लड्डू एक ऐसी
मिठाई है, जिसे अपने स्वाद के लिए कम, और किसी शुभ शगुन के लिए ज्यादा चाहा
जाता है. हम खाने-पीने के शौक़ीन भारतीयों के लिए हर एक छोटी-बड़ी ख़ुशी
लड्डू बांटने के साथ ही मुकम्मल हुआ करती है. मेरे सामने रखा हुआ लड्डुओं
का डिब्बा मेरे इन विचारों का कारण है. एक पुरानी सखी कुछ ही देर पहले ये
डिब्बा लेकर आई थी.
अपने पिता की पदोन्नति की ख़ुशी में सब परिचितों को लड्डू बांटते हुए मुझे भी एक डिब्बा देना वह नहीं भूली. बेशक, लड्डुओं के डिब्बे से ज्यादा मिठास तो उसे लाने वाली भावना की ही होती है, जो उन्हें और भी ख़ास बना देती है. एक लम्बे समय के बाद मिलते हुए हम दोनों ही बहुत उत्साहित थे. बहुत-सी ऐसी बातें की, जो थी तो पुरानी, पर इतने समय के बाद ताज़ा होने पर बिलकुल नयी होने का ही अहसास करा रही थी. कभी-कभी ऐसा लगता है, कि भले ही पूरी दुनिया हमारे साथियों से क्यों न भरी हुई हो, पर जो बात बचपन के मित्रों में होती है, वह किसी और में नहीं हो सकती. ऐसा लगता ही नहीं है, कि वे कहीं बाहर से आये हैं. बिलकुल अपने परिवार के ही एक सदस्य के जैसे लगते हैं बचपन के दोस्त. और ऐसे में, कितना समय बातें, बातें, और बातें करने में निकला, पता ही नहीं चला. लड्डू खाते-खाते मैंने उसके पिताजी के विभाग के विषय में स्वाभाविक प्रश्न किया. उसने बताया, कि पिताजी बहुत खुश हैं, क्योंकि पदोन्नति के बाद अब उनके कक्ष में एसी, फ्रिज, एवं सोफा भी मिलेगा. बहुत समय से उन्हें यही इंतज़ार था, कि पदोन्नति जल्द हो, ताकि सभी सुविधाएं प्राप्त हो सकें. इसके बाद भी हमारी चटपटी बातों की गाड़ी तो युं ही दौड़ती रही, पर मेरे दिमाग में कुछ विचार बराबर-समानांतर चलते रहे. पदोन्नति कौन नहीं चाहेगा! पदोन्नति होगी, तो ही सुविधाएं होंगी. ज्यादा सुविधाएं, यानि कि बेहतर जीवन-शैली, समाज में ऊँचा कद, प्रतिष्ठा! क्या इसके अलावा पदोन्नति के साथ ही यह भी याद नहीं रहना चाहिए, कि अब अपने विभाग के प्रति उत्तरदायित्व भी बढ़ गया है? वर्षों के अर्जित अनुभव को बेहतर रीति से प्रयोग करने के लिए होने वाली पदोन्नति जिस कुर्सी पर बिठाती है, उसपर बैठने के बाद होना तो यह चाहिए, कि कुर्सी की गरिमा-मर्यादा बनी रहे. पर होता समाज में क्या है, वह कोई छिपी हुई बात तो है नहीं. कभी न्याय की मूर्ति की आँखों पर पट्टी चढ़ाई गयी थी इस विचार के साथ, कि पक्षपात की सम्भावना न रहे. पर आज उस मूर्ति, और गाँधारी का फर्क समझ में नहीं आता. 'कर्तव्य और अधिकार' का भेद समझने में हम पढ़े-लिखे लोग ही सबसे ज्यादा गच्चा खा गए हैं. कर्तव्य-पालन में फिसड्डी हो चले, और अधिकार-क्षेत्र में दबदबा है.
