बहुत-से लोग आजकल चहकते हुए मिलते हैं. क्योंकि सर्दियाँ, यानी कि, उनका मनपसंद मौसम जो आ गया है. गाल गुलाबी होने लगे हैं. रंग-बिरंगे ऊनी कपडे संदूकों से बाहर निकल चुके हैं. मोटा कपडा पहनने, और मोटा अनाज खाने का यही तो समय है. इसलिए, मक्की, और बाजरे की रोटियाँ भी तवे पर सिकने लग गयी हैं. इस मौसम की बहुत-सी बातें ख़ास होती हैं. शाम ढलते-ढलते हवाओं में धुँध शामिल होने लगती है. जब ये धुँध की चादर किसी प्रकाश के स्रोत पर छा जाती है, तो वो तेज़ रौशनी भी मद्धिम होकर बहुत सुन्दर लगती है. कहीं गर्म मूंगफलियों की सुगंध उड़-उड़ कर लोगों को न्योता देती है, तो कहीं भुनी हुई शकरकंद भी ऐसा ही कुछ जादू दिखाती है. हलवाइयों की दुकानों पर मिठाइयों के नए-नए रंग नज़र आने लगते हैं. गाजरपाक, मूँग का हलवा, और सोहन हलवा जैसे कितने नाम सर्दी के जायके के साथ पता नहीं कब से जुड़े हुए हैं.
कुछ लोगों को तो सर्दियों का इंतज़ार इसलिए भी रहता है, क्योंकि एक-दूसरे पर बर्फ के गोले उड़ाने का भी तो यही समय होता है. पहाड़ी इलाकों पर, जहाँ हिमपात होता है, इस मौसम में जाना मनपसंद शगल होता है ऐसे लोगों के लिए. एक बात और भी है. कहते हैं, कि जितनी कड़ाके की ठण्ड पड़ेगी, उतना ही खेतों में सोना बरसेगा. यानी कि, ठण्ड जितनी ज्यादा होगी, गेहूँ का सिट्टा उतना ही सुन्दर पकेगा. और तभी, ये भी एक ख़ास कारण हो जाता है, कृषि-प्रधान संस्कृति वाले लोगों के लिए, ठण्ड का स्वागत करने का. इतना ही नहीं, सर्दी के आने से गर्मियों में लुका-छिपी खेलने वाली बिजली-देवी के नाज़-नखरों से भी राहत मिल जाती है. बस कुछ अच्छे गर्म कपडे हों, फिर तो सर्दियों का मज़ा ही न्यारा है.
वैसे, क्या आप बिना गर्म कपड़ों, और रजाई के, एक सर्दी की कल्पना कर सकते हैं? हालांकि अभी तो सर्दी का आग़ाज़-भर ही हुआ है. एक दिन इस सर्दी के साथ, बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के, मुलाक़ात कर के देखेंगे आप? अजीब लग रहा है बताते हुए, पर मैंने की है ये कोशिश. 'कंपकंपाने' वाला एक अनुभव कह सकते हैं इसे. दरअसल, मुझे ये जानना था, कि किसी गरीब-फटेहाल आदमी के लिए सर्दी का रोमांच कैसा होता है. और, इस छोटे-से प्रयोग के बाद, मुझे एक बात तो अच्छी तरह समझ में आ गयी. कि सदियों के मौसम में एक गरीब आदमी, जो कल तक जीवित था, रातोंरात अखबार की एक खबर में क्यों सिमट जाता है.
माघ के महीने में ज़रूरतमंद को कम्बल आदि दान करना महापुण्य कहा जाता है. आप में से भी बहुतों ने शायद ऐसा महापुण्य अर्जित करने का मन बना रखा होगा. मुझे लगता है, कि तब बांटने से अच्छा, वो कम्बल अभी ज़रुरतमंदों तक पहुँच जाएँ. पुण्य-राशि तो शायद थोड़ी कम हो जाएगी, पर किसी की जान की कीमत के आगे, वो नुकसान कुछ भी नहीं.