहुत अच्छी लगती है. एक ऐसा विद्या-मंदिर, जहां विश्व-स्तरीय योग्यता एकत्रित हो, ताकि विश्व-स्तरीय प्रतिभा उत्पादित की जा सके. जहां ज्ञान स्थानीय सीमाओं में ठहरा हुआ न हो, बल्कि उसमे हर दिन एक नए लक्ष्य को भेदने का सामर्थ्य हो.  छात्र-छात्राएं न केवल किताबों की बातें कुशलतापूर्वक समझ पायें, अपितु अलग-अलग संस्कृतियों से जुड़ते हुए, सुन्दर, सभ्य जीवन जीने का व्यावहारिक सूत्र भी समझ सकें. ऐसा चहुमुखी विकास जहां हो सके, वो है विश्वविद्यालय.  और ऐसे में, विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना, मेरे लिए तो आँखों के जुगनुओं को  जगाने के जैसा ही था. अपनी विश्वविद्यालीन शिक्षा के दौरान अक्सर ही मुझे बहुत से स्मरणीय अनुभव होते रहते हैं. और उनमे से एक 'उच्च-कोटि' का अनुभव जो मन की गहराई तक अंकित है, बाँटने की इच्छा है.
कुछ दिन पहले की बात है. पुस्तकालय में मुझे कुछ काम था. एक और छात्रा भी आने वाली थी. इसलिए बाहर खड़े होकर ही उसका इंतज़ार करना शुरू किया. अब अकेला खड़ा इंसान और क्या कर सकता है! इधर-उधर नज़रें घुमानी शुरू कर दी, किसी नयेपन की तलाश में. और एक कोने में जाकर नज़रें टिक गयी. सात-आठ छात्र-छात्राएं एक समूह में खड़े थे, गप्पें लड़ाते हुए. उनकी हंसी-ठिठोली की आवाज़ सुनना अच्छा लग रहा था. वैसे देखा जाए, तो विश्वविद्यालय के गलियारों की रौनक ही छात्रों की चहकती आवाज़ से होती है. इसी हँसी-खेल के बीच, एक छात्रा सामने देखते हुए बोली,  कि " देखो, विन्नी आ रहा है सामने से." 
और सबकी निगाहें उस सामने से आ रहे उस विन्नी नामक छात्र पर जा लगी, जो उनका मित्र था. उसी समूह में से एक छात्र बोला,  कि" चलो, इसकी ओर घूर-घूर कर जोर-जोर से हँसते हैं. शर्मिंदा हो जायेगा, बहुत मज़ा आएगा." और फिर क्या था, वो सब 'विश्वविद्यालय' के छात्र, बिना ही किसी बात के, विन्नी की ओर देख-देख कर हँसने लगे, ताकि उसका आत्मविश्वास, और आत्म-संतुलन गड़बड़ा जाए. मेरी नज़रें चुपके से विन्नी की ओर घूम गयी. अब ये विन्नी महाशय भी बड़े सूरमा निकले. शर्मिंदा तो क्या ही होना था, वो भी सुर में सुर मिला कर जोर-जोर से हँसते हुए उन सब की तरफ बढ़ने लगे.
उस टोली की हरकत को बूझते हुए, विन्नी ने अपना आत्म-नियंत्रण नहीं खोया, और उनकी योजना पर पानी फेर दिया. ये विन्नी, जो मेरे लिए एक अजनबी था, एक गज़ब की सीख दे गया मुझे. कि अगर इस दुनिया में ठीक तरीके से रहना है, तो आत्म-नियंत्रण की रणनीति तैयार रखनी चाहिए हर एक पल.  दुनिया की आँख का पानी तो सूख ही चुका है! अपने साथ उठने-बैठने वाले भी हमें शर्मिंदा करने में गौरव का अनुभव करते हैं यहाँ. और इसीलिए, हर पल चौकन्ना रहने की सख्त ज़रूरत है यहाँ.
एक सवाल भी, हर बार की तरह उठा मन में. कि जब अपने साथ रहने वालों के लिए ही स्वीकृति नहीं बना पाए हम अपने मन में, हर एक कदम पर  हम केकड़ों की तरह अपने ही दोस्तों को गिराने की कोशिश में लगे रहते हैं, वो भी उच्च-शिक्षा लेते हुए! तो भला हमारे देश का निकट भविष्य सुखद कैसे होगा, जब भविष्य के कर्णधार ही सही आचरण से दूर हैं! अपने-अपने मोर्चे पर जब तक हम गलत करना नहीं छोड़ेंगे, तब तक सामने से सही की उम्मीद करना भी तो एक गलती ही है न..! 
विश्वविद्यालय के गलियारे की ये एक छोटी-सी घटना दरअसल ज़िन्दगी का एक बहुत बड़ा पाठ है...!

2 comments:

BrijmohanShrivastava said...

उत्तम और शिक्षा प्रद संस्मरण ( आलेख )

Media and Journalism said...

सादर धन्यवाद.