Wednesday, 30 November 2011

सर्दी का रोमांच


बहुत-से लोग आजकल चहकते हुए मिलते हैं. क्योंकि सर्दियाँ, यानी कि, उनका मनपसंद मौसम जो आ गया है. गाल गुलाबी होने लगे हैं. रंग-बिरंगे ऊनी कपडे संदूकों से बाहर निकल चुके हैं. मोटा कपडा पहनने, और मोटा अनाज खाने का यही तो समय है. इसलिए, मक्की, और बाजरे की रोटियाँ भी तवे पर सिकने लग गयी हैं. इस मौसम की बहुत-सी बातें ख़ास होती हैं.  शाम ढलते-ढलते हवाओं में धुँध शामिल होने लगती है. जब ये धुँध की चादर किसी प्रकाश के स्रोत पर छा जाती है, तो वो तेज़ रौशनी भी मद्धिम होकर बहुत सुन्दर लगती है. कहीं गर्म मूंगफलियों की सुगंध उड़-उड़ कर लोगों को न्योता देती है, तो कहीं भुनी हुई शकरकंद भी ऐसा ही कुछ जादू दिखाती है. हलवाइयों की दुकानों पर मिठाइयों के नए-नए रंग नज़र आने लगते हैं. गाजरपाक, मूँग का हलवा, और सोहन हलवा जैसे कितने नाम सर्दी के जायके के साथ पता नहीं कब से जुड़े हुए हैं.
कुछ लोगों को तो सर्दियों का इंतज़ार इसलिए भी रहता है, क्योंकि एक-दूसरे पर बर्फ के गोले उड़ाने का भी तो यही समय होता है. पहाड़ी इलाकों पर, जहाँ हिमपात होता है, इस मौसम में जाना मनपसंद शगल होता है ऐसे लोगों के लिए. एक बात और भी है. कहते हैं, कि जितनी कड़ाके की ठण्ड पड़ेगी, उतना ही खेतों में सोना बरसेगा. यानी कि, ठण्ड जितनी ज्यादा होगी, गेहूँ का सिट्टा उतना ही सुन्दर पकेगा. और तभी, ये भी एक ख़ास कारण हो जाता है, कृषि-प्रधान संस्कृति वाले लोगों के लिए, ठण्ड का स्वागत करने का. इतना ही नहीं, सर्दी के आने से गर्मियों में लुका-छिपी खेलने वाली बिजली-देवी के नाज़-नखरों से भी राहत मिल जाती है. बस कुछ अच्छे गर्म कपडे हों, फिर तो सर्दियों का मज़ा ही न्यारा है. 
वैसे, क्या आप बिना गर्म कपड़ों, और रजाई के, एक सर्दी की कल्पना कर सकते हैं? हालांकि अभी तो सर्दी का आग़ाज़-भर ही हुआ है. एक दिन इस सर्दी के साथ, बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के, मुलाक़ात कर के देखेंगे आप? अजीब लग रहा है बताते हुए, पर मैंने की है ये कोशिश. 'कंपकंपाने' वाला एक अनुभव कह सकते हैं इसे. दरअसल, मुझे ये जानना था, कि किसी गरीब-फटेहाल आदमी के लिए सर्दी का रोमांच कैसा होता है. और, इस छोटे-से प्रयोग के बाद, मुझे एक बात तो अच्छी तरह समझ में आ गयी. कि सदियों के मौसम में एक गरीब आदमी, जो कल तक जीवित था, रातोंरात अखबार की एक खबर में क्यों सिमट जाता है. 
माघ के महीने में ज़रूरतमंद को कम्बल आदि दान करना महापुण्य कहा जाता है. आप में से भी बहुतों ने शायद ऐसा महापुण्य अर्जित करने का मन बना रखा होगा. मुझे लगता है, कि तब बांटने से अच्छा, वो कम्बल अभी ज़रुरतमंदों तक पहुँच जाएँ. पुण्य-राशि तो शायद थोड़ी कम हो जाएगी, पर किसी की जान की कीमत के आगे, वो नुकसान कुछ भी नहीं. 

Wednesday, 23 November 2011

ये बार्बी-डॉल संस्कृति..

