Tuesday, 24 January 2012

रस-रूप-गंध महोत्सव!

ऐसा लगता है, कि मेरी बगिया में रोज़ रात को दबे-पाँव कोई आया करता है. चारों ओर फुलवारी पर रंगों की बौछार कर जाता है! है कोई तो, जो अपनी निराली-सी पिचकारी में अनोखे-से रंगों का गुलाल भर कर लाया करता है, और हर एक पत्ते को अपने सुकुमार स्पर्श के संग मृदु गीत गाकर सुला जाता है. मुस्कान की ओढ़नी ओढ़कर सोये ये फूल-पत्ते सुबह ओस की बूँदों से नहाए मिलते हैं. न कोई वाद्य-यंत्र है, तो भी मानो नृत्य कर रहे-से लगते हैं. अपने ही मन के गीत-संगीत पर थिरकते रहते हैं.
कहीं पीले रंग के पुष्प यूँ बिखरे हैं, मानो प्रकृति दूसरा कोई रंग जानती ही न हो. मेरी बगिया का वो कोना केवल पीत-वर्ण का ही दिखता है. वहीँ दूसरी ओर लाल रंग के फूलों का रूप देखा जाए, तो मंत्रमुग्ध! उन पर टपकी ओस की बिन्दुएँ तो जैसे रक्तिम आभा लिए किसी अलौकिक मणि का-सा भ्रम कराती हैं. गुलाबी रंग के फूलों का सौन्दर्य यहाँ कौन कम आँक सकता है! एक नज़र-भर से ही मन-मयूर झूम उठता है. जिस ओर भी दृष्टि जाती है, वहीँ सम्पूर्णता हर्षित होती दिखती है. इन दिनों धरती पर बिछा घास का कालीन भी इन्हीं रंगों के झूले में डोलता-सा प्रतीत होता है. बातों-बातों में, यों ही अपने मन से पूछ लिया मैंने, कि ये मेरी बगिया में किसका किया-धरा हो सकता है? भला हर नवदिवस के साथ रंगों का ये सुरभित खेल, ये अनूठा मेल क्यों रचा जा रहा है, ओर वो भी चुपके-चुपके से? मुझे बताया गया, कि 'वसंत-पंचमी' आ रही है. इसी दिन के स्वागत में प्रकृति खिल रही है, झूम रही है, सज रही है. और सिर्फ मेरी ही क्यों, हर एक बगिया-बाग़ में ऐसा ही समायोजन हो रहा है, रंग, सुगंध और उल्लास का. समझते देर न लगी, कि ये तो स्वयं वसंत ही है, जो हर एक बगिया में जा-जाकर अपनी छाप छोड़ रहा है. रीति ही कुछ ऐसी रहती है इस नटखट-चंचल वसंत की! किसी को भनक भी न लगने दी, और अपने रंगों का फव्वारा चला दिया! ये वसंत, फूल-पत्ते, घास, सब मिलकर ऐसी योजना बनाये बैठे हैं, कि ठीक वसंत-पंचमी पर ध्वजा की तरह फ़हराने लगें ये रंगों की लहरें. कभी धीमी, तो कभी तेज़ हो जाती इन हवाओं में भी एक उन्माद अनुभव हो रहा है. वसंत ने अपना जादू हर दिशा पर चला दिया है. इतना-भर ही नहीं, सुरीले संगीत का भी प्रबंध किया गया है. स्वरों की रानी, कोयल ने संगीत-साधना प्रारंभ कर दी है. चुपके-चुपके से कहीं किसी आम के वृक्ष पर जा बैठी वो अपने प्रिय गीत गुनने का अभ्यास करती-सी लगती है.
एक अद्भुत आयोजन, जो बाग़-बगिया से लेकर मन की भूमि तक सब ओर छा जाने वाला है, 'वसंत-पंचमी' के रूप में बहुप्रतीक्षित है. आमंत्रित हर एक वो मन है, जिसे प्रकृति का विलास आकर्षित किया करता है. पर  आगंतुक तो सब अपने ही हैं. इसलिए, चिट्ठी-पाती किसी को विशेष रूप से नहीं भेजी जा रही है. मेरे मन को हर एक पल वासंतिक सुगंध की, प्रसन्नता के मकरंद की चाह है. भव्यतम प्राकृतिक 'रस-रूप-गंध महोत्सव' का हार्दिक स्वागत है.

