Sunday, 24 February 2013
Friday, 8 February 2013
शब्दों की कहानियां
कैसे
मिलते हैं शब्द, और कैसे बनती हैं कहानियां! कभी तो कितनी आसानी से
शब्द भी मिल जाते हैं और कहानियां भी बन जाती हैं, तो कभी-कभी खुद से
बात-भर करने को ही ये मन चाह रखता है। शब्द अगर कलम से निकलने वाला भर
ही हुआ करता तो शायद दिन-दिन में ही उपन्यास लिखे गए होते! पर जो मन से न
फूटा, वो कैसा लेखन भला! मखमली महीन धागों से गुंथे हुए शब्द जब सीधे मन से
स्फुरित होते हैं तो ही वो किसी भी मन को छू पाते हैं।
वसंत आते ही मन बदलने लगता है। जब ऐसा ही खुशगवार मौसम हो जाता है तो कलम का जमा रक्त पिघल उठता है। फिर पन्ने रंगने में कुछ ज़्यादा मेहनत नहीं लगती। खुशबू का सिंगार किये हुई रेशमी हवाएँ अंगडाइयाँ लेती-लेती इठलाकर आँगन में आती हैं तो ये मन बावरा-सा होकर झूमने लगता है। हवाओं से रेशम के तन्तुओं को इकट्ठा कर-कर के उनसे शब्द बुनता है। और फिर उन शब्दों के पुष्प यहाँ-वहाँ बिखेर कर बहकने लगता है।
कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि मन अपनी इस मस्ती में इतना मग्न हुआ डोलता रहता है कि वह शब्दों की अपनी दुनिया में आना ही नही चाहता। गुनगुनाता रहता है और किसी के रचित गीत, झूमता रहता है अपनी ही लय पर स्वरचित अनोखी मुद्राओं संग! हवा से खुशबू के धागों को खींच-खींच कर नट की तरह उन पर झूलता रहता है। कभी धूप में सूरज की किरणों का ही विमान बना कर मुक्ताकाश में उड़ान भरता रहता है। तब, भाव तो बह-बह कर उतर आना चाहते हैं, शब्दित होकर अमर हो जाना चाहते हैं। लेकिन इस पगले ने जो ठान रखी होती है बस इन्ही पलों में जीने की, शब्दों की अनदेखी करने की, तो कौन ही मना पाए इसे! ऐसा ये मतवाला मन आखिर क्या चाहता है, किस रसभरी प्याली को पकड़ कर बैठा है, बस ये ही जाने।
और कभी जाकर जब इसका खुमार उतरता है, तो शब्दों के समंदर में गोते लगा-लगाकर मोती बटोरने में जुटा रहता है। उन मोतियों को भावों के सांचे में भर शब्दों की ऐसी आकृति भी कभी-कभार गढ़ बैठता है जो इसने खुद भी न सोच रखी थी। कितनी बार तो अपनी ही शब्दमाला पर ये मन ऐसे मोहित-सा हुआ रहता है, कि स्मरण कर-कर सर झुका देता है। भली तरह समझता है ये, कि इन कहानियों में मेरा कुछ किया-कराया नहीं, यह तो 'स्वयं' प्रसन्नता ही है, जो कि शब्दों से अभिव्यक्त होना चाह रही है।
वसंत आते ही मन बदलने लगता है। जब ऐसा ही खुशगवार मौसम हो जाता है तो कलम का जमा रक्त पिघल उठता है। फिर पन्ने रंगने में कुछ ज़्यादा मेहनत नहीं लगती। खुशबू का सिंगार किये हुई रेशमी हवाएँ अंगडाइयाँ लेती-लेती इठलाकर आँगन में आती हैं तो ये मन बावरा-सा होकर झूमने लगता है। हवाओं से रेशम के तन्तुओं को इकट्ठा कर-कर के उनसे शब्द बुनता है। और फिर उन शब्दों के पुष्प यहाँ-वहाँ बिखेर कर बहकने लगता है।
कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि मन अपनी इस मस्ती में इतना मग्न हुआ डोलता रहता है कि वह शब्दों की अपनी दुनिया में आना ही नही चाहता। गुनगुनाता रहता है और किसी के रचित गीत, झूमता रहता है अपनी ही लय पर स्वरचित अनोखी मुद्राओं संग! हवा से खुशबू के धागों को खींच-खींच कर नट की तरह उन पर झूलता रहता है। कभी धूप में सूरज की किरणों का ही विमान बना कर मुक्ताकाश में उड़ान भरता रहता है। तब, भाव तो बह-बह कर उतर आना चाहते हैं, शब्दित होकर अमर हो जाना चाहते हैं। लेकिन इस पगले ने जो ठान रखी होती है बस इन्ही पलों में जीने की, शब्दों की अनदेखी करने की, तो कौन ही मना पाए इसे! ऐसा ये मतवाला मन आखिर क्या चाहता है, किस रसभरी प्याली को पकड़ कर बैठा है, बस ये ही जाने।
और कभी जाकर जब इसका खुमार उतरता है, तो शब्दों के समंदर में गोते लगा-लगाकर मोती बटोरने में जुटा रहता है। उन मोतियों को भावों के सांचे में भर शब्दों की ऐसी आकृति भी कभी-कभार गढ़ बैठता है जो इसने खुद भी न सोच रखी थी। कितनी बार तो अपनी ही शब्दमाला पर ये मन ऐसे मोहित-सा हुआ रहता है, कि स्मरण कर-कर सर झुका देता है। भली तरह समझता है ये, कि इन कहानियों में मेरा कुछ किया-कराया नहीं, यह तो 'स्वयं' प्रसन्नता ही है, जो कि शब्दों से अभिव्यक्त होना चाह रही है।
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