क्या बच्चों के खिलोने भी हमारी मानसिकता को प्रभावित कर सकते हैं? शायद नहीं. पर इस वक़्त, मुझे ऐसा लग रहा है, कि शायद हाँ! आज से कुछ ही साल पहले की तो बात है, जब बच्चे गोल-मटोल गुड़िया के साथ खेलते हुए नज़र आया करते थे. 'गुड़िया-पटोला' कहते थे उस खेल को, और अकेले ही खेल-खेल कर खुश होते रहते थे प्लास्टिक की गुड़िया के साथ. उसकी खुलती-बंद होती आँखें उसकी जीवन्तता का भ्रम कराती थी, और बच्चों की सपनीली दुनिया वहीं से शुरू हो जाती थी. जितनी प्यारी, और गोल-मटोल वो गुड़िया खुद होती थी, उतने ही नटखट, और चंचल होते थे, उससे खेलने वाले बच्चे. और इतने में ही गुड़ियों का संसार बदलने लगा.
उस मटकती नीली-आँखों वाली गुड़िया की जगह आ गयी पतली, लम्बी, छरहरी 'बार्बी डॉल'. इस बार्बी डॉल की भाव-भंगिमाओं में कहीं कोई बचपना नहीं, कोई भोलापन नहीं. बस विमान-परिचारिकाओं की-सी, 'कृत्रिम मुस्कान'! और हैरत की बात तो ये है, कि जब से ये बार्बी डॉल आई है, तब से बच्चे भी बदलने लगे हैं. आज के किशोरों पर तो दुबले-पतले दिखने का भूत सवार है. संतुलित आहार तो दूर ही बात है, भोजन पर नियंत्रण उनके लिए ज्यादा ज़रूरी है. 
और ऐसे में, जिस वर्ग पर दबाव आ रहा है, वो है उन बच्चों का वर्ग, जो प्राकृतिक रूप से हृष्ट-पुष्ट हैं. लेकिन समाज उन्हें 'मोटा' कहकर पुकारता है. वैसे ये समस्या सिर्फ हमारे देश की नहीं है, आज तो वैश्विक स्तर पर इस प्रकार के अनुभव किये जा रहे हैं. सच तो ये है, कि हर एक बच्चे को प्राकृतिक रूप से ही एक काया-प्रकार प्राप्त होता है. लेकिन ये हृष्ट-पुष्ट बच्चे, या फिर उनके माता-पिता चाहते हैं, कि इस 'बार्बी-डॉल संस्कृति' में ये बच्चे भी दुबले-पतले दिखने लगें. अब चूँकि ऐसा किसी के चाहने भर से तो हो नहीं जाता. नतीजा, ये असंतोष धीरे-धीरे उन बच्चों पर हावी होने लगता है. और वो पतले तो हो नहीं पाते, पर निर्जीव, और कुम्हलाये-से ज़रूर दिखने लगते हैं. 
प्राय: मेरे देखने-सुनने में आता रहता है, कि मेरी किसी सखी ने वज़न कम करने के लिए आहार-नियंत्रण, अथवा जिम-इत्यादि का प्रयोग किया. वज़न का तो क्या ही बिगड़ना था, हाँ, रक्त-शर्करा की मात्रा में गिरावट आ गयी. या फिर रक्तचाप, चक्कर आने जैसी समस्याओं ने सिर उठा लिया. निजी राय दूँ, तो मुझे तो ऐसा बिलकुल नहीं लगता, कि पतलेपन की होड़ किसी को सुन्दर बना पाती हो. हम जैसे भी हों, खुद से प्रेम करने लगें, तो हम अपने आप ही आकर्षक हो जाते हैं. 
जिस समस्या का हम समाधान चाह कर भी नहीं ढूंढ पा रहे हैं, क्यों न उसे प्रेमपूर्वक स्वीकार ही कर लें! अपने घरों से नकली मुस्कान वाली बार्बी डॉल को निकाल कर गोल-मटोल चहकती  गुड़िया ले आयें! दुनिया सुन्दर हो जाएगी.

Tuesday, 15 November 2011

दुनिया के समंदर में...