वैसे तो मीठे-मीठे लड्डू खाते हुए, और मसालेदार बातें करते हुए, ऐसे विचारों की कुछ ख़ास गुंजाइश नहीं होनी चाहिए. पर ये मानव-मन, हवा की परवाह ही कब करता है दिशा चुनना के लिए! हम पुरानी सखियों की बातें भी नहीं थमती, और मेरे विचार भी युं ही बहते रहते हैं.
अपने पिता की पदोन्नति की ख़ुशी में सब परिचितों को लड्डू बांटते हुए मुझे भी एक डिब्बा देना वह नहीं भूली. बेशक, लड्डुओं के डिब्बे से ज्यादा मिठास तो उसे लाने वाली भावना की ही होती है, जो उन्हें और भी ख़ास बना देती है. एक लम्बे समय के बाद मिलते हुए हम दोनों ही बहुत उत्साहित थे. बहुत-सी ऐसी बातें की, जो थी तो पुरानी, पर इतने समय के बाद ताज़ा होने पर बिलकुल नयी होने का ही अहसास करा रही थी. कभी-कभी ऐसा लगता है, कि भले ही पूरी दुनिया हमारे साथियों से क्यों न भरी हुई हो, पर जो बात बचपन के मित्रों में होती है, वह किसी और में नहीं हो सकती. ऐसा लगता ही नहीं है, कि वे कहीं बाहर से आये हैं. बिलकुल अपने परिवार के ही एक सदस्य के जैसे लगते हैं बचपन के दोस्त. और ऐसे में, कितना समय बातें, बातें, और बातें करने में निकला, पता ही नहीं चला. लड्डू खाते-खाते मैंने उसके पिताजी के विभाग के विषय में स्वाभाविक प्रश्न किया. उसने बताया, कि पिताजी बहुत खुश हैं, क्योंकि पदोन्नति के बाद अब उनके कक्ष में एसी, फ्रिज, एवं सोफा भी मिलेगा. बहुत समय से उन्हें यही इंतज़ार था, कि पदोन्नति जल्द हो, ताकि सभी सुविधाएं प्राप्त हो सकें. इसके बाद भी हमारी चटपटी बातों की गाड़ी तो युं ही दौड़ती रही, पर मेरे दिमाग में कुछ विचार बराबर-समानांतर चलते रहे. पदोन्नति कौन नहीं चाहेगा! पदोन्नति होगी, तो ही सुविधाएं होंगी. ज्यादा सुविधाएं, यानि कि बेहतर जीवन-शैली, समाज में ऊँचा कद, प्रतिष्ठा! क्या इसके अलावा पदोन्नति के साथ ही यह भी याद नहीं रहना चाहिए, कि अब अपने विभाग के प्रति उत्तरदायित्व भी बढ़ गया है? वर्षों के अर्जित अनुभव को बेहतर रीति से प्रयोग करने के लिए होने वाली पदोन्नति जिस कुर्सी पर बिठाती है, उसपर बैठने के बाद होना तो यह चाहिए, कि कुर्सी की गरिमा-मर्यादा बनी रहे. पर होता समाज में क्या है, वह कोई छिपी हुई बात तो है नहीं. कभी न्याय की मूर्ति की आँखों पर पट्टी चढ़ाई गयी थी इस विचार के साथ, कि पक्षपात की सम्भावना न रहे. पर आज उस मूर्ति, और गाँधारी का फर्क समझ में नहीं आता. 'कर्तव्य और अधिकार' का भेद समझने में हम पढ़े-लिखे लोग ही सबसे ज्यादा गच्चा खा गए हैं. कर्तव्य-पालन में फिसड्डी हो चले, और अधिकार-क्षेत्र में दबदबा है.
वैसे तो मीठे-मीठे लड्डू खाते हुए, और मसालेदार बातें करते हुए, ऐसे विचारों की कुछ ख़ास गुंजाइश नहीं होनी चाहिए. पर ये मानव-मन, हवा की परवाह ही कब करता है दिशा चुनना के लिए! हम पुरानी सखियों की बातें भी नहीं थमती, और मेरे विचार भी युं ही बहते रहते हैं.