Sunday 12 August 2012

स्मृतियों के आँगन से ..

बारिश की बूंदों में भी अनोखा-सा कुछ असर होता है. चंद बूंदों की ज़मीन पर ही बचपन के नज़ारे तैरते नज़र आने लगते हैं...  मेरे परनाना जी, जिन्हें हम बाबाजी कहते थे, लकड़ी की एक छड़ी लेकर चला करते थे. चार-पाँच बरस की उम्र में मुझे उस छड़ी, और हॉकी-स्टिक का फर्क समझ में नही आता था. स्कूल में हमें तस्वीरें देखकर खेल का नाम बताना होता था, और इसलिए मम्मी घर पर तैयारी कराया करती थी. बाकी सब खेलों के नाम तो मुझे ठीक-ठीक याद होते ही थे, पर हॉकी की तस्वीर देखकर हर बार मेरा एक ही जवाब होता था, 'बाबाजी का डंडा'. :D बड़ों को ये सुनकर हँसी आती थी, और मुझे कौतूहल होता था, कि सही ही तो कहा है मैंने, तो इसमें हंसने की क्या बात हुई! आज तक भी हॉकी को हमारे घर में 'बाबाजी का डंडा' ही कहा जाता है
कल शाम की बारिश के बाद से ही यह प्रिय स्मृति बार-बार याद आ रही है. 

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