Wednesday, 30 April 2014

मेरा प्रश्न

रात के एक बजे कमरे में कोई रोशनी नहीं थी। और मेरी आँखों से नींद के चिह्न भी नदारद थे। देश के राजनीतिक परिदृश्य पर विचार करते हुए मेरे मन में यूँ ही एक सवाल उठा। और उसका जवाब मुझे अभी तक नहीं मिल पाया है।

प्रश्न है, कि "मूर्खों के देश में राजा अधिक मूर्ख होता है, या प्रजा?"

-टिम्सी मेहता

Wednesday, 16 April 2014

ओ नदी, बताओ न!

सुन्दर प्रदेश में भ्रमण करते हुए नैन और मन दोनों प्रसन्न थे। हरित मार्ग के मध्य, दूर कहीं एक नदी के होने का आभास हुआ। मन में वेगपूर्वक एक विचार उठा, और स्वयं से बतियाने का सिलसिला शुरू हो गया।
 

मन ही मन मैंने नदी से कहा, कि यूँ बलखाती-सी, तुम बहती चली जाती हो। निर्मल, शीतल जल से भरी, दो किनारों के मध्य, अपनी सीमाओं का सम्मान करती, तुम कितनी श्रेया और प्रिया लगती हो! तुम्हारी निर्बाध, प्रवाहमान शैली पर कितनी कवितायें रच दी गयी। जल से भरी तुम, अनंत प्रेरणाओं की स्रोत हो। पर बताओ, क्या कभी किसी पुष्पित बगिया के मध्य बने किसी सुन्दर सरोवर से तुम्हे ईर्ष्या नहीं होती?
 

'अपनी मति-अपनी गति' की उत्कंठा तो शायद उस सरोवर के मन में भी तुम्हे देखकर प्राय: उठा करती रही होगी। पर कहो, तुम भी कभी तो सिमटना चाहती ही होगी! कठोर चट्टानों से संघर्ष तो हर दिन करती ही हो, नित नव मार्ग खुद के रचती ही हो, पर कभी तो तुम भी रुकना चाहती होगी! कभी तो मन में चाह की हूक उठ ही जाती होगी कि तुम्हारी परिधि का भी कोई मनमोहक पुष्पों से सिंगार करे! मृग-शावक तुम्हारे इर्द-गिर्द निर्भीक होकर कुलांचें भरें! मग्न होकर प्रियजन तुम्हारे आँगन में विहार करें! कोई मनोहर संगीत रचे, कोई मृदु गीत गुनगुनाये, कोई तुम्हारे पास झुककर अपनी अंजुली भरकर पूरे उद्यान में जलबिंदुएं बिखरा दे! और हास्य-ठिठोली की मधुर ध्वनि से पूरी बगिया गुंजायमान हो उठे!
 

सरल साध्वी-सी बहती ओ नदी! बताओ न, क्या कभी तुम यों राजसी श्रृंगार से युक्त हो, पटरानियों की भांति इठलाने की नहीं सोचा करती? मेरे प्रश्नों की बौछार से भी तुममे कोई उफान नहीं आया। यूं ही शांत बहती रहोगी, या कुछ उत्तर भी दोगी?