आजकल मेरे आस-पास क़िताबों के ढेर लगे
रहते हैं। अंग्रेजी-हिंदी के उपन्यास पढने का नशा-सा हो गया है. हालांकि
मैं इस समय व्यस्तताओं की चहारदीवारी में कैद हूँ और बहुत-से जरूरी कार्यों
को भी ताक पर लगा रखा है, लेकिन फिर भी ये किताबें मुझसे नजदीकी का रस्ता
ढूंढ ही लेती हैं।
कैसा अनोखा संसार रचा होता है इन किताबों-कहानियों में! पहले-दूसरे पन्ने पढ़ते हुए बहुत-से अजनबी पात्रों से मुलाकात होती है. उनके नाम और चरित्र याद करने और समझ पाने की कोशिश करते-करते पुस्तक के आधे पन्ने पढ़ लिए होते हैं। और अब तक न सिर्फ उन पात्रों से अच्छी-खासी दोस्ती हो चुकी होती है, उनकी समस्याओं को सुलझाने के लिए मन में झंझावत-सा भी छिड़ने लगता है. कई बार कहानीकार इतना प्रवीण होता है की हर एक पात्र को जीवंत कर देता है. किसी-किसी पात्र में तो खुद का ही अक्स झलकता दीखता है. पात्रों की भावनाओं के साथ मन इतना एकाकार हो उठता है की कहीं-कहीं तो नायक-नायिकाओं को तकलीफ में देखकर मेरी ही आँखों से पानी टपकने लगता है. अचानक आये किसी उतार-चढाव के साथ मेरी धड़कनें भी उछल-कूद करने लगती हैं. हमारा मन होता ही ऐसा है न! संवेदनाओं, प्रेरणाओं से भरा हुआ! और ख़ुशी, सम्पूर्णता की चाह रखने वाला! इन्ही कोमल संवेदनाओं की नींव बनाते हुए ही तो उपन्यासकार आखिरी पन्ने तक पहुँचते-पहुँचते सब गुत्थियाँ सुलझा देता है. वैसे किसी-किसी पुस्तक में ऐसा नही भी होता। वहां नायक के साथ आम आदमी की भावनाओं को जोड़कर कुछ अनुत्तरित सवाल छोड़ दिए जाते हैं, यह सोचकर शायद, कि इससे किसी की सोयी हुई चेतना पुनर्जागृत हो जाए!
तो ये कहानीकार भी खुद की एक दुनिया रच रहे होते हैं. उस दुनिया में उन्ही की मर्जी का संसार दिखता है. वो चाहें तो सुन्दर, और वो चाहें तो गन्दला! अपनी दुनिया के भगवान ही तो होते हैं, बस वो दुनिया होती कल्पना की है! कुछ चतुर कहानीकार हम पाठकों की दुखती रग की खूब पहचान कर लेते हैं. अंतिम पन्ने पर नायक को अकेला खड़ा कर दिया जाता है. उदास नायक के दर्द में हम परेशां हो उठते हैं, और बस, उपन्यास के सफल होने का रस्ता तैयार हो जाता है. लेकिन नही, ढेरों कल्पनाओं, भावों, विचारों और शब्दों को एक लय में लिख पाना कोई ऐसा आसान काम भी नही होता! गहरी मेहनत, जज़्बात और दूरदर्शिता का खेल होता है ये! और अगर इस मेहनत के साथ कोई संदेश, कोई सामजिक सरोकार भी पिरो दिया गया हो तो क्यों नही झिंझोड़ देगा वो किसी के मन को! जो भी हो, मनोरंजन की दृष्टि से तो उपन्यासों को पूरे अंक मिलने चाहिए। दौड़ रही आज की जिंदगी में खुद के साथ चैन से समय बिताने का सचमुच बहुत ही सुन्दर जरिया होते हैं ये उपन्यास-किताबें! इन्हें पढना तो मुझे अच्छा लगता ही है, इन पर बतियाना भी अच्छा लग रहा है.
कैसा अनोखा संसार रचा होता है इन किताबों-कहानियों में! पहले-दूसरे पन्ने पढ़ते हुए बहुत-से अजनबी पात्रों से मुलाकात होती है. उनके नाम और चरित्र याद करने और समझ पाने की कोशिश करते-करते पुस्तक के आधे पन्ने पढ़ लिए होते हैं। और अब तक न सिर्फ उन पात्रों से अच्छी-खासी दोस्ती हो चुकी होती है, उनकी समस्याओं को सुलझाने के लिए मन में झंझावत-सा भी छिड़ने लगता है. कई बार कहानीकार इतना प्रवीण होता है की हर एक पात्र को जीवंत कर देता है. किसी-किसी पात्र में तो खुद का ही अक्स झलकता दीखता है. पात्रों की भावनाओं के साथ मन इतना एकाकार हो उठता है की कहीं-कहीं तो नायक-नायिकाओं को तकलीफ में देखकर मेरी ही आँखों से पानी टपकने लगता है. अचानक आये किसी उतार-चढाव के साथ मेरी धड़कनें भी उछल-कूद करने लगती हैं. हमारा मन होता ही ऐसा है न! संवेदनाओं, प्रेरणाओं से भरा हुआ! और ख़ुशी, सम्पूर्णता की चाह रखने वाला! इन्ही कोमल संवेदनाओं की नींव बनाते हुए ही तो उपन्यासकार आखिरी पन्ने तक पहुँचते-पहुँचते सब गुत्थियाँ सुलझा देता है. वैसे किसी-किसी पुस्तक में ऐसा नही भी होता। वहां नायक के साथ आम आदमी की भावनाओं को जोड़कर कुछ अनुत्तरित सवाल छोड़ दिए जाते हैं, यह सोचकर शायद, कि इससे किसी की सोयी हुई चेतना पुनर्जागृत हो जाए!
तो ये कहानीकार भी खुद की एक दुनिया रच रहे होते हैं. उस दुनिया में उन्ही की मर्जी का संसार दिखता है. वो चाहें तो सुन्दर, और वो चाहें तो गन्दला! अपनी दुनिया के भगवान ही तो होते हैं, बस वो दुनिया होती कल्पना की है! कुछ चतुर कहानीकार हम पाठकों की दुखती रग की खूब पहचान कर लेते हैं. अंतिम पन्ने पर नायक को अकेला खड़ा कर दिया जाता है. उदास नायक के दर्द में हम परेशां हो उठते हैं, और बस, उपन्यास के सफल होने का रस्ता तैयार हो जाता है. लेकिन नही, ढेरों कल्पनाओं, भावों, विचारों और शब्दों को एक लय में लिख पाना कोई ऐसा आसान काम भी नही होता! गहरी मेहनत, जज़्बात और दूरदर्शिता का खेल होता है ये! और अगर इस मेहनत के साथ कोई संदेश, कोई सामजिक सरोकार भी पिरो दिया गया हो तो क्यों नही झिंझोड़ देगा वो किसी के मन को! जो भी हो, मनोरंजन की दृष्टि से तो उपन्यासों को पूरे अंक मिलने चाहिए। दौड़ रही आज की जिंदगी में खुद के साथ चैन से समय बिताने का सचमुच बहुत ही सुन्दर जरिया होते हैं ये उपन्यास-किताबें! इन्हें पढना तो मुझे अच्छा लगता ही है, इन पर बतियाना भी अच्छा लग रहा है.