Monday, 16 January 2012

मेरी सीख, मेरे लिए..

विचारों से भरा रहता है ये मन! जहां कुछ विचार आया, वहीँ कलम उठ जाती है. और शब्दों के नए-नए डिब्बे जुड़कर बन जाती हैं, विचारों की नयी-नयी रेलगाडियां. कभी-कभी लिखते-लिखते अचानक हाथ ठिठकने लगते हैं. कारण कुछ बहुत बड़ा न होकर, बहुत मामूली-सा है. सर्दियों के प्रभाव से अंगुलियां बर्फ-सी हो जाती हैं. 
यों ही, लिखते-लिखते दायाँ हाथ ज़रा रुक गया, तो ध्यान बाएँ हाथ की ओर चला गया. देखा, वो तो मज़े से गर्म दस्ताने में पड़ा सुस्ता रहा था! दो पल आराम कर के दायाँ हाथ तो फिर से मसरूफ हो गया अक्षरों और मात्राओं के मेल में! और इतने में ही कहीं से मनपसंद संगीत की लहरियाँ आने लगी. बाएं हाथ की अंगुलियां दस्ताने के भीतर ही मचलने लगी. हिल-हिल कर कुछ नृत्य-सा करने लगी. पर इस हलचल से बेखबर, दायाँ हाथ जुटा रहा विचारों को शब्दों का सांचा देने में. ये सब सोच कर, मुझे लगा, कि कितना मेहनतकश है मेरा दायाँ हाथ! और बायाँ हाथ, एक नंबर का आरामतलब! तो क्या ये सब देख कर, कभी मेरा दायाँ हाथ अपने जोड़ीदार से ईर्ष्या करता होगा? बिलकुल नहीं. और न ही मेरा बायाँ हाथ कभी अपनी मौजमस्ती से चिढ़ाने के लिए दायें हाथ को अँगूठा दिखता है. इतने विषम ढर्रे के बावजूद, दोनों हाथ बिलकुल पक्के दोस्त बनकर रहते हैं. पता है, क्यों? क्योंकि दोनों हाथ मेरे ही तो हैं! और मैंने इन्हें सिखाया ही नहीं है झगड़ना. मिल-जुल कर सब काम करना ही सिखाया है मैंने तो इन दोनों को. लेकिन इसका मतलब ये थोड़ा ही है, कि मैंने कोई महान कारनामा कर दिया. मुझे भली तरह पता है, कि ये दोनों मिलकर रहेंगे, तो मेरा ही जीवन आसान होगा. मेरे सामने कोई भी समस्या आ जाए, दोनों हाथ किसी न किसी तरह मुझे बचा ही लेंगे. इसलिए, मैंने उन्हें द्वेष का मन्त्र सिखाया ही नहीं है. और सच, सोचकर ही मन काँप रहा है, कि अगर कहीं से इन हाथों के कानों में द्वेष शब्द पड़ गया, तो इन दोनों की, और मेरी दशा कैसी होगी!
कामकाजी हाथ दूसरे के भाग्य से रश्क करेगा, और उसे नुकसान पहुंचाने के लिए योजना बनाएगा. हो सकता है, किसी और के हाथ से सांठगांठ ही कर ले, और वो दोनों मिलकर मेरे बाएं हाथ को चोटिल कर दें! बायां क्या चुप रह लेगा? थोडा घाव भरते ही वो भी चुपके से आक्रमण कर सकता है! दोनों हाथ आपस में गुत्थमगुत्था होने लगेंगे, तो मुझसे चुप कैसे रहा जायेगा? उन्हें चुप कराने कि कोशिश की, तो मुँह भी उनका कोपभाजन होकर लहुलुहान हो जायेगा. और आखिर में मेरी दशा बिलकुल मेरे देश के जैसी ही हो जायेगी. रोम-रोम में घावों का ताण्डव होगा. द्वेष का एक नन्हा बीज क्या नहीं कर सकता! प्रेमपूर्वक रहने में ही समझदारी है. और इस वक्त, मैंने अपने दोनों हाथों को निर्देश दे दिया है, आपस में हाथ मिलाने का. समझदार जो हूँ!

Wednesday, 11 January 2012

न जाना परदेस मुझे..

अलबेले मीतों के संग वो
पल थे कभी सुनैले !
अब मेरा संगी आसमां, 
मेरे घर की ज़मीं !