 एक कुशल तैराक की परीक्षा तो पानी में उतरने के बाद ही हो सकती है. रेत पर कोई चाहे, तो बेशक तैराक की तरह हाथ-पैर चला ले! पर इतने भर से, उसकी तैराकी सिद्ध नहीं हो पाती. हम लोग भी, किताबें पढ़-पढ़ कर, कर्तव्य-अकर्तव्य की बातें तो खूब दोहरा लेते हैं. पर हकीकत की ज़मीन पर खड़े होने के बाद, उन शब्दों को याद-भर कर पाना भी मुश्किल हो जाता है कभी-कभी!
कुछ दिन पहले मेरा चॉकलेट खाने का मन किया. दुकान पर पहुँचते ही, एक सात-आठ साल का बच्चा दिखा. हाथ में कटोरा था, जो उसने मेरी ओर बढ़ा दिया. पढ़-सुन रखा है, कि भिक्षा-वृत्ति को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए. इसलिए, मैंने उसे अनदेखा कर दिया. पर वो भी जैसे, ठान कर ही खड़ा था. जिद करने लगा कि, "पैसे दे दो, पैसे दे दो". परेशान होकर मैंने पूछा कि, "क्या करेगा पैसों का?" और वो बोला, "पटाखे लूँगा". "पटाखे जलाना अच्छी बात नहीं होती", कहकर मैंने उसे टालने की कोशिश की. पर वो तो, मानने वालों में से था ही नहीं. बोला, "भूख लगी है. सुबह से कुछ नहीं खाया". दोपहर हो रही थी उस वक्त. एक पल के लिए मन में विचार आया, कि झूठ बोल रहा होगा. पर दूसरे ही पल ये लगा, कि कहीं सच बोल रहा हो तो..! और ज्यादा तर्क-वितर्क न करते हुए, मैंने उसे कुछ पैसे दे दिए. पैसे लेकर जब वो जाने लगा, तो जाने क्यों, मेरी आँखें उसका पीछा करने लगी. हैरत! वो भी मुड़-मुड़ कर बार-बार देखता. अब मुझे शक होने लगा, कि कहीं ये पैसों का कुछ दुरूपयोग न करना चाहता हो..! और मुझे अपने ऊपर अफ़सोस होने लगा. लेकिन अब क्या हो सकता था!
इस बात को बमुश्किल एक हफ्ता गुज़रा होगा, जब मुझे रास्ते पर चलते हुए एक गरीब बच्ची मिल गयी. इतनी प्यारी, कि उसे देखते ही मेरे मुँह पर मुस्कान आ गयी. और वो मुस्कान थी, या उसके लिए हरी झंडी! वो तो दुगने वेग से मुस्कुराई, इस आशा के साथ, कि आज का दिन तो बन गया. उसकी आँखों की टिमटिम मुझे आज भी याद है. पर मुझे वो पिछला संस्मरण भी अच्छी तरह याद था. मैंने उसे आगे बढ़ने का इशारा कर दिया. उसने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे रोकने की कोशिश की. हाँ, ये शायद मेरी उस मुस्कान का ही किया-धरा था. पर इस बार मेरा बचाव-तंत्र मज़बूत था. "गलत बात है माँगना", कहकर मैंने हाथ छुड़ा लिया. 
अगले दिन, उसी रास्ते से निकलते हुए, फुटपाथ पर बैठी उसी बच्ची को मैंने देखा. और एक ही पल में मुझे उसकी पहचान आ गयी. उसकी आँखों की मायूसी बता रही थी, कि उसने भी मुझे पहचान लिया है. मैंने मुँह दूसरी ओर घुमा लिया. इस बार मैंने ठीक वही किया था, जो मेरी समझ में सही था. पर तब भी, कुछ अनकहा-सा, अनसमझा-सा अफ़सोस खुद पर हो रहा था.  सच, इस दुनिया के समंदर में तैर पाना बहुत मुश्किल है.  

Tuesday, 8 November 2011

बातों की बातें..


