Tuesday, 27 December 2011

ये त्योहार जिया जाए...


रेत के कणों को कितना भी कस कर कैद किया जाए, एक-एक कण करते-करते, आखिर मुट्ठी खाली हो ही जाती है, बस यूँ ही, एक-एक क्षण करते, आखिर पूरा बरस भी बीत ही जाता है. बचती हैं, कुछ सुहानी यादें, कुछ कसक, कुछ टीस, और कुछ योजनाएँ. हर एक बरस की यही तो कहानी है. इसी तरह के खट्टे-मीठे, रोमाँचक अनुभवों के साथ अपनी अंतिम रात्रि की ओर बढ़ रहा है ये बरस भी. 
बीता हुआ लम्हा कितना भी सुन्दर हो, या कितना भी दर्द-भरा हो, वो होता तो बीता हुआ ही है. और आने वाला लम्हा कितनी भी सुन्दर, झिलमिल योजनाओं से लिपटा हुआ क्यों न हो, अभी उसका रंग-रूप सामने आना बाकी होता है. जितना भी जीवन है, जो भी जीवन है, अभी, इसी पल में है. उन सुनहरी यादों की चमक है, तो इसीलिए है, क्योंकि तब वो पल भरपूर जिए थे. या कुछ कसक है, तो शायद इसलिए, कि शायद कुछ पल हम जीना भूल गए थे. यादों के मुलम्मे के नीचे एक सबक छिपा रहता है. मन यादों में ही अटा रह जाता है. और सबक ताज़िन्दगी ढका रह जाता है. और बस चार ही शब्दों का तो होता है ये सबक, कि 'भरपूर जियें हर पल!' 
सुन्दर भविष्य की योजनाओं के बिना सुन्दर भविष्य का निर्माण हो नहीं सकता. और बीते पलों के सबक के बिना सुन्दर भविष्य की योजनाएँ हो नहीं सकती. इस किताब का हर अगला-पिछला पन्ना एक-दूजे से बहुत ही कलात्मक रीति से जुड़ा हुआ होता है. हर एक पन्ने पर ही सुन्दर कार्य होगा, तब ही इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो पायेंगे. जाता हुआ बरस जैसा भी रहा हो, उसकी यादों को भूलने का, और उसके सबक को याद रखने का समय आ गया है. आता हुआ बरस सँवारने का समय आ गया है.
वैसे तो सँवारने का समय हमेशा ही होता है. जिस दिन चाहें, उसी दिन दिशा-परिवर्तन हो सकता है. तो फिर ठीक अभी क्यों नहीं? बड़े-बुज़ुर्ग कहा करते हैं, कि 'एक साल तो चक्की का एक फेरा भर होता है. अभी शुरू हुआ है, अभी ख़त्म हो जायेगा.' सच, इतनी ही तेज़ी से तो बहता है ये पलों का दरिया! ये बहता चला जायेगा, हम किनारे-खड़े देखते न रह जाएँ! इस प्रवाह की गति के साथ तालमेल बिठा लें. इस दरिया के पानी की कुछ बूँदें सिर्फ अपने नाम कर लें. अपने जीवन को एक सुन्दर लक्ष्य हम दें. कुछ ख़ास बनने के लिए कुछ ख़ास करना पड़ता है. और वो ख़ास क्या है, इन लम्हों में ज़रा सोच कर देख लें! क्यों न किसी के अँधेरे जीवन में रौशनी भरने के ही लिए कुछ किया जाए! 
जाते बरस की अंतिम रात्रि शोर-शराबे में बिताने के बजाय आते बरस की प्रथम प्रभात का प्रसन्नतापूर्वक आभार किया जाए..! किसी वंचित को उसका एक सपना उपहार दिया जाए..! और जीवन का ये त्योहार जिया जाए..!

Wednesday, 21 December 2011

मेरी धरती, या वो तारा...