देखी होगी दुनिया-भर ने, 
मस्ती में मेरी हस्ती !
मेरी माटी ने बस चखी,
है इन नैनों की नमी !

घुमड़-घुमड़ कर कितने कोने, 
देखे-भाले होंगे यों !
हर इक बारी, बग्गी मेरी,
अपनी नगरी आ थमी !

यहाँ गुज़ारे सब सुन्दर पल,
भूले से भी न भूलेंगे !
आते पल भी यहीं गुज़ारूँ,
इसी चाह में आस रमी !

मेरा तो ये ही गुलिस्तां,
ये ही मेरा कश्मीर !
ना जाना परदेस मुझे,
वहाँ मेरी माटी की कमी..!

:- टिम्सी मेहता.

Tuesday, 10 January 2012

इस गुनगुनी धूप में . . .

सर्दियों की गुनगुनी धूप एक आमंत्रण-पत्रिका के जैसी होती है. घर के भीतर के सब काम जल्दी-जल्दी समेटकर, आँगन की ओर बढ़ने का एक न्योता आता है. और हिम-देवता के खेल के फल-स्वरूप जो स्वाभाविक जीवन धीमा पड़ गया होता है, इस गुनगुनी धूप के संस्पर्श से फिर से मुखर होने लगता है. ऐसी इस धूप में बैठना, और प्रकृति के रंगों को देख-देख हैरान होना अच्छा लगता है.
बगिया में खिल उठे गुलदाउदी, गेंदा, गुलाब और डेहलिया किसी भी प्रकृति-प्रेमी के लिए मुस्कान का विषय हो जाते हैं. भरी धूप की रौशनी इन फूलों की पंखुड़ियों के रंगों को और भी प्रखर कर देती है. चारों दिशाओं में फैली ये पंखुड़ियां इन फूलों की प्रसन्नता की कहानी कह रही-सी लगती हैं. खुद में ही सिमटे जीवन को खिलने, और फैलने की प्रेरणा देती-सी लगती हैं. धूप सेंकते-सेंकते मुझे यों याद आता है, कि कैसे एक अंगुली बराबर पौधा हम लाये थे, जो आज एक सुन्दर प्रेरणा में परिणत हो चुका है! इतना छोटा-सा था, कि उसे पौधा कहना भी कुछ अजीब ही लग रहा है.
नन्हा-सा वो एक बूटा था. उसे हाथों में उठाकर घर में लाना मन की माटी पर गहरा अंकित एक ऐसा एहसास था, जिसे मन की तरंगें ही पढ़ सकती हैं. एक नया, सुकोमल जीवन मेरे घर में प्रवेश कर रहा था. बिलकुल एक नन्हे शिशु के जैसा, जिसे गोद में उठाने का आनंद शाब्दिक अभिव्यक्ति की सीमा से परे होता है. हौले-हौले इस बूटे के नन्हे पत्तों पर मैंने हाथ भी फेरा था. उस बूटे को लाकर अपने घर की धरती में रोंपते हुए ठीक इसी दिन की कल्पना की थी, कि मेरे घर का आँगन इसकी फुलवारी से रंगीन हो उठेगा. हर दिन, जाड़ा, धूप, पानी, और मेरी आशाएं इस पौधे को सींचते रहे. धीरे-धीरे नए पत्ते फूटे. फिर कलियाँ दिखी. और एक दिन प्रकृति ने अपनी स्नेह-वृष्टि से पौधे को पूरी तरह नहला दिया, जब वो कलियाँ सम्पूर्ण पुष्प में रूपांतरित हो उठी. और अब, उस पुष्प की शोभा किसी काव्यकृति में गूंथे जाने जैसी हो चुकी है.
ये रंगों की तरंगें, उन्मुक्त प्रस्फुटन, और स्वागत भरी मुस्कान मेरे घर के आँगन में लेकर आये ये फूल-पौधे मेरे जीवन का कितना अभिन्न अंग हो गए हैं. इनका जीवन मेरे जीवन को नवीनता, आशाओं, और प्रेरणाओं से भरे रखता है. ये गुनगुनी धूप सेंकते-सेंकते, मेरा मन प्रकृति के विलास को को देखकर बस यूँ ही रोमांचित होता रहता है.

Tuesday, 3 January 2012

मम्मी, सोने दो न!


