क्या बच्चों के खिलोने भी हमारी मानसिकता को प्रभावित कर सकते हैं? शायद नहीं. पर इस वक़्त, मुझे ऐसा लग रहा है, कि शायद हाँ! आज से कुछ ही साल पहले की तो बात है, जब बच्चे गोल-मटोल गुड़िया के साथ खेलते हुए नज़र आया करते थे. 'गुड़िया-पटोला' कहते थे उस खेल को, और अकेले ही खेल-खेल कर खुश होते रहते थे प्लास्टिक की गुड़िया के साथ. उसकी खुलती-बंद होती आँखें उसकी जीवन्तता का भ्रम कराती थी, और बच्चों की सपनीली दुनिया वहीं से शुरू हो जाती थी. जितनी प्यारी, और गोल-मटोल वो गुड़िया खुद होती थी, उतने ही नटखट, और चंचल होते थे, उससे खेलने वाले बच्चे. और इतने में ही गुड़ियों का संसार बदलने लगा.
उस मटकती नीली-आँखों वाली गुड़िया की जगह आ गयी पतली, लम्बी, छरहरी 'बार्बी डॉल'. इस बार्बी डॉल की भाव-भंगिमाओं में कहीं कोई बचपना नहीं, कोई भोलापन नहीं. बस विमान-परिचारिकाओं की-सी, 'कृत्रिम मुस्कान'! और हैरत की बात तो ये है, कि जब से ये बार्बी डॉल आई है, तब से बच्चे भी बदलने लगे हैं. आज के किशोरों पर तो दुबले-पतले दिखने का भूत सवार है. संतुलित आहार तो दूर ही बात है, भोजन पर नियंत्रण उनके लिए ज्यादा ज़रूरी है.
और ऐसे में, जिस वर्ग पर दबाव आ रहा है, वो है उन बच्चों का वर्ग, जो प्राकृतिक रूप से हृष्ट-पुष्ट हैं. लेकिन समाज उन्हें 'मोटा' कहकर पुकारता है. वैसे ये समस्या सिर्फ हमारे देश की नहीं है, आज तो वैश्विक स्तर पर इस प्रकार के अनुभव किये जा रहे हैं. सच तो ये है, कि हर एक बच्चे को प्राकृतिक रूप से ही एक काया-प्रकार प्राप्त होता है. लेकिन ये हृष्ट-पुष्ट बच्चे, या फिर उनके माता-पिता चाहते हैं, कि इस 'बार्बी-डॉल संस्कृति' में ये बच्चे भी दुबले-पतले दिखने लगें. अब चूँकि ऐसा किसी के चाहने भर से तो हो नहीं जाता. नतीजा, ये असंतोष धीरे-धीरे उन बच्चों पर हावी होने लगता है. और वो पतले तो हो नहीं पाते, पर निर्जीव, और कुम्हलाये-से ज़रूर दिखने लगते हैं.
प्राय: मेरे देखने-सुनने में आता रहता है, कि मेरी किसी सखी ने वज़न कम करने के लिए आहार-नियंत्रण, अथवा जिम-इत्यादि का प्रयोग किया. वज़न का तो क्या ही बिगड़ना था, हाँ, रक्त-शर्करा की मात्रा में गिरावट आ गयी. या फिर रक्तचाप, चक्कर आने जैसी समस्याओं ने सिर उठा लिया. निजी राय दूँ, तो मुझे तो ऐसा बिलकुल नहीं लगता, कि पतलेपन की होड़ किसी को सुन्दर बना पाती हो. हम जैसे भी हों, खुद से प्रेम करने लगें, तो हम अपने आप ही आकर्षक हो जाते हैं.
जिस समस्या का हम समाधान चाह कर भी नहीं ढूंढ पा रहे हैं, क्यों न उसे प्रेमपूर्वक स्वीकार ही कर लें! अपने घरों से नकली मुस्कान वाली बार्बी डॉल को निकाल कर गोल-मटोल चहकती गुड़िया ले आयें! दुनिया सुन्दर हो जाएगी.
9 comments:
"अपने घरों से नकली मुस्कान वाली बार्बी डॉल को निकाल कर गोल-मटोल चहकती गुड़िया ले आयें! दुनिया सुन्दर हो जाएगी."
पूरी तरह से सहमत ।
सादर
बहुत ही बढ़िया सार्थक प्रस्तुति... मैंने भी बच्चों पर दो तीन पोस्ट लिखी हैं फिलहाल परवरिश को लेकर लिखा है .... समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर शायद आपके और मेरे विचार आपस मे मिल जाएँ :-) http://mhare-anubhav.blogspot.com/
बेहतरीन विश्लेषण..सही आकलन किया है बदलते परिवेश का .
बहुत सारगर्भित और सुन्दर विवेचन...बहुत सार्थक आलेख
सुन्दर प्रतिक्रियाओं, एवं उत्साहवर्धन हेतु सादर धन्यवादी हूँ. :)
कल 29/11/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
सुन्दर अवसर हेतु सादर धन्यवाद!
बहुत ही सारगर्भित आलेख...चिंतनीय विषय हम आपनी संस्कृति को बिसरा कर अपनी भावी पीड़ी को आधी अधूरी संस्कृति की दिशा में भटका रहे हैं....पारिवारिक सद्भावना के परिपेक्ष में पश्चिम का पतन हो रहा है हम उसका अनुसरण क्यों करें...?? आपको हार्दिक शुभ कामनायें !!
सादर धन्यवाद!
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