पता नहीं हमारे समाज में बच्चियों को दुर्गा का स्वरूप क्यों कहा जाता है!
उन्हें पूज्या, कंजिका और साक्षात शक्ति भी कहते हैं, और अपने ही घर में
जन्मी उसी देवी को मार-मार कर उसके प्राण भी ले लिए जा रहे हैं. उसका कसूर
सिर्फ इतना, कि वह लड़का ‘नहीं’ है. अगर वह लड़का होती, तो ऋण लेकर भी उसके
जन्म पर जश्न मनाया जाता. लेकिन अगर वह लड़की है, तो उसे क्या अधिकार है
जीने का!
इन दिनों में लगातार ऐसे दारुण समाचारों ने शायद ही किसी का ध्यान न खींचा
हो. खबर पढ़ते भर ही आँखों में आँसू भर आते हैं. भला एक जन्मदाता इतना
क्रूर-कठोर कैसे हो सकता है, कि फूल जैसी कोमल अपनी ही बच्ची पर आघात करे!
इतने दुष्ट, और निर्मम तो पशु भी नहीं हुआ करते, क़ि अपनी आश्रित संतान के
साथ ऐसा व्यवहार करें. वे नादान बच्चियाँ, जिन्होंने अभी आँखें खोली भर ही
थी, को क्या पता होगा, क़ि यह दुनिया आखिर क्या है! हर एक वार के साथ वो
कितना बिलखी होंगी, तड़पी होंगी, केवल उन्हें ही पता होगा. वे तो इतना भी
बोलना नहीं जानती थी, कि “मुझे मत मारो”! और अगर बोलना जानती भी होती, तो
भला किसे बुलाती अपने माता-पिता से खुद को बचाने के लिए? नन्हे बच्चों को
कोई बाहर वाला प्यार से ज़रा पुचकार भी देता है, तो माता-पिता तुरंत काला
टीका लगा दिया करते हैं, कि कहीं उनके लाडले को बुरी नज़र न लग जाए. कहीं
थोड़ी सी चोट लग जाए, तो माता अपनी गोद में उसे सम्हाल कर थपकती है, सहलाती
है. जब तक वह अपना दर्द भूल न जाए, तब तक उसे हौले-हौले दबाती रहती है.
पिता एक पहरेदार के समान खड़े रहते हैं, कि कहीं दोबारा उसकी आँखों में आँसू
न आ जाएँ. पर यह कैसी विडंबना, कि स्वयं रक्षा करने वाले ही कंस की तरह
निष्ठुर हो गए! केवल ‘पुत्र’-सन्तान की चाह में किये गए ऐसे पापपूर्ण
व्यवहार को समझ पाने में मानवता तो लज्जित ही होती होगी. मुझे तो पूरा
संदेह है, कि ऐसे माता-पिता अपने पुत्र को भी प्रेम दे पायें. जिनके मन में
अपनी ही एक दुधमुंही बच्ची के लिए स्वीकृति न बन पायी, उनके मन में कभी
किसी के लिए स्नेह नहीं हो सकता. और न ही वो खुद किसी के भी स्नेह के
अधिकारी हो सकते हैं. स्नेह-तिरस्कार तो बहुत दूर ही बात है, वो तो अपने आप
में एक कलंक ही हैं माता-पिता के नाम पर!
क्या सिर्फ दो समय की रोटी नहीं दे सकते थे वो उस निरपराध बच्ची को! पुत्री
का होना कितने बड़े सुख की बात है, यह तो कोई उनसे पूछ कर देखे, जिन्हें
ईश्वर की ओर से सन्तान का उपहार नहीं मिल पाया. तरसता होगा मन, कि उनके भी
आँगन में अपने नन्हे-नन्हे हाथ-पैर हिलाते हुए एक कन्या की किलकारियाँ
गूँजें! उसकी पायल की ध्वनि से घर का कोना-कोना मुस्कुरा उठे! नन्ही पुत्री
के एक स्नेहिल स्पर्श को तरसते हैं शुष्क मन. लेकिन पाषाण-हृदय क्या समझ
पायेंगे इन भावों को! मन में एक विचार आ रहा है. काया से नादान उस बच्ची की
आत्मा पर कितना अमिट दंश लगा होगा अपने ही पिता द्वारा पीट-पीट कर मार दिए
जाने पर! शायद वह पशु होना स्वीकार कर लेगी अगले जन्म में, लेकिन बालिका
होना तो कतई न चाहेगी.
हम यहाँ पढ़-सुनकर चार दर्द-भरी बातें बोलकर अपने-अपने जीवन में फिर से
व्यस्त हो जायेंगे. पर कुछ प्रश्न अनुत्तरित छूट जायेंगे. क्यों हमारे समाज
के कुछ हिस्से इतने संवेदनशून्य हो चुके हैं, कि उनके कृत्यों पर अनजाने
भी फूट-फूट कर रो देते हैं, पर स्वयं उन्हें कोई मलाल ही नहीं होता? क्यों
नहीं हमारा समाज अस्वस्थ हो रहे इन तत्त्वों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए
कोई प्रयास करता? क्यों नहीं हम समझ पाते, कि समाज का अर्थ है, ‘मैं, और
आप’? क्यों नहीं, मैं, और आप अपने-अपने मोर्चे पर खड़े होकर नन्हें ही सही,
प्रयास तो करते, इन अमानवीय कृत्यों को मिटाने का? एक अंतिम प्रश्न ईश्वर
से है. हे ईश्वर, क्यों नहीं आप कन्याओं का भाग्य किसी बेहतर रंग की स्याही
से लिखते?