सर्दियों में सुबह की मीठी नींद बहुत प्यारी लगती है. मीठी नींद से भी ज्यादा मीठे सपने तोड़कर सुबह उठने का बिलकुल मन नहीं होता. रात को मीठी लोरी, या फिर सुन्दर कहानियाँ सुनाकर जो माँ अपने बच्चों को गाढ़ी नींद में सुलाती है, सुबह वही माँ अपने नादान नौनिहालों की नींद तोड़ भी देती है. मन तो शायद उसका भी करता होगा, कि प्यारे बच्चे कुछ देर और भी यूँ ही सोते रहें, सपनों के संसार में परियों से मुलाकातें करते रहें! पर फिर भी कुछ बातें उसे मजबूर कर ही देती हैं उन्हें सपनो की दुनिया से बाहर लाने के लिए. 
जहां एक ओर अनुशासन का पाठ पढ़ाना ज़रूरी होता है, वहीँ दूसरी ओर उनके भविष्य का विचार करते हुए उनकी पढ़ाई-लिखाई के लिए भी तो सही समय पर विद्यालय भेजना होता है. ऐसे में, हौले-हौले थपकी देकर बच्चों को निद्रा के प्रदेश से बाहर लाना माँ को बेहतर लगता है. बच्चों के जगने से लेकर, उनके तैयार होने तक, और उसके बाद नाश्ता-कलेवा कर लेने तक उनके बचकाने नखरे सहन करना माँओं  को बहुत अच्छा लगता है. कभी-कभी स्नेहमयी होकर वो उन नखरों को पूरा भी कर देती है, और अपने लाडले बच्चों की एक मुस्कान की उड़न-तश्तरी पर सवार होकर स्वर्ग की सैर कर लेती है. तो कभी-कभी कठोरता की ओढ़नी ओढ़कर मीठी डांट भी लगा देती है. जो भी करती हो, उसकी आँखों में एक सपना बराबर पलता रहता है, कि बच्चा बड़ा होकर बहुत योग्य बनेगा, सुखी रहेगा. और इन्ही सपनो में जीते हुए, हर दिन वो अपने हृदय के अंश को पढने के लिए भेज दिया करती है. पर वो समझ नहीं पाती है, कि उसकी ममता का भाव उसकी ही दृष्टि के आड़े आ रहा है. न वो कभी धूप की परवाह करती है, और न धुँध की. वो भूल ही जाती है, कि जिस स्कूल में वो बच्चे को पढ़ाने के लिए भेज रही है, वो तो केवल एक व्यावसायिक संस्था-भर है, जिसके लिए नियम-कायदों का पालन बस 'होना' चाहिए. पगली माँ आज भी स्कूल को शिक्षा का मंदिर समझती रह जाती है. और ख़ुशी-ख़ुशी नोटों का चढ़ावा चढ़ती रह जाती है. स्कूल वाले भी, एक यांत्रिक शिक्षा-पद्धति के साथ, बस हर दिन किताबों का पाठ पढ़ा दिया करते हैं. सुबह भले धुँध में हाथ को हाथ न सूझता हो, पर बच्चों की उपस्थिति तो अनिवार्य है. दोपहर की धूप में भले ही कौवा भी छिप जाता हो, पर बच्चों के लिए कोई छूट नहीं. पता नहीं, किस आकाशीय परियोजना के अंतर्गत बच्चों को भी यंत्र बनाने की ये प्रक्रिया चलती रहती है! 
अभिभावक ममता-परवश होकर समझ नहीं पाते, और विद्यालय अनुशासन की आड़ ले लेता है. लेकिन क्या मानवाधिकार के अंतर्गत, बच्चों के लिए ये सही है? कितने बच्चों के तो प्राण भी लील गया है ये धुँध के दिनों का कठोर अनुशासन! तो क्या बच्चों की प्राथमिक शिक्षा उनके जीवन से भी अधिक महँगी हो चुकी है, जो सर्दी की चरम अवस्था के इस मास में भी उनके लिए अवकाश की व्यवस्था नहीं है? 'मम्मी, सोने दो न!' कहते बच्चों को जगाकर माँएँ पता नहीं क्यों, 'जीवन' से संघर्ष के लिए स्कूल भेज देती हैं! एक यांत्रिक युग का इससे बड़ा उदहारण शायद और कोई नहीं हो सकता.

समाचार-पत्रों में प्रकाशित लेख (जनवरी माह)

समाचार-पत्रों में प्रकाशित लेख (जनवरी माह)