एक बहुत अजीब-सी बात है. कि ये बातें क्या होती हैं. बिना किसी बात के बातें शुरू हो जाती हैं. और बातों-बातों में, पता नहीं, कितनी बातें बन जाती हैं. कहते हैं, कि दुनिया का हर एक काम कहने में और करने में बड़ा फर्क होता है. सिवाय बातों के. बातें कहने और करने में कोई अंतर नहीं है.  तब, क्या बातें करना इतना ही आसान है, जितना दीख रहा है? जवाब है, बिलकुल नहीं. अगर दोस्ती की शुरुआत बात करने से होती है, तो दोस्ती को अलविदा भी कहला सकती हैं ये बातें. यूं भी कहा जा सकता है, कि "सावधानी हटी, दुर्घटना घटी." 
बातों पर मेरे ये विचार दरअसल निष्प्रयोजन नहीं हैं. अपने आस-पास की बातें इस सब पर सोचने पर मजबूर करती हैं. बहुत बार लोग अपनी अक्षमताओं को छिपाने के लिए अपनी वाक्पटुता का आश्रय लेते हैं. " देखा जाएगा-ऐसा कह देंगे-वैसा कह देंगे-बना लेंगे कोई कहानी..", जैसे शब्द आम सुनाई देते हैं हम लोगों को. सुनाई क्या देते हैं, हम ही तो बोल रहे होते हैं असल में..! सामने वाले का विश्वास जीत पाना वैसे कोई इतना मुश्किल काम नहीं होता. चार लच्छेदार बातें बनाई, और बस. विश्वसनीयता हासिल कर ली! लेकिन इस विश्वसनीयता को बनाये रखना कतई आसान नहीं है. वो लच्छेदार बातें एक-दो बार तो भरमा सकती हैं हमें, पर एक सीमा के बाद नहीं. अनुभव की बात है, कि वाक्पटुता से झूठ को सच तो कभी नहीं बनाया जा सकता. सिर्फ इतना है, कि अपने शब्दों के लपेटे से सामने वाले को निरुत्तर कर देते हैं हम.  वैसे,  ये सब तो वो बातें हैं, जो हम सभी के ही निजी अनुभव का हिस्सा हैं. कभी हम ऐसा कहने वाले बने होते हैं, तो कभी सुनने वाले की भूमिका निभा रहे होते हैं.
 लेकिन ऐसा करते हुए हम दूसरों के मन में अपने प्रति सम्मान भी खो देते हैं. तब भी, हमारा इन बनावटी बातों के प्रति लगाव ख़त्म नहीं हो पाता. अब, मुझे तो दो ही कारण समझ में आते हैं, इस व्यवहार के. या तो हम सिर से लेकर पैर तक बनावटी हो चुके हैं, या फिर वाक्पटुता के उन्माद से ग्रस्त हो गए हैं, और वो भी, बिना ही उसका मर्म समझे. और मेरे नज़रिए से, वाक्पटुता तो तभी सिद्ध कही जा सकती है, जब हमारे साथ बैठा व्यक्ति आयु का भेद भूल कर हमारा मित्र हो जाए. एक नन्हा बच्चा भी हमारे साथ बतियाते हुए, उतना ही आनंदित अनुभव करे, जितना कि एक वयोवृद्ध. पराये भी अपने बन जाएँ! ज़मीन पर तो बहुतेरे लोग घर बना चुके हैं. किसी के मन में जगह बना पाना हर एक के बस की बात नहीं है..! क्यों न, वाक्पटुता से इसी लक्ष्य को साधा जाए..!   

समाचार पत्रों में प्रकाशित लेख. ( नवम्बर माह )

 समाचार पत्रों  में प्रकाशित लेख. ( नवम्बर माह )
                                
                                 
  
                                                        
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Tuesday, 1 November 2011

विश्वविद्यालय के गलियारे से..