आसमान के तारे निहारने का एक लम्बा तजुर्बा है मुझे. ऐसा लगता है, कि कई जन्मों का लगाव चल रहा होगा मेरा तारों के साथ! तारे निहारते-निहारते कभी-कभी तो ऐसा भी लगता है, कि कुछ तारों क साथ मेरी कुछ पहचान-सी हो गयी है. उनसे निकलने वाली धवल-नीली रौशनी अपनी-अपनी लगती है. कभी -कभी तारों की ज़मीं छूने का मन करता है. उस रौशनी में खो जाने की ख्वाहिश होने लगती है. यहाँ, मेरी दुनिया में तो बहुत मन नहीं लगता मेरा..! जल्दी-जल्दी बदलते मौसम, और उससे भी जल्दी बदलते मिज़ाज! मेरी दुनिया अब कुछ मैली-मैली सी लगती है. कब दोस्त दुश्मनों में बदल जाएँ, कुछ पता ही नहीं! भावनाएं मानो किसी सुरक्षित स्थान पर तालाबंद कर दी गयी हों. किसी के हाथों में सौंपा हुआ हमारा विश्वास यहाँ किसी भी पल चूर-चूर हो सकता है. सुन्दर, रोशन चेहरे तो हमारे यहाँ भी होते हैं, पर वो रौशनी, वो सुन्दरता सिर्फ थोपी हुई होती है, सतही होती है. 
उस ऊपरी सतह के पीछे का सच भी हालाँकि भयानक तो नहीं होता. पर फिर भी, सच्चाई में जीना पसंद ही नहीं किया जाता अब मेरी दुनिया में. नयेपन के युग में, सच्चाई को पुरानेपन का दर्जा दिया जा चुका है. और पुरानी चीज़ें तो एक झटके में ही अस्वीकृत कर दी जाती हैं. कहीं खुलेआम विषवमन किया जाता है, तो कहीं पीठ में छुरा घोंपा जाता है. मेरी दुनिया में न तो अब पीने को निर्मल पानी ही मिलता है, और न ही साँस लेने को शुद्ध हवा. सब कुछ मिलावटी हो चुका है. यहाँ की ज़मीं पर भी अब उतना विश्वास नहीं रहा. कभी भी भूचाल आ जाता है यहाँ. असुरक्षा से भरा हुआ है जीवन इस दुनिया में. इसलिए, टिमटिमाते हुए तारे देखते हुए, मेरी आँखें भी आशा से टिमटिमाने लगती हैं. वहाँ न तो कोई पीठ पीछे वार करने वाला होगा, और न ही कोमल भावनाओं पर निष्ठुर प्रहार करने वाला कोई होगा. 
वहाँ की हवा, पानी में अप्राकृतिक तत्व नहीं होंगे. सब कुछ विशुद्ध होगा. और विश्वसीय भी. पर एक बात, जो अभी-अभी मन में प्रकाशित हो रही है, मुझे कुछ सोचने पर मजबूर कर रही है. वहाँ कोई अपने तो होंगे ही नहीं!
तो क्या अपनों के बिना वो तारे, वो रौशनी मुझे सचमुच लुभा पायेंगे? दो टूक जवाब है, 'बिलकुल नहीं'. हाँ, मैली-मैली सी हो तो गयी है दुनिया मेरी, पर अपनों का साथ हो, तो कठिन से कठिन रास्ते भी आसान हो ही जाते हैं.और फिर, मैली हो भी गयी है तो क्या हुआ! हम यत्न करेंगे, इसे फिर से सुन्दर बनाने का! यों भी, दूसरे का महल कितना भी सुन्दर, और आरामदायक क्यों न हो,और हमारे हिस्से में झोंपडपट्टी ही क्यों न आई हो, सुकून तो अपने घर में ही होता है. मेरी धरती ही मेरा स्वर्ग है.

Tuesday, 13 December 2011

पहेली ही है जीवन...

