बस, आने ही वाली है दीपावली. इतनी करीब है इस वक़्त तो, कि इसकी पायल की छन-छन तो सुनाई भी देने लगी है. हवाओं में दो ख़ास तरह की गंध फैली हुई है. एक है पटाखों की, और दूसरी रंग-रोगन की. किसी भी गली-कूचे में मुड़ जाएँ, इन दो में से किसी एक गंध से तो मुलाकात हो ही जाती है, दीपावली के पखवाड़े में. और इस बार, रंग-रोगन की गंध मेरे इर्द-गिर्द कुछ ज़्यादा ही फैली हुई है. कारण, हमारे ही मकान के नवीनीकरण का काम जारी है. सुन्दर दिखने के इस युग में भला आज कौन पीछे रहना चाहता है? और पिछले कुछ समय से हमें कुछ ऐसा महसूस हो रहा था, ज्यों हमारा मकान उन सब मकानों से कुछ रश्क-सा कर रहा है, जिन्हें उनके मालिक दीपावली के स्वागत में दुल्हन की तरह सजाया करते हैं. इसलिए, मकान के सौन्दर्य-प्रसाधन, यानि कि, रंगों का इंतजाम किया गया. और इसके साथ ही, मेकअप -आर्टिस्ट, यानि कि पेंटर का भी.
अब चूंकि नवीनीकरण घर के अन्दर होना है. तो सुरक्षा की दृष्टि से, अजनबियों का घर में रहना भी कोई सही बात नहीं है. इसलिए, दो ऐसे लोगों को इस काम के लिए बुलाया गया, जिनके साथ हमारे परिवार की पुरानी जान-पहचान है. एक दीपू, और दूसरा संजय. पर ये दोनों लोग, एक दूसरे के लिए पूरी तरह अजनबी थे. एक देश के पूर्वी हिस्से का, तो दूसरा उत्तर भारत का. हैरत का आलम तब शुरू हुआ, जब इन दोनों ने, पहले ही दिन एक दुसरे को बड़े भाई-छोटे भाई कहकर बुलाना शुरू कर दिया. बिना किसी औपचारिकता के, मिलते ही इन दोनों की दोस्ती की पुख्ता शुरुआत हो गयी. दिनभर काम करते-करते, हाथ तो इन दोनों के बीसियों बार रूक जाते होंगे, पर ज़बान, उसे तो एक पल का भी आराम नहीं. ऐसा भी कह सकते हैं, कि मानो बरसों भर से बातें संजो कर रखी हों दोनों ने, एक दूजे का इंतज़ार करते हुए. एक भी दिन किसी कारण से दीपू की छुट्टी हो जाए, तो संजय मुंह लटकाए मिलेगा. और अगर संजय पैदल चलकर आया होगा, तो दीपू उसे अपने साइकिल पर घर तक छोड़ कर आएगा. 'पक्की दोस्ती'.. यही नाम दिया जा सकता है इन दोनों के इस आपसी तालमेल को देख कर. हमारे घर में इस बात पर तो आजकल शायद कम चर्चा होती है, कि किस दीवार पर कौन-सा रंग ज्यादा खिलेगा. पर ये बात ज्यादा होती है, कि ये दोस्ती, दीपू और संजय की, न्यारी है..!
और एक विचार जो आये बिना रह ही नहीं सकता मन में, इस दोस्ती को देख कर. वो ये है, कि ऊंचे तबके के लोगों को तो दोस्ती करने में, घुलने-मिलने में, और फिर उसे निभा पाने में, एक लम्बा समय लग जाता है. पर तब भी, आत्मीयता का कोई भरोसा नहीं. नाज़-नखरे, नुक्ता-चीनी, और पता नहीं क्या-क्या..! अपवाद छोड़ दें, तो एक-दो भरोसे के दोस्त होना भी बड़ी बात होती है अमीर समाज में. साफ़-सा झांकता हुआ मतलब है, कि इंसान पैसे के मामले में जितना ऊँचा उठता जाता है, सम्बन्ध निभा पाने में उतना ही कमज़ोर होता चला जाता है. इसका कारण, कि हम लोग अब रिश्तों को भी बाज़ार में बिकने वाली दूसरी चीज़ों की तरह हरे काग़ज़ों से खरीदा जा सकने वाला समझने लग गए हैं. और यही बड़ी भूल है हमारी.
यही तो कारण है, कि एक अदद अजनबी को भी घरों में घुसाने से पहले हम सौ बार सोचते हैं. दीपावली जैसा त्यौहार आज भी उतनी ही धूम-धाम से मनाते तो हैं हम, जो होनी चाहिए. लेकिन, अपने-अपने घरों की सीमाओं के अन्दर ही कैद होकर. बड़े-बड़े आलीशान बंगले बना तो लिए हैं हम लोगों ने, लेकिन क्या उनके साथ में अपने लिए अकेलापन भी खरीद नहीं लिया है हमने? कुछ बदमज़ा सी हो गयी लगती है ज़िन्दगी.
दीपोत्सव सबके जीवन में नव-प्रकाश,प्रसन्नता ले कर आये. हार्दिक शुभकामनाएं.