शिक्षा के क्षेत्र में 'विश्वविद्यालय' की परिकल्पना मुझे बहुत अच्छी लगती है. एक ऐसा विद्या-मंदिर, जहां विश्व-स्तरीय योग्यता एकत्रित हो, ताकि विश्व-स्तरीय प्रतिभा उत्पादित की जा सके. जहां ज्ञान स्थानीय सीमाओं में ठहरा हुआ न हो, बल्कि उसमे हर दिन एक नए लक्ष्य को भेदने का सामर्थ्य हो.  छात्र-छात्राएं न केवल किताबों की बातें कुशलतापूर्वक समझ पायें, अपितु अलग-अलग संस्कृतियों से जुड़ते हुए, सुन्दर, सभ्य जीवन जीने का व्यावहारिक सूत्र भी समझ सकें. ऐसा चहुमुखी विकास जहां हो सके, वो है विश्वविद्यालय.  और ऐसे में, विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना, मेरे लिए तो आँखों के जुगनुओं को  जगाने के जैसा ही था. अपनी विश्वविद्यालीन शिक्षा के दौरान अक्सर ही मुझे बहुत से स्मरणीय अनुभव होते रहते हैं. और उनमे से एक 'उच्च-कोटि' का अनुभव जो मन की गहराई तक अंकित है, बाँटने की इच्छा है.
कुछ दिन पहले की बात है. पुस्तकालय में मुझे कुछ काम था. एक और छात्रा भी आने वाली थी. इसलिए बाहर खड़े होकर ही उसका इंतज़ार करना शुरू किया. अब अकेला खड़ा इंसान और क्या कर सकता है! इधर-उधर नज़रें घुमानी शुरू कर दी, किसी नयेपन की तलाश में. और एक कोने में जाकर नज़रें टिक गयी. सात-आठ छात्र-छात्राएं एक समूह में खड़े थे, गप्पें लड़ाते हुए. उनकी हंसी-ठिठोली की आवाज़ सुनना अच्छा लग रहा था. वैसे देखा जाए, तो विश्वविद्यालय के गलियारों की रौनक ही छात्रों की चहकती आवाज़ से होती है. इसी हँसी-खेल के बीच, एक छात्रा सामने देखते हुए बोली,  कि " देखो, विन्नी आ रहा है सामने से." 
और सबकी निगाहें उस सामने से आ रहे उस विन्नी नामक छात्र पर जा लगी, जो उनका मित्र था. उसी समूह में से एक छात्र बोला,  कि" चलो, इसकी ओर घूर-घूर कर जोर-जोर से हँसते हैं. शर्मिंदा हो जायेगा, बहुत मज़ा आएगा." और फिर क्या था, वो सब 'विश्वविद्यालय' के छात्र, बिना ही किसी बात के, विन्नी की ओर देख-देख कर हँसने लगे, ताकि उसका आत्मविश्वास, और आत्म-संतुलन गड़बड़ा जाए. मेरी नज़रें चुपके से विन्नी की ओर घूम गयी. अब ये विन्नी महाशय भी बड़े सूरमा निकले. शर्मिंदा तो क्या ही होना था, वो भी सुर में सुर मिला कर जोर-जोर से हँसते हुए उन सब की तरफ बढ़ने लगे.
उस टोली की हरकत को बूझते हुए, विन्नी ने अपना आत्म-नियंत्रण नहीं खोया, और उनकी योजना पर पानी फेर दिया. ये विन्नी, जो मेरे लिए एक अजनबी था, एक गज़ब की सीख दे गया मुझे. कि अगर इस दुनिया में ठीक तरीके से रहना है, तो आत्म-नियंत्रण की रणनीति तैयार रखनी चाहिए हर एक पल.  दुनिया की आँख का पानी तो सूख ही चुका है! अपने साथ उठने-बैठने वाले भी हमें शर्मिंदा करने में गौरव का अनुभव करते हैं यहाँ. और इसीलिए, हर पल चौकन्ना रहने की सख्त ज़रूरत है यहाँ.
एक सवाल भी, हर बार की तरह उठा मन में. कि जब अपने साथ रहने वालों के लिए ही स्वीकृति नहीं बना पाए हम अपने मन में, हर एक कदम पर  हम केकड़ों की तरह अपने ही दोस्तों को गिराने की कोशिश में लगे रहते हैं, वो भी उच्च-शिक्षा लेते हुए! तो भला हमारे देश का निकट भविष्य सुखद कैसे होगा, जब भविष्य के कर्णधार ही सही आचरण से दूर हैं! अपने-अपने मोर्चे पर जब तक हम गलत करना नहीं छोड़ेंगे, तब तक सामने से सही की उम्मीद करना भी तो एक गलती ही है न..! 
विश्वविद्यालय के गलियारे की ये एक छोटी-सी घटना दरअसल ज़िन्दगी का एक बहुत बड़ा पाठ है...!