पहेलियाँ बुझाना मुझे बहुत अच्छा लगता है, चाहे वो शब्दों की हों, या गणित की. एक तरह की खुजली ही होती है ये भी. जब तक सही उत्तर न मालूम हो जाए, चैन नहीं आता. फिर भले वो खुद ही मिल जाए, या किसी विशेषज्ञ की सहायता ली जाए. वैसे, अगर सही प्रक्रिया का ज्ञान हो, तो दिखने में मुश्किल पहेलियाँ भी चुटकियों में हल हो जाती हैं. पर एक पहेली ऐसी भी है, जिसको बुझा पाना मेरे लिए तो आज तक संभव नहीं हो पाया.
जीवन नामक ये पहेली बड़ी ही अजीब है. कई रास्तों से घूम-घूम कर इसकी विषयवस्तु, और प्रक्रिया समझने की कोशिश की. तथाकथित विशेषज्ञों के विचार जानने के प्रयास किये. पर परिणाम, वो तो और भी उलझाने वाले! कहीं-कहीं जीवन का रूप इतना सरल और मनोहर नज़र आता है, कि भाग्यवादी होने का मन होने लगता है. आवश्यकता से पहले ही मनचाही वस्तु सामने आ जाया करती है वहाँ. वो रूप देखकर लगता है, कि सचमुच, ईश्वरीय वरदान ही तो है जीवन! और तभी, जीवन के किसी दूसरे रूप से मुलाकात हो जाती है, जहाँ कोशिशें बहुत होती हैं. दिन-रात दिमाग के घोड़े दौड़ाना, अवसर खोजना. और नतीजे भी अच्छे ही दिखते हैं. जहाँ निशाना लगाया था, तीर ठीक वहीँ जाकर लगा. इस रूप को देखकर यकीन हो आता है,  कि कर्मक्षेत्र है ये जीवन. और इस कर्मक्षेत्र में जितना गहरा गोता होगा, उतने ही महंगे मोती मिलेंगे. ये देखकर, वो पहेली थोड़ी-बहुत सुलझने लगती है. पर अचानक ही, किसी दिन, किसी रस्ते पर जीवन का एक नया रूप दिख जाता है. दिन भर पसीना बहाना, सर्दी-गर्मी-तबीयत-हालात, हर बहाने को किनारे लगाकर, मुसीबतों के साथ रस्साकशी करना! और दिन के अंत में, प्याज के संग सूखी रोटी, हलक से उतारना! ज़िन्दगी भर गद्दे वाले पलंग पर सोने का सपना-भर देखना! वैसे किस्मत कभी-कभी अपनी पैंतरेबाजी दिखाती है इनके साथ भी! कोई झुग्गी का बच्चा अंतर्राष्ट्रीय फिल्म का कलाकार बन जाता है, तो कभी कोई किसी गहरी सुरंग में गिरकर राष्ट्रीय सुर्खियाँ प्राप्त कर लेता है. और ऐसे इक्का-दुक्का को देखकर बाकी के ढेरों चेहरे उस भाग्य की ओर ताकने लग जाते हैं, जो युगों से मुँह फेरकर बैठा होता है इनसे. देश में विदेशी धन के निवेश का प्रश्न हो, या राज्यों के टुकड़े होने पर बहस हो, इनके हाथों की नियति तो झाड़ू-पोंछा ही रहनी है. जीवन का ये रूप देखकर, पिछले दोनों रूप भ्रामक लगने लगते हैं. और तभी, एक चौथा रूप सामने आ जाता है. उन लोगों का, जो भाग्य की मार तो खाए ही होते हैं, पर कर्म का भी आश्रय नहीं लेते. शायद उनका भी कोई दृष्टिकोण होता हो इसके पीछे, या शायद कुछ कटु अनुभव रहे हों, जो उन्हें सामान्य पटरी पर आने न देता हो!
इन चार रूपों को देखने-जानने के बाद, कुछ उत्तर तो नहीं मिलता जीवन की पहेली का. बस इतन ही सही लगता है, कि भाग्य अनुकूल हो न हो, कर्म का प्रतिफल मिले न मिले, जीवन रूकता कभी नहीं है. तो हम भी बस कोशिश करते रहें, चलते रहें! शायद किसी मोड़ पर जीवन के कदमों के संग हमारे कदम भी मिल ही जाएँ...!

Tuesday, 6 December 2011

हर फ़िक्र को धुंए में…

जिंदादिली का एक अनूठा दीपक आखिरकार शांत हो गया. एक सदाबहार अभिनेता, जिसे उम्र की कोई बंदिश कभी रोक न पायी, आखिरकार जीवन की यात्रा के चरम पर पहुँच ही गया. और अपने प्रशंसकों के लिए छोड़ गया एक रिक्तता, जिसे कभी कोई नहीं भर सकता. एक पूरा सुनहरा युग अपने बेजोड़ अभिनय, और निराले जीवन के ढंग से अपने नाम कर गए, ‘देव आनंद’. मैंने उस युग को खुद तो नहीं देखा है, पर सुना, पढ़ा, और जाना ज़रूर है.
बताया जाता है, कि कॉलेज में कर्फ्यू का माहौल हो जाता था, जिस दिन देव आनंद की नयी फिल्म रिलीज़ होती थी. उनकी फिल्मों का सुरूर ऐसा होता था, कि ‘फर्स्ट डे फर्स्ट शो’ न देख पाना युवाओं के लिए निराशा का कारण हो जाता था. और हर एक बार, प्रशंसकों की अपेक्षाओं पर खरे उतरना हर एक के बस की बात तो नहीं होती. पर देव आनंद का तो ये ख़ास शउर था. और बात अगर फ़िल्मी रील की ही होती, तो शायद इतनी बड़ी भी न होती. पर उनकी सक्रियता, संगीतमयता तो उनके जीवन के हर पहलु में नज़र आती थी. ‘हर फ़िक्र को धुंए में उड़ाता चला गया’ गीत को अपने मस्तमौला अंदाज़ से अमर कर देने वाले देव आनंद सचमुच ज़िन्दगी का साथ निभाने वाले एक अनोखे कलाकार थे. उम्र के इस पड़ाव पर भी उनकी सृजनात्मकता थम नहीं पायी. व्यावसायिक असफलताओं के तो कुछ मायने ही नहीं थे उनके लिए. और इस तरह, उनका जीवन लगातार इसी भावना से भरा रहा, कि बाहरी शान से बहुत ज़्यादा मायने हैं अंदरूनी शान के. ‘शानदार जीवन’, ये शब्द तो बना ही जैसे देव आनंद के लिए है.
पर उनके निधन की खबर मिली, तो चंद शब्द जो सुने, मुँह से खुद ही निकल गया, कि उनकी मृत्यु भी कम शानदार नहीं थी. मालूम हुआ, कि अंतिम समय में उनके पुत्र उनके साथ थे. आज जिस दौर में हम जी रहे हैं, वहाँ बेगानों की कमी हो या न हो, अपनों की कमी होना एक आम बात है. और वृद्धाश्रमों की बढती संख्या तो इसका प्रकट प्रमाण है ही. नन्हे पौधे-सा एक बच्चा, जिसे प्रेम, और संरक्षण के जल से सींच कर एक सघन पेड़ बनाया होता है, अंतिम समय में उसकी छाया मिलना आज के युग में परम सौभाग्य से कम नहीं होता. बड़े होते-होते, उस पेड़ को शायद वो झुर्रीदार हाथ बदसूरत, और बुरे लगने लगते हैं. वो भूल गया होता है, कि अगर ये हाथ तब उसके साथ न होते, तो शायद वो पौधा बचपन में ही मुरझा गया होता. पर उस पेड़ की छाया की छाया से देव आनंद का अंतिम समय महरूम नहीं रहा. इससे ज्यादा खुशनुमा मृत्यु और क्या हो सकती है! ऐसे में, उनका सौभाग्य न केवल सराहनीय है, पर ईर्ष्या के भी योग्य लगता है, जिसमे  सफ़र भी शानदार था, अंदाज़ भी शानदार, और अंजाम भी शानदार..!

Friday, 2 December 2011

समाचार पत्रों में प्रकाशित लेख. ( दिसम्बर माह )

 समाचार-पत्रों में प्रकाशित लेख(दिसम्बर माह)